विभा रानी की कहानी : होठों की बिजली

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चींची हल्के से कराही तो शानो के मुंह से एक ठंडी आह निकल गई -‘हाय मेरे रब्ब! ये कौन से दिन तूने दिखाए हैं मुझे? क्या गुनाह था मेरा और इस न...

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चींची हल्के से कराही तो शानो के मुंह से एक ठंडी आह निकल गई -‘हाय मेरे रब्ब! ये कौन से दिन तूने दिखाए हैं मुझे? क्या गुनाह था मेरा और इस नन्हीं सी जान का!‘ आँसू बेसाख्ता उसके गालों पर ढुलकने लगे।

टप्-टप्! आँसू की चंद बूँदें चींची के चेहरे पर पड़ी । वह फिर हल्के से कुनमुनाई और धीरे से आँखें खोली, जैसे आँखें खोलने में भी उसे बड़ी तकलीफ हो रही हो। आँसुओं से तर-ब-तर शानो का चेहरा सामने था -‘ममा!‘ बेहद बारीक, अस्फट स्वर में निकला उसके मुंह से, जिसने शानो को चौकन्ना कर दिया। चींची उसे आवाज दे रही है, उसे ऐसा लगा। आँसुओं से भरी आँखों में उसे चींची की धुंधली सी शकल नजर आई। गले में पड़ी चुन्नी से झट-पट अपना चेहरा पोंछ डाला। खुद को दुत्कारा -‘क्या कर रही है वह?‘ उसने तय किया था कि वह उसके सामने खुद को कमजोर नहीं बनाएगी। रोएगी तो कतई नहीं। बच्चे तो यूँ भी अपनी माँ को रोते देख बुझ जाते हैं या खुद ही रोने लगते हैं।

उसके भाई का यह बड़ा प्यारा शगल था। जब भी आता, चींची के सामने शानों को पीटने का अभिनय करता -‘मारूँ तेरी मम्मी को? आ, ये ले, और ये, और ये..‘ हाथ उठाकर झूठ-मूठ के थप्पड़ शानों की पीठ, हाथ, गालों पर लगाता। शानों भी उसका आनंद लेते हुए रोने का अभिनय करती। बच्चे अपनी माँ से कितना जुड़े होते हैं, इस अभिनय से उसे समझ में आता। चींची पहले देखती, फिर उसके चेहरे पर हवाइयाँ उडतीं, फिर वह चिल्लाते हुए शानो के पास दौड़ती, उसे कसके पकड़ लेती और फिर जोर-जोर से रोने लगती। उसे रोता देख मामा और वह दोनों ही हँसने लगते। मामा चींची को गोद में भर लेता। उसे कसकर भींचता, चूमता। कभी-कभी तो इतना कि उसकी जकड़न के कसाव में उसकी साँसे दबने लगती, ब्याधे के पंजे में फंसी नन्हीं चिड़िया की तरह वह उससे छूटने के लिए छटपटाने लगती। मामा शानो से कहते -‘देखो, कैसे छूटने के लिए मचल रही है। प्यारी बच्ची, नहीं छोडूँगा तुम्हें।‘ और तड़ातड़ उसके गाल पप्पियों से भर देता। इतना कि थूक उसके गालों पर सन जाते। मामा फिर जेब से चौकलेट निकालते, उसे देते और जमीन पर उतार देते। शानो वारी-वारी जाती - भाई के इस प्रेम पर। कित्ता चाहता है चींची को। कभी-कभी तो वह यह भी कह देती -‘तू ही इसका कन्यादान करना भैया। तुझे बेटी नहीं है न! घर भरा-भरा, चमकदार और रोशन लगने लगता है, अगर बेटियाँ हो तो।‘

चींची के पापा का भी यही मानना है। चींची में उनकी जान बसती है। चींची के जन्म पर नर्सिग होम में नर्सें दाइयाँ खामोश हो गईं। बेटा होने पर उनकी बाँछें खिल जाती हैं। घरवालों से इनाम-इकराम ज्यादा मिलता है। ऑपरेशन थिएटर के बाहर बेचैनी से घूम रहे पापा ने नन्हीं काँय की आवाज सुनी। उनके दिल की धडकन बढ़ गई। वे इंतजार कर रहे थे कि अंदर से कोई निकलकर उन्हें उस नन्हीं सी जान की सूचना देगा। नन्हीं काँय-काँय खामोश हो गई और अंदर से कोई निकला भी नहीं। वे नर्वस होने लगे। अंदर सब ठीक-ठाक तो है न! उन्होंने अपनी माँ को देखा, जिन्होंने तबतक जच्चे-बच्चे की कुशलता और सलामती कें लिए जाने कितनी पूजा-मन्नत मान दी।

तभी ऑपरेशन थिएटर का दरवाजा खुला और दो नर्सें नमूदार हुई। पापा झट से बढे, बेचैनी, आकुलता और सवालों के साथ। नर्स ने बुझी आवाज में कहा -‘लड़की है।‘

