ओमप्रकाश कश्यप का बाल-उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (6)

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‘सच कहूं तो अपने जीते जी किसी को ईश्वर नहीं माना. न स्‍वर्ग-नर्क, पाप-पुण्‍य, आत्‍मा-परमात्‍मा जैसी बातों पर ही कभी भरोसा किया. हमेशा वही...

‘सच कहूं तो अपने जीते जी किसी को ईश्वर नहीं माना. न स्‍वर्ग-नर्क, पाप-पुण्‍य, आत्‍मा-परमात्‍मा जैसी बातों पर ही कभी भरोसा किया. हमेशा वही किया जो मन को भाया, जैसा इस दिल को रुचा. इसके लिए न कभी माता-पिता की परवाह की, जो मेरे जन्‍मदाता थे. न भाई को भाई माना, जो मेरी हर अच्‍छी-बुरी जिद को पानी देता था और उसके लिए हर पल अपनी जान की बाजी लगाने को तत्‍पर रहता था. न उस पत्‍नी की ही बात मानी, जिसके साथ अग्‍नि को साक्षी मानकर सप्‍तपदियां ली थीं; और सुख-दुःख में साथ निभाने का वचन दिया था. न कभी बच्‍चों की ही सुनी, जिनके लालन-पालन की जिम्‍मेदारी मेरे ऊपर थी.’ – इसी उपन्यास से.

मिश्री का पहाड़

(बालउपन्‍यास)

ओमप्रकाश कश्‍यप

BPSN PUBLICATION

G-571, ABHIDHA, GOVINDPURAM

GHAZIABAD, UP-201013

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सर्वाधिकार : लेखक

मूल्‍य : 175 रुपये

प्रथम संस्‍करण : 2009

प्रकाशक : बीपीएसएन पब्लिकेशन

जी-571, गोविंदपुरम्‌,

गाजियाबाद-201013

आवरण संयोजन : लेखक

कंप्‍यूटरीकृत : लेखक

Mishri Ka Pahad (Novel) : by Omprakash Kashyap

Price : Rs. - 175.00

इस बाल उपन्यास का मुफ़्त पीडीएफ़ ई-बुक यहाँ से डाउनलोड कर पढ़ें

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पिछले अंक से जारी…

अभी तक वे प्रायः उपेक्षित ही होते आए थे. उन्‍हें लगता था कि वे सिर्फ सुनने-सहने के लिए बने हैं. घर के बाहर उनकी राय किसी काम की नहीं है. इसलिए प्रारंभ में जब

बद्री काका ने चंदे का हिसाब-किताब बताना शुरू किया तब उन्‍हें बहुत विचित्र लगा था-

‘हिसाब-किताब के बारे में हम जानकर क्‍या करेंगे?' एक दिन बद्री काका चंदे का हिसाब सामने रख रहे थे, तब एक मजदूर ने सकुचाते कहा.

‘आपका पैसा है, उसका हिसाब भी आप ही को रखना चाहिए.'

‘हम पढ़े-लिखें हों तब ना हिसाब रखें.'

‘इसीलिए तो मैं यहां आया हूंं कि आप पढ़-लिखें. ताकि जितना जरूरी है, उतना हिसाब तो रख लें.' इन बातों का बड़ों पर भले ही कोई प्रभाव न पड़े. पर बच्‍चे उनसे खूब प्रेरणा लेते थे.

दूसरों को प्रेरित करना भी एक कला है. जिसके लिए विचार एवं कर्म दोनों ही स्‍तर पर श्रेष्‍ठ बनना पड़ता है. प्रायः महान व्‍यक्‍तित्‍व ही यह कर पाते हैं. लेकिन प्रेरणा लेना भी सबके लिए संभव नहीं. न यह छोटी बात है, न ओछी. क्‍योंकि इसी से विचार और कर्म की परंपरा को विस्‍तार मिलता है.

कभी-कभी अतिसाधारण कहे जाने वाले लोग भी असाधारण रूप से प्रेरित कर जाते हैं.

वह दिन बद्री काका जीवन में अविस्‍मरणीय बन गया. पाठशाला की छुट्‌टी के बाद वे विश्राम कर रहे थे. तभी सामने से आती एक औरत पर उनकी निगाह पड़ी. तेज कदमों से से वह उन्‍हीं की ओर बढ़ी आ रही थी. वे खड़े हो गए. करीब आने पर वह औरत ठिठकी और बद्री काका के सामने घूंघट निकालकर खड़ी हो गई. बद्री काका उसको पहचानने का प्रयास करने लगे-

‘कुक्‍की आपकी पाठशाला में पढ़ने आती है, मैं उसी की मां हूं.'

‘हां..हां, बहुत समझदार है तुम्‍हारी बेटी...!'

‘सब आप ही का प्रताप है. कुक्‍की के पिता तो रहे नहीं. मैं ठहरी नासमझ जो उसके ब्‍याह की जल्‍दी कर रही थी. वह तो भला हो आपका और टोपीलाल का, जो मेरी आंखें खोल दीं. नहीं तो अब तक कुक्‍की ससुराल में अपनी किस्‍मत को रो रही होती. भगवान आप दोनों को लंबी उम्र दे,'

‘नहीं-नहीं, उस मासूम को इतनी जल्‍दी ब्‍याह में लपेट देना उचित न होगा. पढ़ने में बहुत ही होशियार है, तुम्‍हारी बेटी . मौका मिला तो बहुत दूर तक जाएगी.' बद्री काका बीच ही में बोल पड़े, ‘मैं अपनी पाठशाला के कुछ बच्‍चों का दाखिला बड़ी पाठशाला में कराने की सोच रहा हूं. कुक्‍की भी उनमें से एक है. मेरी कोशिश होगी कि इस टोले के बच्‍चों की पढ़ाई का सारा खर्च वहां भी सरकार ही उठाए.'

‘कुक्‍की के बापू ने बड़े प्‍यार से उसका नाम कुमुदिनी रखा था. बहुत भला आदमी था वह. अपनी बेटी को लेकर उसके ढेर सारे अरमान थे. मेहनती तो इतना था कि

चौदह-पंद्रह घंटे लगातार काम पर डटा रहता. अकेला दो आदमियों की बराबरी कर लेता था. कभी किसी से ऊंचा बोल नहीं बोला, पर न जाने कैसे वह बुरे आदमियों की सोहबत में पड़ गया. जुआ और शराब उसकी आदत में शुमार हो गए. उसी ने हमें तबाह किया. उसी शौक के कारण एक दिन उसको जान से हाथ धोना पड़ा.'

कहते-कहते वह हुलकने लगी. मानों वर्षों पुराने दर्द को पूरी तरह खोल देना चाहती हो. बद्री काका असमंजस थे. समझ ही नहीं पा रहे थे कि उसे किस तरह तसल्‍ली दें. कैसे समझाएं. उनके लिए तो उसके आने का कारण भी पहेली बना हुआ था. मगर कुक्‍की की अम्‍मा को होश कहां. वह तो भावावेश में बस बोले ही जा रही थी. अपने घर, अपने जीवन-संघर्ष से जुड़ी बातें-

‘पिछले महीने मुझे कर्ज उठाकर भात भरना पड़ा. इसीलिए पाठशाला को कुछ दे नहीं पाई. इस महीने की कमाई उस कर्ज को चुकाने में उठ गई. आप मेरे पिता समान हैं. कुक्‍की को अपनी बच्‍ची की तरह पढ़ा रहे हैं. आपका एहसान मैं न भी मानूं तो भी पाठशाला का खर्च तो खर्च की ही तरह चलेगा. सिर्फ दुआ मांगने से तो घर-भंडार भरते नहीं...भात देकर लौट रही थी तो मेरी ननद ने थोड़े-से तिल बांध दिए थे. उन्‍हीं के लड्‌डू बनाकर लाई हूं. आप इन्‍हें मेरी ओर से नाश्‍ते के समय बच्‍चों में बांट देना. बहुत एहसान होगा आपका.'

उसका मंतव्‍य समझते ही बद्री काका की आंखें भर आईं. पहली बार उन्‍हें अपने प्रयास की सार्थकता पर, अपने कार्य ऊंचाई पर गर्व हुआ. पहली बार ही जाना कि गरीबी भले ही मेहनतकश को तोड़कर रख दे, वह एहसान से कभी नहीं मरता.

‘पाठशाला का नियम है कि बच्‍चों से मिलने वाली हर वस्‍तु का रिकार्ड रखा जाता है. रिकार्ड रखने का काम टोपीलाल का है. इस समय वह तो यहां है नहीं. इसलिए नियमानुसार तुम्‍हारी भेंट कल ही स्‍वीकार की जानी चाहिए. लेकिन इस समय मैं तुम्‍हें लौटाकर तुम्‍हारी भावनाओं की अवमानना नहीं कर सकता. तुम लड्‌डू गिनकर रख जाओ. कल सुबह मैं उन्‍हें रिकार्ड में चढ़वा लूंगा.'

