अल्का सैनी की कहानी : मंजिल

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प्रतीक्षा के कॉलेज का पहला दिन था, वह अपने पिताजी के साथ डी. ए. वी कॉलेज की ओर बस में जा रही थी. वह मन- ही-मन बहुत खुश थी,बस की खिडकियों ...

manjil

प्रतीक्षा के कॉलेज का पहला दिन था, वह अपने पिताजी के साथ डी. ए. वी कॉलेज की ओर बस में जा रही थी. वह मन- ही-मन बहुत खुश थी,बस की खिडकियों से बाहर झाँककर प्रकृति की स्वछंद छटा का आनंद उठा रही थी. वह सोच रही थी कि आज के बाद उसे कभी भी स्कूल में होने वाली प्रातकालीन प्रार्थना में खड़ा नहीं होना पड़ेगा और न ही उसे स्कूल-प्रबंधन द्वारा निर्धारित किसी भी तरह का परिधान पहनना पड़ेगा. आज से वह अपने मन की मालकिन है, वह अपनी इच्छा से मन पसंद कपडे पहन पाएगी. नीले-रंग के सलवार सूट में वह बहुत सुन्दर दिखाई दे रही थी. एक आजाद पखेरू की तरह वह उन्मुक्त गगन की ऊँचाइयों को नापना चाहती थी, तरह-तरह के सपने संजोए हुए नई इच्छाओं,  आंकाक्षाओं तथा उमंगो से सरोबार था उसका मन.

पिताजी बेटी के प्रसन्नचित्त मुख-मंडल को देखकर कहने लगे , " बेटी , आज तुम्हारे कॉलेज का पहला दिन है खूब ध्यान लगाकर पढ़ाई करना. जरूर एक–न-एक दिन हमारे कुल का नाम रोशन करोगी, जब तुम आई. ए. एस बन जाओगी. तुम्हारे कॉलेज ने देश के कई आई. ए. एस अधिकारी पैदा किए हैं ."
वह इस बात को बहुत अच्छी तरह जानती थी कि पिताजी उससे बड़ी-बड़ी उम्मीदें संजोकर रखे हुए हैं . उसे वह दिन याद आ गया जब मैरिट-लिस्ट में उसका नाम पाँचवे स्थान पर आया था . पापा के चेहरे पर हर्षातिरेक के भाव आसानी से देखे जा सकते थे.

जब पड़ोसियों, मित्रों, सगे-सम्बन्धियों ने अपने बधाई-सन्देश दिए तो वह गर्व से फूले नहीं समाए. सबको मिठाई खिलाते-खिलाते एक ही बात दोहरा रहे थे कि मेरी होनहार बेटी है, जिस लगन और मेहनत के साथ वह पढाई करती है एक- न-एक दिन खानदान और इस शहर का नाम जरुर रोशन करेगी. कहते है न 'होनहार बिरवान के होत चिकने पात '
उस दिन पिताजी की आँखों में अजीब-सी चमक थी .आज पिताजी के इस असीम विश्वास और अथाह प्रेम के सागर में गोते लगाते- लगाते कब उसकी आँखें नम हो गई उसे पता ही न चला. रह-रहकर एक ही ख्याल मन के किसी कोने को झिंझोड़ रहा था कि क्या वह पिताजी की इन उम्मीदों पर खरा भी उतर पाएगी .

प्रतीक्षा का जन्म उसकी बड़ी बहिन अनुराधा के पाँच साल बाद हुआ था . जन्म से ही वह बहुत सुन्दर थी गोल-मटोल चेहरा बड़ी-बड़ी आँखें दूसरी लड़की होने के बाद भी माता-पिता ने उसे खूब प्यार दिया था. माँ अक्सर कहती थी कि क्या मेरी यह बेटी किसी लड़के से कम है! उसके जन्म के डेढ़-साल बाद उसका भाई राजीव पैदा हुआ. घर में चारों तरफ ख़ुशी का माहौल था. परन्तु फिर भी उसके माता- पिता ने अपने आजीवन लड़के -लड़की में विभेद नहीं किया था .

इतने अच्छे परिवेश में बचपन के दिन कब बीत गए पता ही नहीं चला देखते-देखते ही वह कॉलेज की छात्रा बन गई और स्कूल का जीवन बहुत पीछे छूट गया. उसके विचारों की तन्द्रा तब भंग हुई ,जब सामने शास्त्री सर्कल का मोड़ आया और पिताजी उसको ख्यालों में डूबा देख कहने लगे

" प्रतीक्षा कहाँ खो गई हो? , क्या सोच रही हो? आधा-घंटा और लगेगा तुम्हारा कॉलेज आने में”. उसने पिताजी की बात को अनसुना कर दिया कोई प्रतिक्रिया ना पाकर पिताजी ने उसे झिंझोड़ा और उसके चेहरे की तरफ देखने लगे .., " अरे ये क्या तुम तो रो रही हो , ऐसा क्या हुआ तबीयत ठीक नहीं है या कोई सामान घर भूल कर आई हो कुछ तो बताओ , क्या हुआ है ?"