‘कैसी है?‘

‘ठीक ही है। लड़कियाँ तो काठ होती हैं। उन्हें जल्दी कुछ नहीं होता।‘

पापा भड़क गए -‘ऐसे क्यों बोल रही हैं आप? बच्चा मेरा है। लड़का है या लड़की, उस पर खुशी या नाराजगी जताने का अधिकार हमारा है। बच्चे के जन्म की खबर सुनाने का यही तरीका आपको सिखाया गया है?‘

‘सॉरी सर! हम जब भी किसी को बेटी के जनम होने की खबर देते हैं, उनके चेहरे बुझ जाते हैं। कोई-कोई तो डाँट भी देते हैं कि ऐसे उछलती-कूदती आ रही है, जैसे बेटा हुआ है।‘

चींची की हल्की कुनमुनाहट से शानों फिर से चौंकी। वह रो क्यों रही है? उसे चींची को अहसास कराना है कि उसे कुछ नहीं हुआ है, उसने कुछ नही किया है। यह सब तो महज संयोग है, किसी भी एक्सीडेंट की तरह - हवाई जहाज क्रैश कर जाने की तरह, ट्रेन पट्टी से उतर जाने की तरह, बस के गड्ढे में गिर जाने की तरह।

चींची इतना समझ लेगी? क्यों नहीं? लड़कियाँ वैसे भी ज्यादा समझदार होती हैं। शानो ने खुद के सवाल पर खुद से जवाब दिया। टीवी पर देखती तो सारी घटनाएँ-दुर्घटनाएँ, बिखरे सामान, कराहते लोग, खून के धार, खून के छींटे, खून...।

खून चींची के बिस्तर पर फैल गया है। पैड पर पैड वह लगाती जाती है। खून का बहना कम नहीं होता। शानों को लगता है, दुनिया का सारा खून इसके भीतर जमा हो गया है।

चींची के बिस्तर के सामने खिड़की खुलती है। उस खिड़की के सामने एक बड़ा सा पेड़ है। पता नहीं, अशोक का, गुलमोहर का या किसका। पेड़ की हरियाली शानो को भाती है। उसका मन करता है कि वह पेड़ की सारी नन्हीं कोमल पत्तियाँ तोड़कर उसका हरा रस निकाल ले और उसमें चींची को डुबो दे। जब वह उसमें से निकले, तब वह पेड़ की तरह हरी-भरी दिखे, उस पर बैठनेवाली चिडियों की तरह उड़े, फुदके, चींचीं करे।

चिड़िया जैसी ही तो है। जभी तो उसने उसका नाम रखा चींची। पूरे घर में वह चिड़िया की तरह की फुदकती रहती है। इकहरी देह, लगता, उड़ रही है। शानो को हमेशा डर लगता रहता, इत्ती तेज हवा सी भागती है, कहीं गिर न पड़े, कही हाथ पैड न तोड़ बैठे, कहीं मुंह कान न फोड़ बैठे। एक बार गिर ही गई थी। ललाट पर एक बड़ा सा जख्म हो गया था। चार टाँके लगे थे। चींची ने पहली बार खून देखाक्था। ‘मम्मी...‘ मारे डर के वह चिल्ला पड़ी। भय से उसकी पूरी देह ठंडी हो गई।

उस दिन के इत्ते से खून के मुकाबले आज का खून... शानो की पूरी देह झुरझुरा गई। चींची ने शानो को देखा। कंबल में से उसके काँपते नन्हे हाथ बाहर निकले और निकल कर शानो का हाथ पकड़ लिया। वह कुछ बोलना चाह रही है, मगर बोल नहीं पा रही। शानो समझ गई कि वह क्या कहना चाहती है। उसे खुद पर फिर गुस्सा आया। क्यों अपने आँसुओं पर काबू नहीं पा रही वह? बच्ची को ताकत देने के बजाय उसे कमजोर कर रही है। मामा वाला खेल वह भी रचा रही है - रूलाओ और मजे लो।

‘नहीं।‘ शानो ने बाबा आदम वाला बहाना दुहराया -‘मैं रो नहीं रही बेटे। आँख में कुछ चला गया था न!‘ उसने रूमाल भी नहीं निकाला। बस, चुन्नी के कोर से आँख में पड़े ‘कुछ‘ को निकालने का दिखावा करती रही। फिर बताया -‘वो सामने पेड़ पर चिड़िया बैठी है न! उसे मैं बड़े गौर से एकटक देख रही थी। पता है, एकटक कुछ भी देखने से आँखों में पानी आ जाता है। तू मुझे देख, तेरी भी आँख में पानी आ जाएगा।‘

‘ये क्या बोल गई वह?‘ शानो चौंकी। खुद से खुद को हजारहाँ लानत-मलामत ठोकी। एक तो जीवन भर का न भूलने वाला गम और उसपर से वह उसे आँखों के पानी का अभ्यास करा रही है, बनिस्पत इसके कि वह उसके होठों की कलियों के खिलने के उपाय करे।