कुक्‍की की अम्‍मा ने लड्‌डू गिन दिए. वह जाने लगी तो बद्री काका बोले-‘सार्वजनिक जीवन जीते हुए मुझे पचास से अधिक वर्ष बीत चुके हैं. इस अवधि में बापू और विनोबा की स्‍मृति के अलावा जीवन में जो कुछ अमूल्‍य और स्‍मरणीय है, उसमें तुम्‍हारा यह उपहार भी सम्‍मिलित है. यह घटना मैं कभी भुला नहीं पाऊंगा.' कुक्‍की की अम्‍मा बिना कुछ कहे आगे बढ़ गई. बद्री काका धुंधली आंखों से उसको जाते हुए देखते रहे. उसके ओझल होते ही उनकी निगाह सामने पड़े लड्‌डुओं पर टिक गई.

निश्‍छल मन से दी गई भेंट अमूल्‍य होती है.

ऐसी भेंट जिसे मिले वह सचमुच बहुत भाग्‍यशाली होता है.

उस दिन कुक्‍की की अम्‍मा को जाते देख बद्री काका यही सोच रहे थे. कुक्‍की के पिता की मौत नशे की लत के कारण हुई थी. बस्‍ती के कई घर नशे के कारण बरबाद हो चुके हैं. हर साल लाखों जिंदगानियां नशे के कारण उजड़ जाती हैं. नशा मनुष्‍य के शरीर को खोखला करता है, दिमाग को दिवालिया बनाता है. परिवारों को तोड़कर रख देता है. महात्‍मा गांधी नशे के विरुद्ध थे. जब भी अवसर मिला उन्‍होंने नशे के विरुद्ध लोगों को चेताया. उन्‍हें उससे दूर रहने की सलाह दी.

बापू के विचारों की प्रासंगिकता तो आज भी है. हर युग में जब तक असंतोष है, अन्‍याय है-तब तक तो वह रहेगी ही. बद्री काका सोचते जा रहे थे. वे इस दिशा में कुछ करना चाहते थे. कुछ ऐसा जो सार्थक हो. जिसको पूरा करने से मन को तसल्‍ली मिले. बालसभा की कविता प्रतियोगिता को नशे पर केंद्रित करने के पीछे भी उनका यही उद्‌देश्‍य था.

कविता का विषय जानबूझकर नशे को चुना था. उन्‍हें इस बात की प्रतीक्षा थी कि बालसभा में बच्‍चे नशे के विरुद्ध खुद को कैसे अभिव्‍यक्‍त करते हैं. उनकी अभिव्‍यक्‍ति उनकी बस्‍ती और उनके अपनों पर कितनी असरदार सिद्ध होती है! कैसे वे उसको उसको और असरदार बना सकते हैं! वे सोच रहे थे कि बच्‍चों को अपने अभियान से कैसे जोड़ा जाए, ताकि उन्‍हें यह अभियान अपना-सा, अपने ही अस्‍तित्‍व की लड़ाई जान पड़े. मगर उनकी पढ़ाई का जरा-भी हर्जा न हो.

सप्‍ताहांत में बालसभा का दिन भी आ गया. कुक्‍की की मां द्वारा भेंट किए गए लड्‌डू उन्‍होंने इस अवसर के लिए संभाल रखे थे. उस दिन सवेरे ही बच्‍चों का पहुंचना आरंभ हो गया. बद्री काका ने उस दिन बस्‍ता लाने की छूट दी थी. सो अधिकांश बच्‍चे खाली हाथ थे. कागज-कलम-बस्‍ता जैसे पाठशाला के तय उपकरणों से मुक्‍ति का स्‍वाभाविक एहसास उन सभी के उल्‍लास का कारण बना हुआ था.

‘मुझे उम्‍मीद है कि पिछली बालसभा में दिया गया काम आप सभी ने पूरा कर लिया होगा?' बद्री काका ने शुरुआत करते हुए कहा. इसपर कई बच्‍चों के चेहरे चमक उठे. कुछ तनाव से ललियाने लगे.

‘जो पिछली बालसभा में दिया गया काम किसी कारणवश नहीं कर पाए हों, वे परेशान न हों, आज उन्‍हें भी अवसर मिलेगा कि वे आगे की प्रतियोगिता में खुद को साबित कर सकें. टोपीलाल, तुम हमें बताओ कि आज की बालसभा का विषय क्‍या है?'

‘समस्‍या-पूर्ति, आपने हमें एक पंक्‍ति दी थी, जिसपर पूरी कविता लिखकर लानी थी...'

‘तुमने कविता लिखी?'

‘जी हां!' टोपीलाल ने गर्व सहित बताया.

‘ठीक है, हम सब तुम्‍हारी कविता सुनेंगे. लेकिन उससे पहले निराली हमें उस कविता-पंक्‍ति के बारे में याद दिलाएगी, क्‍यों निराली?'

‘जी गुरुजी...पंक्‍ति है-नशा करे दुर्दशा घरों की.' निराली ने पिछली सभा की कार्रवाही अपनी कॉपी में लिख ली थी.

‘नशा करे दुर्दशा घरों की...इस पंक्‍ति पर जो बच्‍चे कविता लिखकर लाए हैं, वे अपने हाथ ऊपर कर लें.' केवल दो-तीन हाथ ही ऊपर उठे. इस बीच एक बच्‍चा सिसकने लगा. बद्री काका चौंक गए-

‘क्‍या हुआ, कौन है?'

‘सदानंद है गुरुजी.' सदानंद के बराबर में बैठी कुक्‍की ने कहा.

‘रो क्‍यों रहा है?'

‘पिछले सप्‍ताह जबसे आपने कविता की पंक्‍ति दी थी, तभी से इसका जी बहुत उदास है. कहता है कि जैसे कविता की पंक्‍ति की ओर ध्‍यान जाता है, उसको अपने घर की दुर्दशा याद आ जाती है.'

सभी को मालूम था कि सदानंद के पिता को शराब की बुरी लत है. इस कारण उसके घर में अक्‍सर झगड़ा रहता है. यह याद आते ही बच्‍चों के उल्‍लास को घनी उदासी ने ढक लिया. कुछ देर के लिए तो बद्री काका भी निरुत्तर हो गए. लेकिन उन्‍होंने जल्‍दी ही खुद को संभाल लिया-

‘सदानंद तो कविता पूरी कर चुका है, उसने हाथ उठाया था.' बद्री काका के स्‍वर में आश्‍चर्य था. फिर पल-भर शांत रहने के बाद बोले-‘धीरज रखो बेटे, यह समस्‍या सिर्फ तुम अकेले की नहीं है. कई बच्‍चों की, बल्‍कि पूरे समाज की और इस तरह हम सब की है. हम इसपर खुले मन से विचार करेंगे. संभव हुआ तो उसके निदान के लिए किसी नतीजे पर पहुंचेंगे भी. फिलहाल जो बच्‍चे कविता लिखकर लाए हैं, वे तैयार हो जाएं. क्‍यों टोपीलाल, क्‍यों न आज तुम्‍हीं से शुरुआत कर ली जाए?'

‘जी!' टोपीलाल खड़ा हो गया और जेब से कागज निकालकर सुनाने लगा-

छोटे मुंह से बात बड़ों की

नशा करे दुर्दशा घरों की.'

‘शाबाश!' कविता की प्रथम पंक्‍ति सुनते हुए बद्री काका ने मुंह से बरबस निकल पड़ा. टोपीलाल कविता पढ़ता गया-

छोटे मुंह से बात बड़ों की

नशा करे दुर्दशा घरों की

पान, सुपारी, गुटका, बीड़ी,

सुरा बिगाड़ें दशा घरों की

चरस, अफीम और गांजे से

हालत खस्‍ता हुई घरों की

बरतन-भांडे सब बिक जाते

इज्‍जत बंटाधार घरों की

कविता समाप्‍त हुई तो बच्‍चों ने तालियां बजाईं. बद्री काका भी पीछे नहीं रहे. बल्‍कि वे देर तक, उत्‍साह के साथ तालियां बजाते रहे. उसके बाद उन्‍होंने दूसरे बच्‍चे से कविता सुनाने को कहा. उसकी कविता भी पसंद की गई. उसके बाद जो बच्‍चे कविता लिखकर लाए थे, सभी की कविताओं को बारी-बारी से सुना गया. अंत में बद्री काका ने सदानंद से अपनी कविता सुनाने को कहा.

सदानंद के खड़े होते ही बच्‍चे अपने आप तालियां बजाने लगे. इस बार तालियों में पहले से कहीं ज्‍यादा जोश था. बाद में गुरुजी से आज्ञा लेकर सदानंद ने अपनी कविता शुरू की-

न छोटे, न शर्म बड़ों की

नशा करे दुर्दशा घरों की

सदानंद के इतना कहते ही पूरी कक्षा तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठी.