पिताजी के एक साथ इतने सारे प्रश्नों को सुन कर वह खुद को संभाल न पाई और फफक- फफककर रोते हुए कहने लगी " पापा मेरी बहुत सारी सहेलियों ने सैंट जेविएर कॉलेज में दाखिला ले लिया है जबकि मै तो पढ़ने में उनसे काफी आगे थी और मैं डी. ए.वी कॉलेज में . मुझे इस बात का डर है कि मैं आपके सपनों को साकार कर पाऊँगी क्या ? कई मेरी कक्षा के विद्यार्थी तो इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में चले गए हैं . क्या आपकी मेरिट होल्डर बेटी के नसीब में ये सब नहीं था क्या !

मानो उसने पिताजी की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. एक दार्शनिक की भांति पिताजी उसे सांत्वना देने लगे  " प्रतीक्षा तुम तो जानती हो कि तुम्हारे कमजोर स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए ही नजदीक के कॉलेज में तुम्हारा दाखिला करवाया है ., मैं पूर्णतया आश्वस्त हूँ कि यहाँ भी पढाई करके तुम अपनी मंजिल पा सकती हो. करम करने पर ध्यान दो , फल तुम्हारी झोली में खुद- ब-खुद आकर गिर जाएगा , और कॉलेज से कोई फर्क नहीं पड़ता, पढाई तो खुद ही करनी पड़ती है . पिताजी के नेत्रों में छलकते प्रेम को देख कर प्रतीक्षा का रोना और बढ गया . सिसकते-सिसकते आँसुओं की धारा गालों के ऊपर सर्पिल-नदी की भांति बहते हुए मुँह तथा गले की तरफ जा रही थी.
उसने अपना रुमाल निकाला और आंसू पोंछ के शांत होने का प्रयास किया . लेकिन मन तो मन ही था . एक बार जिस विषय पर केन्द्रित हो गया तो वहाँ से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. रह-रहकर उसे मेरिट की लिस्ट याद आ रही थी और परिजनों की उससे लगी उम्मीदें याद आ रही थी. वह इतनी भावुक हो गई कि एक एक कर बचपन के दोस्तों के चेहरे याद आने लगे .

जो दोस्त उसे डॉक्टर या इजीनियर के रूप में देखना चाहते थे , उनकी कही बातें उसके मानस पटल पर बार- बार आ जा रही थी, वे कहते थे कि प्रतीक्षा तुम्हारे लिए तो बाएँ हाथ का खेल है डॉक्टर या इंजीनियर बनना . उसकी भी बचपन से हार्दिक इच्छा रही थी कि जिन्दगी में कुछ मुकाम हासिल करे , वह बात और थी कि पिताजी ने कभी उस पर अपनी इच्छा का दबाव नहीं डाला था ,वह तो उसकी लगन के मुताबिक ही चाहते थे , कि उनकी बेटी उच्च प्रशासनिक अधिकारी बने ताकि उनका सिर सम्मान से ऊँचा उठ सके. जैसे- जैसे उसको बीते समय की यादें गहराने लगी, वैसे- वैसे फिर से उसकी आँखें नम होने लगी, वह कुछ ज्यादा ही संवेदनशील थी, हर छोटी-सी बात पर भावुक हो जाती थी. जितना प्रयास करती बीती बातों को भूलने का, उतना ही रह-रह कर उसके सामने आ रही थी' बीती ताहि विसार दे आगे की सुधि ले '. आगे की सोच अभी निर्णायक स्तर तक नहीं पहुँच पा रही थी. बार- बार मन में एक ही ख्याल की पुनरावृत्ति हो रही थी कि कैसे सब की उम्मीदों पर खरा उतरे, कैसे वह सब को इतना सुख दे कि सब का सीना फख्र से चौड़ा हो जाए .