शानो ने चींची को सहारा देकर उठाया। उसे गोद में उठाकर बाथरूम ले गई। पूरा बैड भीग गया था। शानो की हिम्मत पैड को देखने की न हुई। उसने उसे कागज में लपेटकर डस्टबिन में डाल दिया। चींची को कमोड पर बिठाया। साफ-सफाई की, नया पैड लगाया, फिर गोद में उठाकर वापस बिस्तर पर ले आई। बिस्तर पर कमर के पास रबरशीट लगी हुई थी। उसपर बिछी चादर खराब हो चुकी थी। शानो ने चादर बदलकर चींची को फिर से बिस्तर पर सुला दिया।

‘भैया मेरे, राखी के बंधन को निभाना।‘ शानो फिर से चौंक उठी। बिन मौसम के यह शहनाई कैसी? आजकल तो रक्षाबंधन पर भी रेडियो, टीवी पर ये सब गाने नहीं बजते। तो फिर? अचानक उसे याद आया, आज रक्षाबंधन है। इसीलिए! पर, इसबार तो उसने राखी भेजी ही नहीं। किसे भेजती! किस भाई के लिए? जिस भाई को वह अपना सबसे बड़ा हितैषी समझती थी, वही उसकी पीठ में छुरा घोंपकर भाग गया। उसके गले में कुछ अटकने लगा। साँसें तेज होने और आँखें धुंधलाने लगीं। चींची उसी की ओर देख रही थी। उसकी नजरों और नजरों में उठते सवालों के बबूल से बचने के लिए वह बाथरूम में घुस गई।

चींची बोल नहीं पा रही है। डॉक्टर ने कहा है -‘नॉर्मल होने में थोड़ा वक्त लगता है। ऐसे मामलों में विक्टिम्स को डबल शौक लगता है, अगर अक्यूज्ड उसका अपना हो।‘

‘कोई दुश्मन घाव लगाए तो मीत जिया बहलाए, मनमीत जो घाव लगाए, उसे कौन बचाए।‘ फिल्मवाले कभी-कभी कितना सटीक लिख जाते हैं। आज ये लाइनें उसके ऊपर चरितार्थ हो रही है।

‘चींची? कुछ खाओगी बेटा?‘ आठ दिन हो गए। चींची ने कुछ भी नहीं खाया है। शुरू के चार दिन तो वह सलाइन पर रही और उसके बाद फ्रूट, जूस, दूध, सूप आदि पर। डॉक्टर ने कह दिया है -‘शी कैन ईट नाऊ, जो भी वह चाहे।‘

‘चींची, पित्ज्जा मँगवाऊँ? खाओगी ना? चिकन या मशरूम टॉपिग? या इडली? कितनी खाओगी? दस से काम चल जाएगा तुम्हरा?‘ शानो बोलती है ताकि चींची हँसे। मगर चींची की आँखों में इन सबको सुनकर कोई चमक नहीं उगती। वह चुपचाप शानो को देखती रहती है।

‘टीवी ऑन कर दूँ? क्या देखोगी? कार्टून? डिस्कवरी? एनीमल प्लैनेट?‘ शानो उसकी पसंद के चैनल्स के नाम दुहराती है। कार्टून और उसमें भी टॉम एंड जेरी पर तो वह दिलोजान से फिदा है। उसकी ऊँची खिलखिलाहट ही बता देती कि वह क्या देख रही है।

‘अच्छा, पता है चींची। रात में मैंने एक सपना देखा। आओ, तुम्हें सुनाऊँ!‘ और चींची की सहमति असहमति जाने बगैर वह बताना शुरू कर देती है, बिना कॉमा, फुलस्टॉप के, जैसे उसे सपना सुनाने की सजा मिली हो। उसने आँखें बंद कर लीं। चींची की हथेली अपनी मुट्ठी में भर ली। उसे लग रहा था कि यदि उसने आँखें खोल दीं तो उसकी आवाज बैठ जाएगी या फिर आँखें खोली तो वह धुंधलाने लगेंगी।

पता नहीं चींची सो गई क्या? सपने के नाम पर क्या वह सुनाती रही, उसे खुद नहीं पता। शानो ने धीरे से आँखें खोली। डरते-डरते चींची की ओर देखा। चींची उसी की तरफ देख रही थी। उसकी इस नजर में उसे चींची नहीं, चींची के पापा नजर आए। घृणा, हिकारत, धिक्कार से भरी सूरत - ‘तुम्हारी। सिर्फ तुम्हारी वजह से यह सबकुछ हुआ है। और बुलाओ मायकेवालों को। रोकने पर तो तुम औरतें टेसुए बहाने लगोगी। इल्जाम लगाने लगोगी कि हम मर्द तुम्हारे घर के लोगों को देखना ही नहीं चाहते।‘