‘वाह-वाह!' बद्री काका के मुंह से निकला, ‘बहुत अच्‍छे! आगे पढ़ो बेटा. पढ़ते जाओ...शाबाश!'

सदानंद आगे सुनाने लगा-

न छोटे, न शर्म बड़ों की

नशा करे दुर्दशा घरों की

कंगाली आ पसरे घर में

नीयत बिगड़े बड़े-बड़ों की

घर बीमारी से भर जाए

खुशहाली मिट जाए घरों की

रिश्‍तों में आ जाएं दरारें

इज्‍जत होवे खाक बड़ों की

बच्‍चे रोते फिरें गली में

औरत भूखी मरें घरों की

कविता पूरी होते ही बच्‍चों ने दुगुने जोश के साथ तालियां बजाना शुरू किया. उसके बाद तो देर तक तालियां बजती रहीं. खुद बद्री काका भी तालियों की गड़गड़ाहट के बीच. आंखों में नमी छिपाए. कहीं खो-से गए. सुध लौटी तो सीधे सदानंद के पास पहुंचकर उसकी पीठ थपथपाने लगे-

‘वाह...वाह! तुमने तो कमाल कर दिया. जब मैंने इस कार्यक्रम की योजना बनाई थी, तो मुझे इसकी कामयाबी पर इतना भरोसा नहीं था. तुम सबने मेरी उम्‍मीद से कहीं बढ़कर कर दिखाया है. अब मुझे विश्‍वास है कि मैं अपने लक्ष्‍य की ओर आसानी से बढ़ सकता हूं...शाबाश, बच्‍चो शाबाश!'

बद्री काका भाव-विह्‌वल थे. इतने कि अपनी भावनाओं को व्‍यक्‍त करने के लिए उनके पास शब्‍द भी नहीं थे. कुछ देर तक कक्षा में ऐसा ही माहौल बना रहा. अंत में बद्री काका ने बच्‍चों को संबोधित किया-

‘पिछले सप्‍ताह मैंने कहा था कि अच्‍छी कविता को पुरस्‍कृत किया जाएगा. अच्‍छी कविता का फैसला आप सब की राय से होगा. जरा बताओ तो, यहां पर सुनाई गई कविताओं में सबसे अच्‍छी रचना आपको किसकी लगी?'

‘सदानंद की...!' कक्षा में गूंजा. उनमें सबसे ऊंची आवाज टोपीलाल की थी.

‘कविता तो टोपीलाल की भी बुरी न थी.' बद्री काका ने मुस्‍कराते हुए कहा और अपनी निगाह टोपीलाल पर जमा दी.

‘पर सबसे अच्‍छी कविता का पुरस्‍कार तो सदानंद को ही मिलना चाहिए.' टोपीलाल ने ऊंचे स्‍वर में कहा. बाकी बच्‍चों ने भी उसका साथ दिया.

‘क्‍यों?'

‘सदानंद की कविता ही सर्वश्रेष्‍ठ है.'

‘कैसे?' इस सवाल पर सभी विद्यार्थी एक-दूसरे का मुंह देखने लगे. बद्री काका ने अनुभव किया कि बच्‍चों को सबसे अच्‍छी और अच्‍छी के बीच अंतर करने की समझ तो है, लेकिन वे उसको शब्‍दों में व्‍यक्‍त करने में असमर्थ हैं. तब बच्‍चों की मुश्‍किल को आसान करते हुए उन्‍होंने कहा-

‘बच्‍चो, अच्‍छी कविता के लिए जरूरी है कि वह कवि के अपने अनुभव से जन्‍म ले. सदानंद की कविता उसकी निजी अनुभूतियों की उपज है. उसने अपने जीवन में जो देखा-भोगा, उसी को शब्‍दों में व्‍यक्‍त किया है. इसलिए उसकी कविता हमारे दिलों को छू लेती है. आज की सर्वश्रेष्‍ठ कविता का सम्‍मान सदानंद को ही मिलना चाहिए.' पूरी कक्षा एक बार पुनः तालियों से गूंज उठी.

सदानंद को पुरस्‍कृत करने के बाद बद्री काका एक बार फिर बच्‍चों की ओर मुड़े और बोले, ‘नशा हमारे जीवन को कैसे बरबाद कर रहा है, इससे हम सभी परिचित हैं. बल्‍कि उस त्रासदी को अपने जीवन में साक्षात भोग रहे हैं. नशा यूं तो पूरे परिवार को बरबादी की ओर ले जाता है, परंतु उसका सबसे ज्‍यादा शिकार बच्‍चे ही होते हैं. बहुत से बच्‍चों की तो शिक्षा भी पूरी नहीं हो पाती. बीमार हों तो समय पर इलाज से वंचित रह जाते हैं. प्‍यार के स्‍थान पर नफरत और उपेक्षा मिलती है. जिससे उनका विकास अधूरा रह जाता है.

इन कविताओं में भी नशे से होने वाली बरबादियों की ओर संकेत किया गया है. हमें नशे की लत से बचना चाहिए. जो लोग नशे के शिकार हैं, उन्‍हें उससे उबारने की कोशिश भी करनी चाहिए. मुझे खुशी है कि निराली के कहने पर उसकी मां ने अपनी गुमटी से गुटका और पानमसाला बेचना बंद कर दिया है. लेकिन बस्‍ती और उसके आसपास

ऐसे कई दुकानदार हैं, जो अपने मामूली लालच के लिए ये सब चीजें बेचते हैं. जब तक उनमें से एक भी दुकान बाकी है, समझ लो कि हमारी समस्‍याएं भी खत्‍म नहीं हुई हैं. हमें इनके विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए. जरूरत पड़े तो बड़े संघर्ष के लिए भी तैयार रहना चाहिए.'

‘सरकार को चाहिए कि नशे की चीजों पर पाबंदी लगाए...' किसी ने बीच ही में टोका.

‘तुम ठीक कहते हो. उन सभी वस्‍तुओं पर जो नागरिकों के लिए किसी भी प्रकार से नुकसानदेह हैं, रोक लगाना सरकार की जिम्‍मेदारी है. इसके लिए कानून भी हैं. लेकिन हमारे देश में लोकतंत्र है. जनता द्वारा चुनी गई सरकारों की अनेक मजबूरियां होती हैं. उदार कानूनों का लाभ उठाते हुए कई बार स्‍वार्थी व्‍यवसायी बच निकल जाते हैं. इसलिए सरकार से बहुत अधिक उम्‍मीद करना उचित न होगा.'

‘हमें चाहिए कि हम शराब के ठेकों और उन सभी दुकानदारों पर धावा बोल दें, जो नशे की चीजों की बिक्री करते हैं.' एक बच्‍चे ने जोर देकर कहा.

‘उस हालत में वे कानून-व्‍यवस्‍था के नाम पर पुलिस की मदद लेने में कामयाब हो जाएंगे. और हम सब जो समाज और कानून के भले की भावना से आगे बढ़ेंगे, उनके दुश्‍मन माने जाएंगे. झगड़ा ज्‍यादा बढ़ा तो खून-खराबा भी हो सकता है. पूरे शहर की शांति छिन सकती है. इसलिए हमें कोई और उपाय सोचना होगा. ऐसा उपाय जिससे कि हम अपनी बात सीधे आम जनता तक पहुंचा सकें, उन लोगों तक पहुंचा सकें, जिन्‍हें उनकी जरूरत है. इस बारे में आप में से किसी के पास क्‍या कोई सुझाव है?' बद्री काका ने बच्‍चों का उत्‍साहवर्धन करने के लिए पूछा.

इस प्रश्‍न पर बच्‍चों के बीच चुप्‍पी पसर गई. सभी गंभीर चिंता में डूबे हुए थे. कुछ देर बाद टोपीलाल खड़ा हो गया तो सारे बच्‍चे उसी की ओर देखने लगे-

‘गुरुजी! आपने कहा है कि हमें अपनी बात लोगों तक सीधे पहुंचानी चाहिए.'

‘बिलकुल, लोकतंत्र में जनता की ताकत ही सबसे बड़ी होती है.' बद्री काका बोले.

‘तब तो समझिए रास्‍ता मिल गया.' टोपीलाल ने उत्‍साह दिखाया.

‘कैसे?'

‘हम छुट्‌टी के बाद रोज घर-घर, गली-गली जाकर लोगों को समझाएंगे. उन्‍हें नशे से होने वाले नुकसान के बारे में बताएंगे. उससे भी असर नहीं पड़ा तो गली-मुहल्‍लों में उस ठिकानों पर धरना देंगे, जहां लोग नशे के शिकार हैं. वहां हम तब तक डटे रहेंगे, जब तक कि नशा करने वाले उससे दूर जाने का वचन नहीं दे देते.' टोपीलाल ने कहा तो कुक्‍की सहमति में तालियां बजाने लगी. बाकी बच्‍चे भी उसका साथ देने लगे.