इन्हीं सबके बीच सोचते- सोचते वह फिर से अतीत में खो गई . प्रतीक्षा के जीवन में जिस तरह उतार-चढ़ाव आए थे, बचपन से शायद इसीलिए वह ज्यादा भावुक होती गई. बचपन से ही वह मीठा खाने की कुछ ज्यादा ही शौक़ीन थी. जब वह पाँचवी कक्षा में ही थी सिर्फ कि उसके दाँत में दर्द शुरू हो गया अचानक. जरा-सा पानी लगने पर भी वह दर्द से कुलबुला उठती. उस दिन उसके दांत का दर्द कुछ ज्यादा ही बढ गया . उस दिन पिताजी भी कहीं बाहर गए थे और माँ घर के काम काज में व्यस्त थी. माँ ने कहा " प्रतीक्षा,ऐसे कोई दर्द ठीक हो जाएगा क्या , जाओ और दीदी के साथ जाकर सदर अस्पताल में दिखा आओ, डॉक्टर दवाई दे देगा और दर्द झट से ठीक भी हो जाएगा. जब मैं कहती थी कि प्रतीक्षा मीठी चॉकलेट कम खाया करो, तब तो कहना मानती नहीं थी."

वह डॉक्टर के पास जाने से बहुत घबरा रही थी और रोते रोते कहने लगी " माँ अगर डॉक्टर ने दांत को निकाल दिया तो ." माँ ने कहा " तुम तो अभी छोटी हो इतनी जल्दी डॉक्टर दांत थोडा ही निकालेगा "

माँ ने रसोई घर में जाते-जाते कहा .माँ की इन बातों से कुछ तसल्ली पाकर वह अपनी बड़ी बहिन अनुराधा के साथ सदर अस्पताल के लिए चल पड़ी. वहाँ जाकर उसने देखा कि पहले से ही लम्बी- कतार लगी है मरीजों की. काफी समय इन्तजार करने के बाद उसकी बारी आई तो डॉक्टर ने उसका दाँत चेक किया और बोला कि दाँत तो पूरी तरह सड़ चुका है." तब क्या करना होगा डॉक्टर साहिब" ,  दीदी ने आशंकित स्वर में डॉक्टर से पूछा  .यही एक तरीका बचा है कि इन्फेक्टेड दाँत को निकाल देना चाहिए नहीं तो पायरिया होने का डर है. मेडिकल विज्ञान की ये बातें न उसको समझ आ रही थी न उसकी बड़ी बहिन को . कुछ समय सोचने के बाद दीदी ने प्रतीक्षा की तरफ देखते हुए उसकी दाढ़ निकालने की अनुमति दे दी. डॉक्टर ने प्रतीक्षा को मुँह खोल कर रखने को कहा और सुन्न करने वाला इंजेक्शन उसकी दाढ़ में लगा दिया. डॉक्टर ने कहा कि इससे दाँत सुन्न हो जाएगा और फिर दाँत निकालने में दर्द नहीं होगा और बाहर की तरफ इशारा करते हुए कुछ देर इन्तजार करने को कहा.प्रतीक्षा चुपचाप बाहर बेंच पर जाकर बैठ गई और अपनी बारी का इन्तजार करने लगी .उसके चेहरे पर मासूमियत झलक रही थी. जैसे-जैसे दाँत सुन्न हो रहा था वह रुआंसी हो रही थी और कुछ घबराहट भी हो रही थी .बड़ी बहिन पास बैठी उसे हिम्मत देने की कोशिश कर रही थी." प्रतीक्षा कुछ नहीं होगा, घबराओ मत, आज कल तो विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली है और इतने बड़े से बड़ा ऑपरेशन बड़ी आसानी से हो जाता है और यह तो एक दांत निकालने की बात है सिर्फ. और तुम तो अभी छोटी हो और यह तो दुधिया दाँत है वापिस फिर से आ जाएगा. मौसी के बारे में तो जानती ही हो कि उन्हें कैंसर हुआ था और ऑपरेशन के बाद ठीक है बिलकुल".

अनुराधा के इतने लम्बे-चौड़े भाषण को वह क्या समझ पाती .दीदी की आँखों को देख कर वह समझ गई कि उसे कोई खतरा नहीं है. सहमति जताने के लिए उसने अपना सर हिला दिया .वह पहले भी घर में बातचीत के दौरान रिश्तेदारों के ऑपरेशन के बारे में सुन चुकी थी .किसी को स्तन कैंसर था तो किसी को गठिया , लेकिन ऑपरेशन के बाद ये बिमारी दूर हो गई थी.