इस हिकारत से शानो घबड़ा गई है। उसे इस समय एक संबल चाहिए, उसके लिए, चींची के लिए। शानो का चेहरा फिर से आँसुओं से भर जाता है। उसके होठ फडफडाते हैं, वह बोलना चाहती है, विरोध जताना चाहती है -‘ऐसा नहीं है, जिसने... लेकिन मायका-मायका कहकर बार-बार ताने क्यों दे रहे हो? तुम्हारे रिश्तेदार भी तो ऐसा कर सकते थे। तब क्या मैं यूँ ताने दे पाती? हमारे लिए तो तुम्हारे-हमारे सभी के रिश्तेदार हमारे रिश्तेदार हो जाते हैं। तब तो हमारे लिए अपने घर-परिवार वाली बात हो जाती है। घर-परिवार, मान-मर्यादा!‘

मर्यादा और प्रतिष्ठा तो अभी भी है। मगर उससे ज्यादा अहम है चींची की जान। शानों ने चींची की ओर देखा। चींची एकटक उसे ही देखे जा रही थी। शानो उसके सिरहाने बैठ गई और उसका सिर अपना गोद में ले लिया। फिर धीरे-धीरे उसके बालों में उंगलियाँ फिराने लगी।

चींची की पुतलियाँ खुले हुए में चारो ओर घूमीं और फिर शानो पर जाकर टँग गई। उसकी पलकें झपक तक नहीं रही थीं। शानो सिर से पैर तक काँप गई। क्या सोच रही होगी वह इस समय? क्या आ-जा रहा होगा इसके मन में? क्या यह अपनी बात, अपने अहसास मुझे बता पाएगी? उसके अनुभवों के दंश को मैं समझ सकूँगी? क्या वह ताउम्र सामान्य हो पाएगी? क्या मैं कभी नार्मल हो पाउँगी? क्या हम दोनों एक-दूसरे के प्रति सहज हो सकेंगे?

बालों में उंगलियाँ और मन में विचार साथ-साथ घूमते रहे। चींची ने धीरे-धीरे आँखें बंद कर लीं। शानो की उंगलियाँ शायद उसे सुकून पहुँचा रही थीं। वह सुकून की सीढी दर सीढी उतरने लगी, उतरती गई, उतरती गई, फ्रिल लगी चेकदार गुलाबी फ्रॉक उसके नीचे उतरने से लहरा रही थी। छोटे-छोटे बालों की दो प्यारी-प्यारी पोनियाँ, उसमें झालरदार रबड बैंड, पैरों में सफेद मोजे और गुलाबी बूटियाँ। किसी गुडिया सी प्यारी चींची गौरैया सी फुदकती सीढियाँ उतर रही थी। सीढियाँ उतरते-उतरते वह बड़े से मैदान में आ गई। मैदान के चारों ओर अलग-अलग फूलों की क्यारियाँ बनी थीं- लाल, पीले गुलाब, गेंदे, बेली और पता नहीं कौन-कौन से फूल । उसे तो इत्ते नाम भी नहीं पता। शानो ने पाँच फूलों के नाम भी सिखा दिए थे । पाँच-पाँच जानवरों, चिडियों, फलों, सब्जियों आदि के नाम के साथ ताकि किसी अच्छे से स्कूल की नर्सरी में उसका नाम लिखा जाए। उसने तो अबतक केवल तीन ही फूल देखे थे। गेंदा, गुलाब और कमल। बाकी अपनी किताब में।

चींची फूलों को सूँघने लगी। उनसे बतियाने लगी। गेंदे के फूल की पंखुडी तोडकर होठों पर लगाया और जोर से फूँक मारी - पीं... पीं... की तेज संगीतमय आवाज निकली। उसे मजा आया। दुबारा फूँक मारी तो और तेज संगीतमय आवाज निकली। उसे मजा आया। फर से फूँक मारी तो फट की आवाज के साथ पंखुडी फट गई। चींची हँस पड़ी। उसने दूसरी पंखुडी ली, फिर तीसरी, फिर चौथी। इस संगीत में कितना आनंद है। वह गुलाब की ओर मुडी। गुलाब की पंखुडी तोडी और मुंह में भर कर चुभलाने लगी। ममा बताती है कि गुलाब की पंखुडी खाई जाती है। इससे मुंह में गुलाब की सुगंध भर जाती है और होंठ और जीभ लाल हो जाते हैं। उसने ढेर सारी पंखुडी खा डाली। अब उसका मन करने लगा कि वह अपने लाल हो गए होठ और जीभ देखे।

‘मैं दिखाता हूं तुम्हें। चलो मेरे साथ। मेरी प्यारी सी चींची रानी।‘ किसी ने उसे गोद में उठा लिया।