‘यह तुमने कहां से जाना.' बद्री काका ने खुश होकर पूछा.

‘भूल गए, आपने ही ने तो बताया था कि विदेशी वस्त्रों के विरुद्ध लोगों को एकजुट

करने के लिए महात्‍मा गांधी ने ऐसा ही किया था.'

‘कुछ भी नहीं भूला.' बद्री काका ने जैसे यादों में गोते खाते हुए कहा, ‘पर यह काम आसान नहीं है.'

‘हम सब आपके साथ हैं.' सदानंद ने खडे़ होकर कहा.

‘मुझे पूरा भरोसा है!' बद्री काका बोले, जैसे खुद को तैयार कर रहे हों-

‘लोगों को नशे की लत के प्रति जागरूक बनाने के लिए इसके अलावा क्‍या कोई और उपाय भी हो सकता है?'

कक्षा में कुछ देर के लिए सन्‍नाटा छाया रहा. सहसा निराली उठी और बोली-

‘हम बच्‍चे टोली बना-बनाकर दुकानदारों के पास जाएंगे और उनसे प्रार्थना करेंगे कि वे नशे की चीजें सुपारी, बीड़ी, सिगरेट, गुटका, पानमसाला वगैरह न बेचें.'

‘एकदम सही सुझाव है.'

‘वे हमारी बात क्‍यों मानने लगे?' एक बच्‍चे ने आशंका व्‍यक्‍त की.

‘हां यह भी ठीक है, लेकिन जब कोई अच्‍छा काम सच्‍चे मन से किया जाता है तो एक न एक दिन कामयाबी मिल ही जाती है. हम एक दिन में यदि दस दुकानदारों के पास जाएंगे तो उनमें से एक-दो हमारी बात गंभीरता से अवश्‍य सुनेंगे. धीरे-धीरे यह संख्‍या बढ़ती ही जाएगी.'

‘यह तो बहुत परिश्रम का काम है.'

‘हम मेहनत करने को तैयार हैं.' कुक्‍की ने लड़के की बात बीच ही में काट दी.

‘तब ठीक है...इसके लिए विद्यार्थियों की चार टोलियों बनाई जाएंगी. सप्‍ताह में एक दिन, बालसभा के बाद हम इसी अभियान पर चला करेंगे. इसके अलावा क्‍या कोई और भी सुझाव है?' बद्री काका ने बच्‍चों को उत्‍साहित किया.

‘जिन्‍हें नशे की लत है वे इन चीजों का किसी न किसी तरह जुगाड़ कर ही लेंगे.इसीलिए हमें चाहिए कि कुछ ऐसे प्रयास भी करें, ताकि लोग इनसे अपने आप दूर होते जाएं. इसके बारे में मेरा सुझाव जरा हटकर है?' टोपीलाल ने बोला. राष्‍ट्रपति महोदय को पत्र लिखने के बाद उसका शब्‍द की ताकत में भरोसा बढ़ा था. वह उसको आगे भी आजमाना चाहता था.

‘बताओ बेटा...' बद्री काका ने हौसला बढ़ाया.

‘हम सब अपने माता-पिता और उन संबंधियों के नाम जो नशे की लत के शिकार हैं, पत्र लिखें और उन्‍हें उससे होने वाले नुकसान के बारे में बताएं. अगर वे लोग हमें सचमुच प्‍यार करते हैं तो उनपर हमारी बात का असर जरूर होगा?'

‘वाह! कमाल का सुझाव है तुम्‍हारा. जिन्‍हें तुम सचमुच बदलना चाहते हो, उनसे उनके दिल के करीब जाकर बात करो. महात्‍मा गांधी ने पूरे जीवन यही किया. अपने अखबार ‘हरिजन' के माध्‍यम से उन्‍होंने देश की जनता से सीधे संवाद स्‍थापित किया था.

और पत्र तो दिल को नजदीक से छूकर संवाद करने का अद्‌भुत माध्‍यम है. इस सुझाव पर हम तत्‍काल अमल करेंगे. क्‍यों बच्‍चो?' बद्री काका के आवाह्‌न पर अधिकांश बच्‍चों ने सहमति व्‍यक्‍त की. इससे उत्‍साहित होकर बद्री काका ने आगे कहा-

‘इस सप्‍ताह सभी बच्‍चे अपने माता-पिता या उन संबंधियों के नाम पत्र लिखकर लाएंगे, जो नशे के शिकार हैं. उन पत्रों को अगली बालसभा में सुनाया जाएगा. हां, यदि कोई बच्‍चा नहीं चाहता कि उसके माता-पिता या सगे-संबंधी की नशे की आदत के बारे में खुले में, सबके सामने बातचीत हो तो इसका भी ध्‍यान रखा जाएगा. उस विद्यार्थी के पत्र को कक्षा में पढ़ा जरूर जाएगा, लेकिन पत्र में दिए गए नाम तथा उससे विद्यार्थी के रिश्‍ते को पूरी तरह गुप्‍त रखा जाएगा. यदि संभव हुआ तो पत्र को सीधे अथवा डाक के माध्‍यम से उस व्‍यक्‍ति तक पहुंचाने की व्‍यवस्‍था की जाएगी, जिसके नाम वह लिखा गया है. बोलो मंजूर?'

‘जी!' पूरी कक्षा ने साथ दिया. इसी के साथ उस दिन की पाठशाला संपन्‍न कर दी गई. बच्‍चे अपने-अपने घर लौटने लगे.

हर बालक ऊर्जा का अज- भंडार है. जो इस सत्‍य को पहचानकर उसका सदुपयोग करने में सफल रहते हैं, इतिहास महानायक मानकर उनकी पूजा करता है.

महानायक अकेला आगे बढ़ता है. लेकिन थोड़े ही समय में पूरा कारवां उसके पीछे होता है; जो निरंतर बढ़ता ही जाता है.

बद्री काका खुश थे, बल्‍कि हैरान भी थे. बच्‍चों को जिस दिशा में वे लाना चाहते थे, जिस उद्‌देश्‍य के लिए संगठित करना चाहते थे, उस ओर वे स्‍वयंस्‍फूर्त भाव से बढ़ रहे थे. उनमें एकता भी थी और उत्‍साह भी. उनमें भरपूर ऊर्जा थी और काम करने की ललक भी. उनका संगठन कमाल का था. जिसमें न कोई लालच था, न राजनीति की दुरंगी चाल. न कोई छोटा था, न बड़ा. सभी अनुशासित थे; और अपनी विचारधारा में स्‍वतंत्र भी. इसलिए उनकी कामयाबी पर भरोसा किया जा सकता था. आवश्‍यकता थी उनके सही नेतृत्‍व की. उनकी संगठित ऊर्जा का रचनात्‍मक उपयोग करने की.

पाठशाला के कुल बच्‍चों को चार दलों में बांटा गया था. एक दल का नेता टोपीलाल को बनाया गया. दूसरे का निराली को. कुक्‍की और सदानंद एक ही टोले में रहना चाहते थे. बद्री काका की इच्‍छा थी कि दोनों को स्‍वतंत्र टोलियों की जिम्‍मेदारी सौंपी जाए. आखिर कुक्‍की की बात ही मानी गई. उसके अनुरोध पर उसे सदानंद के साथ एक ही टोली में रखा गया.

चौथे टोले का मुखिया अर्जुन को बनाया गया. वह दूसरे टोले का था. उसके माता-पिता मजदूरी करते थे. उनका टोला हाल ही में शहर के दूसरे क्षेत्र से यहां पहुंचा

था और बराबर में बन रही एक और बहुमंजिला इमारत के निर्माण में लगा था. अर्जुन को टोली का मुखिया बनाने के पीछे सोच यही था कि बच्‍चे जब उसके टोले में जाएं तो अर्जुन के कारण वहां के लोग उस आंदोलन से खुद को जुड़ा हुआ समझें.

नशा-मुक्‍ति अभियान को कारगर बनाने के बच्‍चों ने चित्र और पोस्‍टर भी बनाए थे. चित्र बनाने का सुझाव निराली का था. उसको चित्र बनाने का शौक था. वह कक्षा में, घर पर, जब भी अवसर मिले, चित्र बनाती ही रहती. टोपीलाल के आग्रह पर पूरे टोले में प्रभात-फेरी का कार्यक्रम बनाया गया. उसके लिए कुछ भजन लिखे-लिखाए मिल गए. बाकी बद्री काका ने स्‍वयं लिखे. ढोलक और मजीरे का प्रबंध बस्‍ती से ही हो गया.

भजनों को संगीत की लय-ताल पर गाने का अभ्‍यास कराने में तीन दिन और गुजर गए. टोपीलाल के उत्‍साह को देखते हुए प्रभातफेरी के लिए कुछ नारे भी गढ़े गए थे. इस सब कार्यवाही में बच्‍चों ने जिस उल्‍लास और मनोयोग से हिस्‍सा लिया. उसको देखकर बद्री काका भी दंग रह गए.