काफी समय बीत गया था पर उनकी बारी नहीं आई थी. डॉक्टर काफी भीड़ होने के कारण दूसरे मरीजों को /देख रहा था . आधा-घंटा लगभग बीत गया था. धीरे-धीरे उसकी निश्चेतन हुई दाड़ में फिर से दर्द- सा होना लगा और चेतना का ऐहसास फिर से होने लगा. जब तक उसकी बारी आई तब तक टीके का असर लगभग ख़त्म ही हो गया था, पर उसे इतनी समझ थोडा ही थी. वह डॉक्टर से क्या बताती और कैसे बताती. डॉक्टर ने उसे एक विशेष-सी कुर्सी पर आराम से बैठने को कहा और लाइट उसकी तरफ घुमा दी और कहा "अच्छा अब मुँह पूरी तरह खोलो, बस एक मिनट लगेगा.”

यह कहते हुए एक तरह के ख़ास औजार से उसकी दाड़ जड़ से निकाल दी . प्रतीक्षा की चीख निकल गई , डॉक्टर ने डाँटते हुए कहा चिल्लाने की क्या बात है , और दाँत में से खून बहने लगा. ,वह दर्द से बिलबिला रही थी , उसकी यह हालत देखकर उसकी बहिन अनुराधा भी घबरा गई  . डॉक्टर साहिब ये क्या, उसके दाँत से तो बहुत खून निकल रहा है. डॉक्टर ने कहा कि घबराने की बात नहीं है और यह कहकर डॉक्टर ने एक बड़ा सा रुई का फ़ौआ उसके दाँत की जगह ठूंस दिया, इसे निकालना मत्त और जल्द ही खून रुक जाएगा. डॉक्टर की थोड़ी सी असावधानी की वजह से आस पास के दांत भी खराब होने शुरू हो गए और उनकी जड़ों में भी इन्फैक्शन फ़ैल गया और मर्ज ठीक होने की बजाय बढता ही गया .प्रतीक्षा के कई दांतों में संक्रमण फ़ैल गया .और उन दांतों को भी निकालने के अलावा कोई चारा नहीं बचा था . खान-पान की असुविधा होने के कारण उसका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन बिगड़ता ही गया. एक दो दांत ऊपर के जबड़े से भी निकल जाने के कारण उसकी आँखों की रोशनी भी कम होती गई दिन पर दिन. कक्षा में बोर्ड पर लिखे हुए अक्षर पढ़ने में उसको काफी दिक्कत आने लगी . और छठी कक्षा में ही एक मोटा-सा चश्मा उसकी आँखों पर लग गया .इस चश्मे की वजह से सब उसे चश्मिश कहकर पुकारने लगे और वह मन ही मन अवसाद ग्रस्त होती गई  ..दूध के दांत निकलवाने के बाद वापिस आ गए मगर उसका गिरता स्वास्थ्य , अवसाद ग्रस्त चेहरा तथा आँखों पर लगे मोटे चश्मे ने उसकी सुन्दरता को इस तरह छुपा दिया था मानो किसी काले बादल ने दैदीप्यमान सूरज को ढक लिया हो .अपनी सुन्दरता को खोता देखकर वह दिन- प्रतिदिन हीन-भावना की शिकार होती गई. न तो वह अब ज्यादा किसी से बात करती और न किसी को ख़ास मिलना पसंद करती .वह सबसे कटी-कटी रहने लगी. अगर घर पर कोई भी रिश्तेदार या कोई मित्र आता है तो वह छुप जाती थी .अब उसके पास एक ही लक्ष्य था केवल पढाई और पढाई .सारा दिन किताबों में लीन रहना उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था. इतनी बीमारियाँ छोटी उम्र में और ऊपर से कुछ ज्यादा परिश्रम करने के कारण उसकी प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होने लगी और देखते- देखते वह तपेदिक जैसी भयानक बीमारी की चपेट में आ गई. उसको हर समय बुखार रहने लगा और खांसी के साथ बलगम में खून आने लगा .पहले वह बड़ी बहिन के साथ सोया करती थी परन्तु अब माता-पिता ने उसका बिस्तर अलग लगा दिया और बाकी हर रोज इस्तेमाल होने वाला सामान भी सब अलग कर दिया और इस वजह से उसे पहले जैसा प्यार भी नहीं मिल पा रहा था. पिताजी ने उसे हिदायत देते हुए कहा " बेटी खांसते वक़्त मुह पर रुमाल रख लिया करो , यह बिमारी एक संक्रमित आदमी से घर के बाकी सदस्यों को भी हो सकती है खांसी के द्वारा और दूसरे सामानों के इस्तेमाल से भी इस बीमारी के कीटाणु दूसरों तक आसानी से पहुँच सकते हैं अतः बेहतर यही है की तुम अलग कमरे में और अलग बिस्तर पर सोया करो".