चींची ने देखा और मारे खुशी के चिल्ला पड़ी -‘अरे, मामू आप?‘

‘क्या खाएगी मेरी चींची? आईस्क्रीम, कुल्फी, चॉकलेट, पेपी...‘

‘चॉकलेट खाने से मेरे पेट में कीडे हो जाते हैं। खुद ही चॉकलेट में कीडे होते हैं। वही पेट में चले जाते होंगे और आईस्क्रीम से मेरा गला खराब हो जाता है। सर्दी भी हो जाती है। फिर ममा मुझे डॉक्टर अंकल के पास ले जाती है। डॉक्टर अंकल बोलते हैं, मुंह खलो, ऐसे आ.. जबान बताओ। यूँ...ई... फिर दवाइयाँ देते हैं। मुझे एकदम पसंद नहीं दवा खाना।‘

‘ओहो, नानी मेरी। सीधे-सीधे बोल ना कि नहीं खाएगी तू। तो चल, कुछ पीते हैं। क्या पिएगी? पेप्सी, कोला...‘

‘ऊँ हूँ! ममा बता रही थी कि इसमें कीड़े मारनेवाले दवा मिली होती है, जिससे लोग बीमार पड़ जाते हैं। मामा, एक आइडिया! ऐसा करते हैं कि चॉकलेट खाकर कोल्डड्रिक पीने से कीड़े मारने वाली दवा पेट में जाएगी, जो चॉकलेट के कीड़ों को मार डालेगी।‘

चींची चीख उठती है - ‘मामू छोड़ो न, कित्ती जोर से दबा रहे हो।‘

‘तो क्या करूँ! तू कुछ खाती-पीती ही नहीं है।‘

‘खाती हूं न! तभी तो इत्ती मोटी हूँ। मेरे दाँत भी मजबूत हैं, ये देखो... ई...।‘

‘मेरे तुमसे ज्यादा मजबूत हैं। देखोगी?‘ दाँत बढ़ते-बढ़ते धारदार चाकू में तब्दील हो जाते हैं। गेंदे, गुलाब झड़ जाते हैं। पत्ते सूख जाते हैं। रह जाते हैं केवल गुलाब के काँटे - चींची के पूरे बदन बिछे हुए - चींची बेहोश, चींची लहुलुहान!

चींची ने राक्षस वाली कहानी सुनी थी। राक्षस काला होता है, उसके सर पर सींग होते हैं। उसके दाँत बड़े-बड़े और सामने को निकले होते हैं। वह काली गुफा में रहता है और राजकुमारियों को ले जाकर उस गुफा में बंद कर देता है। चींची भी काली गुफा में पहुँची थी। जिन सीढियों से नीचे उतरती वह बगीचे में पहुँची थी, वही सीढियाँ गुफा बन गईं। पत्थर चट्टान, काँटे, चीख।

चींची फिर से चीख उठी। शानो भी। उसने चींची को गोद में समेंट लिया -‘ना मेरी सोना, ना! मैं हूँ ना! मेरी चुनमुन बेटा, मेरी झुनमुन बेटा।‘

शानो एकदम से चिड़िया की तरह ममा की गोद में समा गई-‘ममा, तुम उस समय क्यों नहीं थी?‘

दोनों जैसे एकमेक होने लगी। वह पूरी तरह से ममा की गिरफ्त में थी, उसके मुंह, नाक ममा के पेट में छुप गए थे। साँस नहीं ले पा रही थी, फिर भी उसे बड़ा अच्छा और सुरक्षित लग रहा था। उसदिन भी उसकी साँसें बंद हो रही थी। मामू की गिरफ्त से छूटने की कोशिश में।

काँटे, पत्थर, चट्टान की चोट के आगे सुन्न पड़ी चींची को शानों का यह स्पर्श, बाँहों का घेरा, घेरे का दवाब समझ में नहीं आया, समझ में आने से पहले उसने शानो के पेट में जोर से अपने दाँत गड़ा दिए। तिलमिलाकर शानो न उसे छोड दिया। इस झटके में सलाइन हाथ से निकल गया और खून की घार फूट पड़ी। चींची का बदन बुरी तरह से हिल रहा था। शानो बाहर भागी - नर्स, सिस्टर प्लीज! चींची का काटना वह भूल गई।

नर्स ने फिर से सलाइन लगा दिया। सलाइन में ही नींद का इंजेक्शन भी दे दिया। नींद में डूबते-डूबते, चींची ने देखा कि उसने इससे भी ज्यादा जोर से दाँत काटा था, इत्ता कि मामू के हाथ से खून निकल आया था। दर्द से तडफडाकर मामू ने झटके से हाथ छुडाया और हथेली चींची के मुंह पर रख दी। फिर उसके गुलाब की पंखुडी खाए होठों को ऊंगलियों से कसकर मसल दिया। मामू की आँखें लाल हो गई थी और चेहरा डरावना। चींची को कहानी वाला राक्षस याद आ गया। मामू ने उसे बिस्तर पर पटक दिया। चींची समझ नहीं पाई कि गुफा में उसका अपना बिस्तर कहाँ से आ गया - टॉम एंड जेरी प्रिटवाली चादर, बेडरूम सेट व्राली बार्बी डॉल। किचन सेट और हैरी पॉटर। अरे, यह तो उसका अपना कमरा है। मामा भी तो उसके अपने ही हैं। कित्ता प्यार करते हैं उसे। जब भी आते, ढेर सारे खिलौने, कपड़े लाते। जूते भी, मोजे भी। मामा के आने पर वह सीधा उनकी गर्दन पर झूल जाती। मगर आज मामा को हुआ क्या है? क्यों उसे यूँ दबा रहे हैं... क्यों दाँत काट रहे हैं? क्यों... आगे वह सोच ही नहीं पाई। डर और दर्द ने उसे बेहोशी की गहरी खाई में फेंक दिया।