अगले सप्‍ताह बालसभा के दिन सुबह ठीक छह बजे सभी बच्‍चे बिल्‍डिंग के दूसरे तल पर, जहां पाठशाला चलाई जाती थी, जमा हुए. उनके हाथ में खुद के बनाए पोस्‍टर थे, और झंडे भी. सबसे पहले प्रार्थना हुई. बद्री काका ने बच्‍चों को गांधी जी के जीवन से संबंधित अनेक प्रेरक प्रसंग सुनाए. उनके जीवन से प्रेरणा लेने को कहा. प्रभात-फेरी का विचार टोपीलाल की ओर से आया था. अतः उसका नेतृत्‍व करने की जिम्‍मेदारी भी उसी को सौंपी गई.

तय समय पर प्रभात-फेरी के लिए बच्‍चों का समूह पंक्‍तिबद्ध हो आगे बढ़ा. ढोलक और मजीरे की ताल पर भजन गाते हुए बच्‍चे छोटी-छोटी झुग्‍गियों के आगे से होकर गुजरने लगे. उनके स्‍वर ने लोगों को जगाने का काम किया. भजन पूरा होते ही नारों की बारी आई. प्रभात-फेरी का नेतृत्‍व कर रहे टोपीलाल ने पहला नारा लगाया-

‘गुटका, पानमसाला, बीड़ी...'

‘...मौत की सीढ़ी-मौत की सीढ़ी.' पीछे चल रहे बच्‍चों ने साथ दिया.

‘गुटका, पानमसाला, बीड़ी...'

‘...मौत की सीढ़ी, मौत की सीढ़ी.'

‘प्‍यार से जो आबाद हुए घर...'

‘...नशे ने वे बरबाद किए घर.'

‘अगर तरक्‍की करनी है तो...'

‘...दूर नशे से रहना होगा.'

‘जीवन में कुछ बनना है तो...'

‘...नशे को ‘टा-टा' करना होगा.'

‘फंसा नशे के चंगुल में जो...'

‘...इंसां से हैवान बना वो.'

‘गुटका, पानमसाला, बीड़ी...'

‘...मौत की सीढ़ी, मौत की सीढ़ी.'

‘नशा जहर है...'

‘...महाकहर है...'

‘मौत का खतरा...'

‘...आठ पहर है.'

नारों के बाद फिर एक भजन गाया जाता. एक घंटे में प्रभात फेरी समेट ली जाती. उसके बाद बच्‍चे घर जाकर नाश्‍ता करते, फिर पाठशाला आते. शाम का समय लोगों को घर-घर जाकर समझाने के लिए तय था. टोपीलाल उस समय भी सबसे आगे होगा. बच्‍चे चार टोलियों में बंट जाते. फिर वे घर-घर जाकर लोगों को शराब और नशे की बुराइयों के बारे में समझाते. कभी बद्री काका उनके साथ होते, कभी नहीं. लेकिन पाठशाला के प्रांगण में बैठे-बैठे, भविष्‍य की योजना बनाते हुए भी वे बच्‍चों के अभियान के बारे में तिल-तिल की खबर रखते. समस्‍या देखते तो पलक-झपकते वहां पहुंच जाते.

शाम का समय. टोपीलाल अपनी टोली का नेतृत्‍व कर रहा था. अपने ही टोले में जागरूकता अभियान चलाते हुए टोपीलाल के कदम ठिठक गए. उसके साथ चल रहे बच्‍चे भी एक झटके के साथ रुक गए. सामने उसका अपना घर था. ईंटों को कच्‍चे गारे से खड़ा करके बनाई गई झोपड़ीनुमा चारदीवारी. जिसमें दो चारपाई लायक जगह थी. छत का काम प्‍लास्‍टिक की पन्‍नी और तिरपाल से काम चलाया गया था. दरवाजा इतना छोटा था कि टोपीलाल जैसे बच्‍चों को भी गर्दन झुकाकर प्रवेश करना पड़ता था. दूसरों के लिए एक-एक ईंट करीने से सजाने वाले वे बेमिसाल कारीगर-मजदूर अपना ठिकाने बनाते समय पूरी तरह लापरवाह हो जाते थे. यही उनके जीवन की विडंबना थी.

घर में से मां और बापू की आवाजें आ रही थीं. भीतर घुसते हुए टोपीलाल झिझक रहा था. पता नहीं मां और बापू से वे सब बातें कह पाएगा या नहीं, जो उसने दूसरे घरों में कही थीं.

‘तुम्‍हारे घर में तो कोई नशा करता नहीं, फिर यहां समय खर्च करने की क्‍या जरूरत है. आगे चलो टोपी.' साथ चल रहे एक बच्‍चे ने कहा. टोपीलाल को एकाएक कोई जवाब न सूझा. लेकिन अगले ही पल वह दृढ़ निश्‍चय के साथ भीतर घुसता चला गया. मां उस समय खाना बनाने की तैयारी कर रही थी.

‘इतनी जल्‍दी आ गए बेटा...लगता है आज के लिए कोई कार्यक्रम नहीं था?' बेटे को सामने देख टोपीलाल की मां की आंखों में चमक आ गई. पिछले कई दिनों से वह बस्‍ती में टोपीलाल के कारनामों के बारे में सुनती आ रही थी. हर खबर उसको सुख पहुंचाती. हर बार उसका सीना गर्व से फूल जाता था.

‘हम अपने काम के सिलसिले में ही यहां आए हैं!'

‘कैसा काम? अरे, तू तो अपने दोस्‍तों को भी साथ लाया है. अच्‍छा बैठ, मैं तुम सबके लिए कुछ खाने का प्रबंध करती हूं.'

‘रहने दो मां, हम आपको नशे की बुराइयों के बारे में बताने आए हैं.' टोपीलाल ने मां और बापू की ओर देखते हुए कहा.

‘तू जानता है कि तेरे बापू पान को भी हाथ नहीं लगाते, फिर यहां आने की क्‍या जरूरत थी. समय ही तो बेकार हुआ.' टोपीलाल की मां के स्‍वर में विस्‍मय था. बापू चुप, गर्दन झुकाए मन ही मन मुस्‍करा रहे थे.

‘हमनेे हर घर में जाने का प्रण किया है मां.' टोपीलाल ने विनम्रतापूर्वक कहा.

‘सो तो ठीक है, लेकिन जिस घर के बारे में तुम्‍हें अच्‍छी तरह मालूम कि वहां के लोग शराब या नशे की दूसरी चीजों के करीब तक नहीं जाते, उस घर में जाना तो अपना समय बरबाद करना ही हुआ.'

‘फिर तो हर दरवाजे से हमें यही सुनने को मिलेगा कि इस घर में कोई नशा नहीं करता. यहां समय बरबाद करने से अच्‍छा है आगे बढ़ जाइए. औरतें भले ही हमें भीतर बुलाना चाहें, पर चलेगी उनके मर्दों की ही. नशाखोर मर्द घर की औरतों को हमें बाहर ही बाहर विदा करने के लिए आसानी से तैयार कर लेंगे. नतीजा यह होगा कि हम उन घरों में जा ही नहीं पाएंगे, जहां हमारा जाना जरूरी है. हमारे जाने से जो असर लोगों के दिलोदिमाग पर पड़ना चाहिए, उससे वे आसानी से बच जाएंगे.' टोपीलाल के तर्क ने उसकी मां को भी निरुत्तर कर दिया. कुछ देर बाद वह बोली-

‘कहता तो तू एकदम सही है बेटा...इतनी बड़ी-बड़ी बातें क्‍या तेरेे गुरुजी तुझे सिखाते हैं?'

‘उनका काम तो हमें जिम्‍मेदारी सौंपना है, स्‍थिति के अनुकूल बात कैसे करनी है, यह हमें खुद ही तय करना पड़ता है.' टोपीलाल ने कहा. उसके पिता जो अभी तक उसपर टकटकी लगाए थे, उसकी की मां की ओर मुड़कर बोले-

‘तेरा बेटा है, बातों में तो इसे कोई हरा ही नहीं सकता.'

‘माफ करना, हमें अभी और भी कई घरों में जाना है.' टोपीलाल को तेजी से भागते हुए समय का बोध था. इसके बाद वह उन्‍हें नशे की बुराइयों के बारे में समझाने लगा. काम पूरा होने पर अपने साथियों के साथ वह भी बाहर निकल आया. पीछे से टोपीलाल के कान में बापू की आवाज पड़ी. वे कह रहे थे-

‘मुझे अपने बेटे पर गर्व है.'

‘और मुझे उसके पिता पर.' टोपीलाल के कान में मां का स्‍वर पड़ा. उसने सिर को झटका दिया और अपने अभियान पर आगे बढ़ गया.

योग्‍य संतान को सर्वत्र सराहना मिलती है.

बचपन को सही दिशा दो. सफलता उसकी मुट्‌ठी में होगी.