पिताजी की ये बातें सुन कर प्रतीक्षा को ऐसा लगा मानो उस पर वज्रपात हुआ हो. इस छूआ-छूत की बीमारी के बारे में बताते-बताते पिताजी दुखी हो गए और उसे सदर अस्पताल के जाने माने डॉक्टर के पास ले गए. डॉक्टर ने बड़ी बारीकी से उसकी बीमारी की जांच-पड़ताल की और दो महीने की एंटीबायोटिक मेडीसिन दी और साथ में चालीस पेंसिलिन के इंजेक्शन भी दिए. दवाइयाँ इतनी कडवी थी और पेंसिलिन की सुइयों का तो कहना ही क्या ! इतने दर्द भरे थे कि बैठते नहीं बनता था. हर रोज का एक इंजेक्शन था जिसे लगातार लगवाना पड़ता था और न चाहते हुए भी वह इस असहनीय दर्द को सहने को मजबूर थी और इतना सब झेलने के बाद वह मानसिक और भावनात्मक तौर पर कमजोर पड़ती जा रही थी. मगर घर वाले हैरान थे और उसके साहस की दाद देते थे कि कैसे प्रतीक्षा ने इतनी छोटी उम्र में भी अपनी बीमारी के साथ लम्बी लड़ाई लड़ी. धीरे-धीरे वह ठीक होती गई और इसकी वजह से वह अपने स्वास्थ्य के लिए काफी सचेत रहने लगी क्योंकि शंका उसके मन के कोने में घर कर गई थी. एकाग्रता के अभाव में नौवीं कक्षा में उसको काफी कम अंक प्राप्त हुए. कम अंको की वजह से उसे काफी दुःख लगा और खुद को असहाय महसूस करने लगी. फिर उसे नर्सरी कक्षा में पढाई गई कहानी "राजा और मकड़ी "याद आ गई ,और उसने अपनी आंतरिक शक्ति को इक्कठा करते हुए दिन दूनी रात चौगुनी मेहनत करना शुरू किया दसवीं कक्षा की परीक्षा के लिए.

आखिरकार अपना नाम दसवीं के बोर्ड की परीक्षा की मेरिट-लिस्ट में अंकित करवाकर न केवल अपनी बुद्धिमता का और साहस का परिचय दिया बल्कि अपने पिता के गौरव को भी अक्षुण रखा. सही भी था कि पूत के पाँव पालने में ही पहचाने जाते हैं . उसकी गौरवमयी सफलता को देख कर पिताजी प्रतीक्षा के प्रशासनिक अधिकारी बनने का दिवा -सपना देखने लगे. और उसकी आगे की पढाई के लिए योजना बनाने लगे. पिताजी ने प्रतीक्षा का मार्गदर्शन किया कि प्रशासनिक अधिकारी बनने के लिए दो सालों तक यानी बारहवीं तक वह साइंस के विषय पढ़ ले तांकि उसका सामान्य-ज्ञान अच्छा हो जाए और उसकी दिनचर्या भी अच्छी बनी रहे .फिर उसके बाद आर्ट्स के विषय लेकर मेन पेपर के लिए अच्छे से दो विषय तैयार कर ले . इस तरह उसके पिता जी ने मन ही मन पूरी योजना हर बात की बना ली. वह मन ही मन सोच रहे थे की उनके खानदान में आज तक कोई भी इतने ऊँचे पद पर आसीन नहीं हुआ है और जब प्रतीक्षा इस पद पर होगी तो उनका सिर फख़्र से सबकी नजरों में कितना ऊँचा हो जाएगा .

तभी बस कंडक्टर ने बस रोकी और कहने लगा कि डी ए वी कॉलेज का स्टॉप आ गया है, यहाँ वाले सब उतर जाएँ , तभी प्रतीक्षा ने सामने देखा अपने नए कॉलेज के बड़े से गेट को ..

प्रतीक्षा को उठता देखकर पिताजी ने उसकी तरफ इस तरह देखा मानो अपने अरमानों की चिट्ठी उस तक पहुँचाना चाहते हो. पिता जी प्रतीक्षा की तरफ देख कर कहने लगे जाओ बेटी अपने अरमानों को हासिल करो " वह अपनी अतीत की यादों के थपेड़ों से बाहर निकल कर जिन्दगी के रंगीन सपनों को सार्थक करने के लिए कॉलेज के बड़े से गेट में प्रवेश करने लगी. क्या वह अर्जुन की तरह अपने लक्ष्य को बेध पाएगी उसे लग रहा था उसको ही क्यों इतना सब झेलना पड़ा और इतना संघर्ष क्यों ?

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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: अल्का सैनी की कहानी : मंजिल
अल्का सैनी की कहानी : मंजिल
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