डॉक्टर चींची की बेहोशी तोडने की कोशिश में हैं। वे शानो को हिदायतें दे रहे हैं - ‘बीहेव योरसेल्फ मैम! उसे आफ प्यार, आफ सपोर्ट की बहुत जरूरत है। चार साल की है तो क्या हुआ? चार महीने के बच्चे भी स्पर्श, आवाज और मूड समझते हैं। उसे लगना नहीं चाहिए कि आप उसपर कोई दया कर रही हैं। आपका इमोशनल टच ही उसे नॉर्मल कर पाएगा। शी हैज गॉट एन अनरिपेयरेबल डैमेज। आप उसे यूँ ही नहीं छोड़ सकती। उसे सहारा दीजिए। कॉल हर फादर ऑल्सो।‘

कहाँ से और किधर से बुलाए उसके पापा को? खुद से ही खुद के सवाल पर वह लरजने लगी। आठ दिन हो गए चींची को अस्पताल में आए हुए। न तो शानो की तरफ देखते हैं, न चींची की ओर। कमरे में घुसते हैं और चींची की ओर पीठ करके खडे हो जाते हैं। उनकी हिलती पीठ, तनी मुट्ठियाँ, भिचे होठ उनकी वेदना, क्रोध और बेबसी बताते हैं । चींची के हालात का जायजा नर्स, डॉक्टर से लेते हैं। दवाइयाँ व अन्य जरूरी चीजें उपलब्ध करा देते हैं और चले जाते हैं।

शानो बोलना चाहती है, बात करना चाहती है। मगर हिम्मत ही नहीं पड़ती। वह भी तो अपने दुख उनसे बाँटना चाहती है। उनके कंधे पर सर रखकर फूट-फूटकर रोना चाहती है। चाहती है कि वह रोती रहे और उनके हाथ उसकी पीठ को सहलाकर उसे अपने साथ होने का भरोसा दिलाते रहें। वह फोन करती हैं, हैलो बोलती है, जो बातें जरूरी होती हैं, अटकती-अटकती कहती है, उधर से हाँ, ना कोई भी जवाब नहीं आता। एकालाप जैसा लगता है उसका अपना ही फोन । चींची कुछ बोल भी तो नहीं रही है। वरना उसी को फोन थमा देती -‘तू ही बुला बेटे अपने पापा को।‘

शानो को पूरा यकीन है कि चींची की आवाज सुनकर आकाश अपनी ऊँचाई पर खडा नहीं रह पाएगा। लपककर अपनी चींची को चूमने धरती पर उतर आएगा। लेकिन पहले चींची बोले तब तो। डॉक्टर कहते हैं -‘शॉक बहुत गहरा है। काफी डर बैठ गया है इसके भीतर। उसकी बोलने की ताकत खो गई है। बट डोंट वरी, थोडा नार्मल होते ही बोलने लग जाएगी। तबतक बिहेव पेशेंसली।‘

शानो मानती हैं कि वह दिन जल्द से जल्द आए। तब वह फोन चींची को ही थमा देगी। उसे पूरा यकीन है कि चींची की आवाज सुनकर उसके पापा बर्फ की सिल नहीं बने रहेंगे। दूध की मलाई हो जाएंगे। काश वह दिन अभी आ जाए। जब वे तीनों अपने घरौदे में रहें, खेलें, कूदें, नाचें, गाएं, खुशियाँ बनाएँ।

फिलहाल तो यहाँ एक त्रिकोण है, जिसके एक कोने पर वह खुद है, दूसरे पर चींची और तीसरे पर उसके पापा। अपने-अपने कोण को छोड़कर उसके बीच में जाने की जद्दोजहद ही तो बची हुई है। कब मिटेगी यह जद्दोजहद। कब दूर होगा चींची की आँखों का खौफ! कब सूखेगा उसकी आँखों का पानी! कब इन कोणों की रेखाएं गायब होंगी और वे खुले में रहेंगे - स्वतंत्र, निडर, आश्वस्त!