टोपीलाल और उसकी टोलियों ने शहर में वह कर दिखाया जो बड़े-बड़े उपदेशों, भारी-भरकम सरकारी प्रयासों द्वारा संभव ही नहीं था. सप्‍ताहांत में बालसभा के लिए बच्‍चों ने इतनी मार्मिक चिटि्‌ठयां लिखीं कि बद्री काका दंग रह गए. करीब तीस बच्‍चों में से ग्‍यारह ने पत्र लिखे. कुछ ने छोटे तो कई ने लंबे-लंबे. पत्रों में उन्‍होंने अपने माता-पिता, चाचा, ताऊ, मामा और दूसरे रिश्‍तेदारों को, जिनके बारे में उन्‍हें मालूम था कि उन्‍हें नशे की लत है, संबोधित किया था.

छह-सात पत्र तो इतने मार्मिक थे कि खुद को माया-मोह से परे मानने वाले बद्री काका भी अपने आंसू न रोक सके. उन पत्रों को उन्‍होंने बार-बार पढ़ा. कुछ को कक्षा में भी पढ़वाया गया. कुछ अति मार्मिक पत्रों को पूरी कक्षा के सामने पढ़वाने का साहस बद्री काका भी न कर सके.

पत्र मौलिक और असरकारी भाषा में लिखे गए थे. वे सीधे दिल पर असर डालते थे. इस कारण बद्री काका का मन न हुआ कि उन्‍हें खुद से अलग करें. इसलिए उन पत्रों की छायाप्रतियां ही संबंधित व्‍यक्‍तियों को भेजी गईं. बद्री काका को इससे भी संतोष न हुआ. वे उन पत्रों का रचनात्‍मक उपयोग करना चाहते थे. चाहते थे कि उनका प्रभाव सर्वव्‍यापी हो. वे जन-जन की आत्‍मा को जाग्रत करने का काम करें. वे चाहते थे शब्‍द की ताकत को सृजन से जोड़ना, उसे आंदोलन का रूप देना.

कई दिनों तक बद्री काका इसपर विचार करते रहे. सोचते रहे कि कैसे उन पत्रों को अपने अभियान का हिस्‍सा बनाया जाए! कैसे उनका अधिकतम उपयोग संभव हो! कैसे उनके माध्‍यम से समाज में नशाबंदी के पक्ष में बहस आरंभ कराई जाए! कैसे बच्‍चों की निजी पीड़ा को सार्वजनिक पीड़ा और आक्रोश में बदला जाए! परंतु क्‍या यह उचित होगा? कहीं यह नैतिकता के विरुद्ध तो नहीें? बद्री काका अजीब-सी उलझन में फंसे थे. वे एक फैसला करते, अगले ही पल अचानक उनकी राय बदल जाती.

कई दिनों तक उनके मन में संघर्ष चलता रहा. मन कभी इधर जाता, कभी उधर. काफी सोच-विचार के पश्‍चात उन्‍होंने चुने हुए पत्रों को स्‍थानीय समाचारपत्र में प्रकाशित कराने का निश्‍चय किया. इस निर्णय के साथ ही उनकी आंखों में चमक आ गई. अंततः बच्‍चों एवं उनके अभिभावकों का नाम-पता छिपाकर उन पत्रों की छायाप्रतियां, शहर के एक प्रतिष्‍ठित दैनिक को सौंपी दी गईर्ं.

सबसे पहले सदानंद का ही पत्र छपा. समाचारपत्र में हालांकि उसकी पहचान को सुरक्षित रखा गया था. लेकिन बद्री काका समेत उनके प्रत्‍येक विद्यार्थी और उसके माता-पिता को मालूम था कि वह सदानंद का ही पत्र है. अपने पिता को संबोधित करते

हुए उसने लिखा था-

नमस्‍ते बापू!

मैं जानता हूं कि आप मुझे बेहद प्‍यार करते हैं. उस क्षण भी अवश्‍य ही करते होंगे, जब आपने पहली बार शराब को हाथ लगाया था. पर यह शायद मेरा दुर्भाग्‍य ही था. क्‍योंकि ठीक उस समय जब आप शराब का पहला घूंंट भरने जा रहे थे, आपको मेरा जरा भी ध्‍यान नहीं रहा. मुझे पूरा विश्‍वास है कि उस समय अगर मेरा चेहरा आपके ध्‍यान में रहा होता, तो आप शराब के गिलास को जमीन पर पटककर वापस चले आते. फिर कभी शराबखाने का मुंह न देखते.

बापू मैं भी आपको बहुत चाहता हूं. पर उससे शायद कम जितना कि आप मुझे चाहते हैं. आप पिता हैं, जब मैं आपका किसी भी क्षेत्र में मुकाबला नहीं कर सकता तो प्‍यार करने में भी यह कैसे संभव है! इसलिए इसमें आपका तनिक भी दोष नहीं, सारा दोष मेरा ही है कि मैं अपने भीतर वह काबलियत नहीं जगा सका, जिससे कि आपको ठीक उस समय याद आ सकूं, जबकि आपको मेरी जरूरत है. मुझे क्षमा करें पिता. मैं स्‍वयं को आपका नाकाबिल पुत्र ही सिद्ध कर सका.

बापू शराब की लत के पीछे आप शायद भूल चुके हैं कि आप कितने बड़े राजमिस्त्री हैं. मैंने शहर की वे इमारतें देखी हैं, जिन्‍हें आपने अपनी हुनरमंद उंगलियों से तराशा है.मैंने उन बेमिसाल कंगूरों को भी देखा है, जो आपकी कला के स्‍पर्श से सिर उठाए खड़े हैं. ऊंची-ऊची इमारतों के बीच जिनकी धाक है. लोग जिनकी खूबसूरती को देखकर दंग रह जाते हैं.

मैं शहर में बहुत अधिक तो नहीं जा पाता. मगर जब कभी उन इमारतों के करीब से गुजरता हूं तो मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. उसके बाद कई दिनों तक दोस्‍तों के साथ मेरी बातचीत का एकमात्र विषय आपकी बेहतरीन कारीगरी की मिसाल वे आलीशान इमारतें ही होती हैं. मैं बच्‍चा हूं, इसलिए आपकी कारीगरी को उन शब्‍दों में तो व्‍यक्‍त नहीं कर पाता, जिसमें उसे होना चाहिए. पर अपने टूटे-फूटे शब्‍दों में किए गए बयान से ही मुझे जो गर्वानुभूति होती है, उसको मैं शब्‍दों में प्रस्‍तुत कर पाने में असमर्थ हूं. बस समझिए कि वे मेरे जीवन के सर्वाधिक पवित्र एवं आनंददायक क्षण होते हैं.

बापू अपने इस पत्र में मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि आपकी बनाई जिन इमारतों के जिक्र से मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है, वे आपने उन दिनों बनाई थीं, जब आप शराब और नशे की दूसरी चीजों को हाथ तक नहीं लगाते थे. शराब ने आपसे आपकी बेमिसाल कारीगरी को छीना है, मुझसे मेरे पिता को. यहां मैं मां का जिक्र जानबूझकर नहीं कर रहा हूं. क्‍योंकि आपने जिस दिन से खुद को शराब के हवाले किया है, वह बेचारी तो अपनी सुध-बुध ही खो बैठी है. यह भी ध्‍यान नहीं रख पाती कि इसमें क्‍या अच्‍छा है और क्‍या बुरा. लगता ही नहीं कि वह इंसान भी है. बेजान मशीन की तरह काम में जुटी रहती है. उसके जीवन की सारी उमंगे, सारा उत्‍साह और उम्‍मीदें गायब हा

चुकी हैं.

इस सबके पीछे मेरा ही दोष है. मैंने अपने पिता को खुद से छिन जाने दिया. मैं अपनी मां का खयाल नहीं रख पाया. अपनी उसी भूल का दंड मैं भुगत रहा हूं, आप भी और मां भी. मैं आप दोनों का अपराधी हूं बापू. पर मैं यह समझ नहीं पा रहा कि क्‍या करूं. कैसे अपने पिता को वापस लाऊं. आप तो मेरे पिता है, पालक हैं, आपने ही उंगली पकड़कर मुझे चलना सिखाया है. अब आप ही एक बार फिर मेरा मार्गदर्शन करें. मुझे बताएं कि मैं आपको कैसे समझाऊं? कैसे मैं मां की खुशी को वापस लौटाऊं?

बापू आप जब अपने पिता होने के धर्म को समझेंगे, तभी तो मैं एक अच्‍छा बेटा बन पाऊंगा. इसलिए मेरे लिए, अपने बेटे और उसकी मां के लिए, शराब को छोड़कर वापस लौट आइए. आपकी इस लत ने अभी तक जितना नुकसान किया है, हम सब मिलकर उसकी भरपाई कर लेंगे बापू...

-आपका इकलौता और नादान बेटा

दिल की गहराइयों से निकली हर बात असरकारक होती है.

अखबार में छपने के साथ ही यह पत्र पूरे शहर में चर्चा का विषय बन गया. गलियों में, नुक्‍कड़ पर, पान की दुकान और चाय के खोखों पर, बड़े रेस्‍त्रां और कॉफी हाउस में, घरों और पार्कों में, स्त्री-पुरुष, बच्‍चे-बूढ़े, बुद्धिजीवियों से लेकर आमआदमी तक, सदानंद के पत्र पर बहस होती रही.

बच्‍चों द्वारा चलाया जा रहा नशा-विरोधी कार्यक्रम शहर-भर में पहले ही चर्चा का विषय बना हुआ था. सदानंद का पत्र छपते ही सबका ध्‍यान उसी ओर चला गया. बड़े-बड़े अखबारों के संवाददाता, सामाजिक कार्यकर्ता, समाजसेवी, विद्वान उस टोले की ओर आकर्षित होने लगे. इस हलचल को लंबी उड़ान देने वाला अगला पत्र कुक्‍की का छपा. पत्र को अपने असली नाम से छपवाने का साहस भी कुक्‍की ने दिखाया था. अपने छोटे-छोटे हाथों से नन्‍ही कुक्‍की बड़ी-बड़ी बातें लिखीं-

काका!

मां बताती है कि जब आप भगवान के पास गए मैं सिर्फ दो वर्ष की थी. मेरी आंखों ने आपको जरूर देखा होगा, मगर अफसोस मेरे दिमाग पर आपकी जरा-सी भी तस्‍वीर बाकी नहीं है. मां बताती है कि आपको नशे की लत थी. कमाई अधिक थी नहीं, पर लत तो लत ठहरी. नशे के लिए जो भी मिलता उसको खा लेते. चरस, भांग, धतूरा, अफीम कुछ भी. शराब मिलती तो वह भी गट्‌ट से गले के नीचे. नतीजा यह हुआ कि आपकी आंतें गल गईं. एक दिन खून की उल्‍टी हुई और आप मां को अकेला छोड़कर चले गए. मेरी मां अकेली रह गई. पूरी दुनिया में अकेली. सिर पर ईंट-गारा उठाने, लोगों की गालियां सुनने, ठोकरें खाने के लिए.

वैसे मां बताती है कि आप बहुत संकोची थे. इतने संकोची की मां थाली में अगर दो रोटी रखकर भूल जाए तो आप भूखे ही उठ जाएं. मां से, अपनी पत्‍नी से तीसरी रोटी तक न मांगे. आपकी मेहनत के भी कई किस्‍से मैंने मां के मुंह से सुने हैं. वह चाहती थी कि मेरा एक भाई भी हो, जो बड़ा होकर काम में आपका हाथ बंटा सके. जब उसने आपके सामने अपनी इच्‍छा प्रकट की तो आप मुस्‍करा दिए. उसके बाद याद है आपने क्‍या कहा था? मां बताती है कि आपने उस समय कहा था-‘अपनी कुमुदिनी तो है?'

‘वह तो बेटी ठहरी. एक न एक दिन ससुराल चली जाएगी. हमें बुढ़ापे का सहारा भी तो चाहिए.'

‘बुढ़ापे के सहारे के लिए तुम्‍हें बेटा ही क्‍यों चाहिए?'

‘सभी चाहते हैं.'

‘बेटा होगा तो तुम उसका ब्‍याह भी करोगी? बहू भी आएगी, क्‍यों?'

‘हां बेटा होगा तो ब्‍याह भी करना ही होगा. ब्‍याह होगा तो बहू आएगी ही.'

‘और बेटा अगर बहू को लेकर अलग हो गया तो?' आपने कहा था. मां निरुत्तर. तब आपने मां को समझाते हुए कहा था, ‘बेटी को कम मत समझ, यह पढ़-लिख गई तो दो परिवार संवारेगी. दुनिया में कितने आए, कितने गए. यहां कौन अमर हुआ जो बेटे के बहाने तू अमर होना चाहती है.'

‘तुम बेटी के नाम के साथ अमर होने की कामना रखते हो तो मैं बेटे के साथ क्‍यों न रखूं?' तब आपने कहा था-

‘मैं तो बस बेटी के साथ जीना चाहता हूं. फिर चाहे जितनी भी सांसें मिलें.' और भगवान ने आपको सिर्फ इतनी सांसें दीं कि मुझे बड़ा हुए दो वर्ष की बच्‍ची के रूप में देख सकें.

इस किस्‍से को मेरी मां कितनी ही बार सुना चुकी है. कितने पिता हैं जो अपनी बेटियों को इतना मान देते हैं. मां चाहती थी कि मैं आपको पिता कहा करूं. वह मुझे वही सिखाना चाहती थी. तब आपने कहा था, ‘नहीं पिता नहीं?'

‘क्‍यों, क्‍या आप इसके पिता नहीं हैं?' मां ने हैरान होकर पूछा था.

‘मुझे शर्म आती है?'

‘इसमें कैसी शर्म?'

‘काका ही ठीक रहेगा.'

‘काका ही क्‍यों?'

‘इस संबोधन में दोस्‍ताने की गुंजाइश ज्‍यादा है.' मां बेचारी मान गई. वह कहती है कि आप मुझे बहुत प्‍यार करते थे. अपने साथ थाली में बैठाकर खिलाते थे. मुझे जरा-सा भी कष्‍ट हो तो विचलित हो जाते. पर काका, आज आपको खोकर मुझे लगता है कि आपका प्‍यार नकली था. अगर आप मुझे सच्‍ची-मुच्‍ची प्‍यार करते तो नशे के चंगुल में हरगिज न फंसते. एक पिता के लिए अपनी संतान के प्‍यार से बड़ा नशा और क्‍या हा

सकता है.

काका आप हमेशा मां को धोखा देते रहे. पर मैं आपके झांसे में आने वाली नहीं हूं. मैं आपकी असलियत को जानती हूं. आपकी चालाकी से परिचित हूं. इसलिए आपको भुलाना चाहती हूं. नहीं चाहती कि आपकी यादें मेरी रातों की नींद हराम करें. पर क्‍या करूं! भुला नहीं पाती. बच्‍ची हूं ना. उतनी समर्थ नहीं हुई हूं कि सारा काम अकेली ही कर सकूं.

भूल भी जाऊं तो मां नहीं भूलने देती. रोज रात को चारपाई में मुंह धंसाए मां को सिसकते हुए देखती हूं तो आपकी याद आ ही जाती है. मां की आदत से तंग आकर कभी-कभी मैं कह देती हूं-

‘अब किसके लिए रोती है. बूढ़ी होने को है. बस कुछ साल और इंतजार कर...उसके बाद ऊपर जाकर उनसे जी-भर कर मिलना. मां पलटकर मुझे अपनी बांहों में भर लेती है-

‘मुझे अपनी नहीं तेरी चिंता है बेटी.' और मां जब यह कहती है तो मैं घबरा जाती हूं. अंधेरा मन को डराने लगता है. वह हालांकि छिप-छिपकर रोती है. नहीं चाहती कि उसके दुःख की छाया भी मुझपर पड़े. पर मैं तो उसका दुःख-दर्द उसकी धड़कनों से जान जाती हूं. हवा की उस नमी को महसूस कर सकती हूं मां की देह को छूने के बाद उसमें उतर आती है. यह भी जानती हूं कि मां के आंसू ही आपकी यादों को जिलाए रहते हैं. पर मैं आपसे नाराज हूं. सचमुच नाराज हूं.

अपने पत्र के माध्‍यम से मैं दुनिया के सभी पिताओं से कहना चाहती हूं कि यदि आप अपनी बेटियों को खुश देखना चाहते हैं, यदि आप उनको नाराज नहीं करना चाहते, यदि आपको मेरे आंसू असली लगते हैं. यदि आपको मेरी मां बदहाली, उसके चेहरे पर पड़ी झुर्रियों, हथेलियों में पड़ी मोटी-मोटी गांठों, कम उम्र में ही सफेद पड़ चुके बालों पर जरा-भी तरस आता है, तो कृपया खुद को नशे से दूर रखिए. तभी आप सच्‍चे और अच्‍छे माता-पिता बन सकते हैं.

सिर्फ अपनी मां की

कुक्‍की

एक बच्‍चे के माता-पिता तो नशे से दूर थे. लेकिन उसके मामा को शराब की लत थी. उस बच्‍चे का लिखा पत्र तीसरे दिन अखबार की सुर्खी बना-

प्‍यारे मामा जी!

सादर प्रणाम,

अगर आप मुझे अपना सबसे प्‍यारा भांजा मानते हैं तो आज से ही शराब पीना छोड़ दीजिए. आप नहीं जानते कि आपके कारण मां कितनी परेशान रहती है. मामी को कितना कष्‍ट उठाना पड़ता है. मां बता रही थी कि आपकी शराब की गंदी लत से परेशान

होकर मामी तो आत्‍महत्‍या ही करना चाहती थी. यह तो अच्‍छा हुआ कि मां की नजर उन गोलियों पर पड़ गई, जिन्‍हें खाकर उन्‍होंने आपसे छुटकारा पाने की ठान ली थीं. बड़ी मुश्‍किल से मां ने मामी को समझाया, जान देने से रोका. पर मां कहती है कि आप यदि नहीं सुधरे तो मामी कभी भी...