‘नहीं!‘ शानो ने जोर से सर को झटका। हर्गिज, हर्गिज नहीं। भाई बहन का रखवाला होता है। बचपन से उसे राखी बांधती, तिलक लगाती, बजरी खिलाती, दामन भरती आई है कि बज्र बनकर भाई सारी मुसीबतों से उसकी रक्षा करेगा और अपने भरे दामन की खुशहाली उसे भी बाँटेगा। उसी से इत्ता बड़ा धोखा! अमानत में खयानत। उसकी अपनी बेटी भी तो चींची जित्ती ही बड़ी है। क्या उसके साथ भी...।

‘ऊपर वाला कभी न करे ऐसा!‘ वह झुरझुरा गई। अपने शाप उसे कैसे दे! बच्ची तो बच्ची है! ऐसे कैसे कह दे कि जैसा चींची के साथ हुआ, उसकी अपनी बेटी के साथ भी हो तब पता चलेगा इसका दर्द! उसे अहसास दिलाने के लिए बच्ची की कुर्बानी क्यों? कित्ते मासूम और नाजुक होते हैं बच्चे - रूई के फाहे जैसे नरम, सुकुमार! उस फाहे को कोई कीचड में लथेड दे? कोई उस पर पचास किलो का बाट गिरा दे!

शानो हिम्मत जुटाती है। वह अड गई है - ना, भाई को तो वह हर्गिज-हर्गिज नहीं बुलाएगी। ब्याह-शादी में केवल दूल्हा-दुल्हन जरूरी होते हैं। बाकी और किसी के बिना भी शादी हो सकती है। शादी के समय भाई द्वारा की जानेवाली रस्में न करेगी, न करवाएगी। इत्ते आँसू बहे हैं, थोडे और बहा लेगी। आखिर को औरत ही तो है वह!

शानो और भी हिम्मत जुटाती है- लंबी, छरहरी, सुंदर, जहीन बड़ी ऑफिसर चींची। रोज-रोज उसे बढ़ता देख शानो खुश होती रही है। अब तो उसकी खुशी का कोई पारावार ही नहीं है। उसकी चींची दुल्हन बनेगी। अपने सपनों की नगरिया में जाएगी, जहाँ पर उसका अपना राजकुमार है, अपनी पसंद का। जुगल जोडी देखकर शानो रोक नहीं सकी। उसे पकडकर फफक पड़ी।

‘आंटी, सम्हालिए खुद को प्लीज! चींची आपकी बेटी है, रहेगी। उसपर आपका पूरा-पूरा अधिकार रहेगा; पहले की तरह ही।‘

‘बेटे, क्या तुम्हें... चींची ने कुछ बताया है?‘

‘क्या आंटी?‘

‘अपने बारे में! बचपन से लेकर अबतक की अपनी जिंदगी।‘

‘नहीं तो?‘

‘नहीं? तुम दोनों कई सालों से एक-दूसरे को जानते हो। फिर भी उसने तुम्हें कछ भी...‘

शानो का मन उसे डरा गया है - ‘पगली! क्या कर रही है तू? खुद ही बेटी की दुश्मन बन रही है! अरे, जब चींची ने नहीं बताया तो कुछ सोचकर ही नहीं बताया होगा। तू भी भली मान, चुप कर बैठ जा!‘

‘नहीं!‘ शानो चीख पड़ती है -‘नहीं, मैं चींची की दुश्मन नहीं। जिदगी भर मेरी बच्ची मुस्काई नहीं है। बचपन से लेकर अब तक ऐसे ही बीत गया समय - पतझड़ के मौसम सा। और जब उसके जीवन में बहार आनेवाली है, नई कोंपलें फूटनेवाली है, नए-नए पत्ते निकलनेवाले हैं, कलियाँ चिटककर फूल बननेवाली हैं, ऐसे में मैं चींची की दुश्मन! ना, ना, ना।‘

शानो रोती जा रही है, रोती जा रही है। डर से उसका बदन काँप रहा है। जो शादी के बाद इसे पता चला तो? जो इसने उसे छोड दिया तो? तो मेरी चींची तो जिन्दा ही मर जाएगी। इत्ती मुश्किल से मुस्काने के दिन आए हैं। एक झटके को तो झेल गई, दुबारे नहीं झेल पाएगी। मर जाएगी मेरी बच्ची। मैं उसे मरते नहीं देख सकती।‘

‘आँटी, आँटी प्लीज बताइए। बात क्या है? क्या हो गया चींची को। अच्छी भली तो है।‘

बिलख-बिलखकर पूछा शानो ने -मेरी गलती? मेरा कुसूर? आकाश की एक ही बात -‘तुम्हें छूता हूँ तो तेरा भाई सामने आ जाता है। मुझे उबकाई आने लगती है। मालूम है मुझे कि इसमें तेरी कोई खता नहीं है। मगर मैं क्या करूँ! बख्श दे मुझे शानो। सोच ले, हमारा-तुम्हारा साथ इत्ते ही दिनों का ही था... ना, ना, ना, ये मत सोचो कि मैं तुम्हें या चींची को छोड़ रहा हूँ। तुम दोनों तो मेरे जान-प्राण हो। जी नहीं सकता तुम दोनों के बगैर! पर तेरे साथ रह भी नहीं सकता। मेरा साथ दोगी तो मुझे अच्छा लगेगा। अकेला नहीं समझूंगा खुद को।‘

फफक-फफक पड़े आकाश। एक नहीं, कई-कई बार। जब-जब शानो बेचैन हुई, तब-तब! जब-जब चींची के चेहरे पर गहरी घनी घटा देखी, तब-तब। आजतक उन्होंने चींची को भर नजर नहीं देखा। बातें खूब-खूब, घंटों बाजार, घर, स्कूल, सिनेमा, रिजल्ट जन्मदिन - सब में चींची के साथ-साथ।

घर में जितनी देर है, उतन देर चींची-चींची की रट। सही म लगने लगता कि घर में चिड़िया की चींची भर गई है। लेकिन सीधी नजरों से चींची को न देखनेवाले को शानो ने देखा है - छुप-छुपकर चींची को देखते हुए, देखकर गहरी गहरी साँसें लेते हुए, फिर फूट-फूटकर रोते हुए।

जो घाव इन तीनों के मन में लगा हुआ है, शानो उसके दाग इस लड़के को कैसे न दिखाए! और जो बाद में उसने देखा और घाव की सूख जाती पपड़ी को नोंच दिया, घाव फिर से हरा हो गया; खून की धार फूट-फूट पड़ी, तब? अबतक जितनी मुश्किल से संभालकर उसे रखा था; वह सारा सरंजाम पल भर में ही बिखर कर चूर-चूर हो जाएगा।

शानो फैसला करती है - अभी, इसी वक्त! बात आर या पार। जीवन या मरण। शादी के पहले के दर्द बाद के दर्द से हर हालत में हल्के ही होंगे, कम ही होंगे।

‘बेटे, जब चींची बहुत छोटी थी, तीनेक साल की... तब... तब उसके साथ... एक हादसा हुआ था... बहुत बड़ा हादसा... आज तक हम तीनों उससे उबर नहीं पाए हैं। .... चींची के पापा तो आज भी रोते हैं। मैं तो, जीवित मुर्दा हूं। मैं नहीं चाहती कि तुम्हें बाद में पता चले और पहले से टूटी, बिखरी चींची और जर्रा-जर्रा बिखर जाए।‘

‘ओह नो आँटी, ऐसा कुछ भी नहीं है। चींची ने ही सबसे पहले मुझे बताया। फिर अंकल ने भी... कम ऑन आंटी! इसमें उसकी क्या गलती! खेलते-खेलते वह गिर जाए और उसका सर फट जाए तो इसके लिए वह कैसे जिम्मेदार हो सकती है। और कल किसी एक्सीडेंट में मेरी टाँग कट जाए या आँख फूट जाए तो इसका जिम्मा मेरा होगा क्या? मैं उस कट गई टाँग या फूट गई आँख के लिए रोता रहूंगा या मेरे पास जो बच गया है, उसे सहेजने में लग जाऊँगा? चींची तो बेहद अच्छी लड़की है, सुलझी, समझदार, जहीन! वह मेरा जीवन है आंटी।‘

शानो उसके पैरों पर गिर जाती है... सच कही ऊपरवाले तूने -‘स्वर्ग और नर्क, राक्षस और देव सब इसी धरती पर हैं।‘ उसकी आँखें धार-धार बही जा रही है। लड़के ने कसकर उसे पकड लिया -‘आंटी नहीं, प्लीज! ऐसा मत कीजिए!‘

कितनी तेज और सख्त पकड है - शानो चौंकती है - चींची की पकड़ इतनी मजबूत! आज पहली बार चींची ने अपना हाथ खुद से उठाया है। शानो की आंखों का पानी चींची के बदन पर गिर रहा है। तो क्या चींची भी उसकी पीर को समझ रही है? अपनी तकलीफ के बावजूद उसे दिलासा दे रही है? सचमुच, बच्चे बड़े मजबूत होते हैं।

अस्पताल के सामनेवाला पेड़ स्थिर खड़ा है, मगर उसकी डालियाँ और पत्ते रह-रह कर हिल रहे हैं। डालियों पर बैठी गौरैया चींची-चींची कर रही है। चींची ने अपनी नन्हीं तर्जनी उस ओर बढा दी। उसके होठों के कोनों पर नन्हीं सी मुस्कान की बिजली चमकी। शानो के पूरे बदन में वह तरंग बनकर घुसी। शानो ने लपककर चींची को बाँहों में भर लिया और उसे बेहिसाब चूमने लगी। आँखें बरसती हैं तो बरसें, होठो की बिजली चमकती रहे, बस!

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विभा रानी

३०२/ ए, धीरज रेसिडेंसी

ओशिवरा बस डिपो के सामने

गोरेगांव (पश्चिम), मुंबई-४००१०४

फोन- ०२२-४००३०५४५

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रचनाकार: विभा रानी की कहानी : होठों की बिजली
विभा रानी की कहानी : होठों की बिजली
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