मां बताती है कि नाना जी जब मरे तब आपके पास सौ बीघा से भी अधिक जमीन थी. बाग था, जिसमें हर साल खूब फल आते थे. नाना जी उन्‍हें टोकरियों में भरकर अपने सभी रिश्‍तेदारों के घर पहुंचा देते. वे आपको बहुत चाहते थे. उनकी एक ही अभिलाषा थी कि आप पढ़ें. उनकी इच्‍छा मानकर आप पढ़े भी. बाद में ऊंची सरकारी नौकरी पर भी पहुंचे. उस पद तक पहुंचे जहां गांव में आप से पहले कोई नहीं पहुंच पाया था. नाना जी आपपर गर्व करते थे. कहते थे कि उनके जैसा भाग्‍यवान पिता इस धरती पर दूसरा नहीं है. लेकिन अनुभवी होकर भी वे अपने भविष्‍य से कितने अनजान थे.

नौकरी के दौरान ही आपको नशे की लत ने घेर लिया. दिन में भी आप शराब के नशे में रहने लगे. नतीजा आपको अपनी नौकरी से ही हाथ धोना पड़ा. यह सदमा नानाजी सह न सके. उन्‍हें मौत ने जकड़ लिया. आप गांव लौट आए. मां बताती है कि उस समय गांव में सबसे बड़ी जायदाद के मालिक आप ही थे. अगर आप तब भी संभल जाते तो आपके परिवार की हालत आज कुछ और ही होती. लेकिन इतनी ठोकरें खाने के बाद भी आप संभले नहीं. परिणाम यह हुआ कि जमीन बिकने लगी. पहले बाग बिका. फिर उपजाऊ खेत. बाद में पुश्‍तैनी हवेली का भी नंबर आया. उस समय अगर मामी जी अड़ नहीं जातीं तो आज आप और मामी जी बिना छत के रह रहे होते.

खैर, आपकी बरबादी और बदहाली के किस्‍से तो अनंत हैं. मैं तो सिर्फ यही कहना चाहता हूं कि यदि आपको मामी से प्‍यार है, यदि आपके मन में अपनी बहन यानी मेरी मां के प्रति जरा-भी सम्‍मान है, यदि आप अपने बच्‍चों को हंसता-खेलता और खुशहाल देखना चाहते है, यदि आप नहीं चाहते कि अपनी मां के मरने के बाद आपके बच्‍चे अनाथों की भांति दर-दर की ठोकरें खाएं, लोग उनको शराबी का बेटा कहकर दुत्‍कारें, यदि आप नहीं चाहते कि मेरे स्‍वर्गीय नानाजी की आत्‍मा कुछ और कष्‍ट भोगे, तो प्‍लीज नशे को ‘ना' कह दीजिए. दूर रहिए उससे. तब आपका यह भांजा आपको इसी तरह प्‍यार करता रहेगा, जितना कि अब तक करता आया है. नहीं तो आपसे कट्‌टी करते मुझे देर नहीं लगेगी, हां...!

थोड़े लिखे को बहुत समझना. नशा छोड़ते ही मुझे पत्र अवश्‍य लिखना. मैं हर रोज आपकी डाक का इंतजार करूंगा...

आपका भांजा

कखग

दुःख भले ही किसी एक का हो, मगर उसका कारण आमतौर पर सार्वजनिक ही

होता है.

दुःख का सार्वजनिकीकरण लोगों को करीब लाता है. उससे घिरा आदमी समाज के साथ रहना, मिल-बांटकर जीना चाहता है. सुखी आदमी खुद को बाकी दुनिया से ऊपर समझता है, आत्‍मकेंद्रित होकर दूसरों से कटने की कोशिश करता है.

एक के बाद एक पत्र, प्रभात-फेरियां, पोस्‍टर, संध्‍या अभियान में घर-घर जाकर लोगों को नशे से दूर रहने की सलाह देना, समझाना, मनाना, उनके बीच जागरूकता लाने की कोशिश करना-बच्‍चे इन कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्‍सा ले रहे थे. पूरे शहर में उनकी गतिविधियों की ही चर्चा थी. बुद्धिजीवी उनका गुणगान करते, समाचारपत्र उनकी प्रशस्‍तियों से भरे होते. अखबार के संपादक के नाम पत्रों की निरंतर बढ़ती संख्‍या बता रही थी कि उनके प्रति लोग कितने संवेदनशील हैं. इस दौरान अखबारों की बिक्री भी बढ़ी थी. प्रसार प्रबंधक हैरान थे कि जो काम वे लाखों-करोड़ों खर्च करके नहीं कर पाए, वह बच्‍चों की चिटि्‌ठयों ने कर दिखाया. अब हर कोई उन्‍हें छापना चाहता था.

संपादक के नाम लिखी चिटि्‌ठयों में उन बच्‍चों के नाम से लिखे सैकड़ों पत्र रोज आते. कोई चाहता कि बच्‍चे उसके घर आकर उसके पिता को समझाएं. कोई बहन अपने भाई की बदचलनी से परेशान थी, वह चाहती थी कि उसकी ओर से एक पत्र उसके भाई को भी लिखा जाए. कुछ पाठकों की प्रार्थना थी कि उनकी बस्‍ती में भी इसी प्रकार प्रभात-फेरियां निकाली जाएं, ताकि वहां बढ़ रहा नशे का प्रचलन कम हो सके.

ऐसे ही पत्र में एक दुखियारी स्त्री ने संपादक के माध्‍यम से बच्‍चों को लिखा-

प्‍यारे बच्‍चो!

उम्र में तो मैं तुम्‍हारी मां जैसी हूं. आजकल मैं भी उसी तकलीफ से गुजर रही हूं जिससे तुम्‍हारी मां या बहन गुजर चुकी हैं या गुजर रही हैं. मगर मेेरे पास तुम्‍हारे जैसा कोई बच्‍चा नहीं है. इसलिए तुम्‍हीं से प्रार्थना करती हूं कि एक पत्र इनके नाम भी लिखो. मैं तो समझा-समझाकर हार गई. संभव है तुम्‍हारे शब्‍द इन्‍हें सही रास्‍ते पर ले आएं. तब शायद तुम्‍हारी यह अभागन मां भी नर्क से बाहर आ सके. मैं जीते जी तुम्‍हारा एहसान नहीं भूल पाऊंगी. भगवान तुम्‍हें कामयाबी दे.'

एक पत्र में तो लड़के का गुस्‍सा ही फूट पड़ा. अपने टूटे-फूटे शब्‍दों में उसने लिखा-

‘नशेड़ी को मुझसे ज्‍यादा कौन जान सकता है. उसके सामने कोई लाख गिड़गिड़ाए, खुशामद करे, दया की भीख मांगे, उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. मेरा पिता रोज नशे में घर आता है. पहले मां की पिटाई करता है, जो उससे चूल्‍हा जलाने के लिए रुपयों की मांग करती है. फिर मुझे मारता है, क्‍योंकि मैं भूख को सह नहीं पाता. ऐसे पिता के होन

या न होने से कोई लाभ नहीं है. जिस दिन मेरा बस चला, उसी दिन मैं उसका खून कर डालूंगा...'

एक बच्‍ची ने संपादक के नाम भेजी गई अपनी चिट्‌ठी में अपने दुःख का बयान लिखा-

भइया!

मैं आपके गुरुजी को प्रणाम करती हूं, जो आपको इतनी अच्‍छी-अच्‍छी बातें सिखाते हैं. जिन्‍होंने आपको सच कहने की हिम्‍मत दी है. भगवान करे कि सच कहने का आपको वैसा कोई दंड न मिले, जैसा कि मैं नादान भोगती आ रही हूं. मेरे पिता शराबी हैं. रोज रात को पीकर आते हैं. मां और मेरे घर के सभी छोटे-बड़ों के साथ मारपीट करते हैं.

उन दिनों मैं आठ वर्ष की थी. नहीं जानती थी कि नशे में आदमी जानवर बन जाता है. अपना-पराया कुछ नहीं सूझता उसको. एक बार पिता जी घर आए तो उनको नशे से लड़खड़ाता देखकर मैं नादान हंसने लगी. मां पिताजी के गुस्‍से को जानती थी. वह मुझे उनसे दूर ले जाने को आगे आई. मगर उससे पहले ही पिताजी ने गुस्‍से में कुर्सी का पिछला डंडा मेरी टांग में जोर से दे मारा. इतनी ताकत से कि मेरी टांग की हड्‌डी ही टूट गई. चार वर्ष हो गए. पिताजी इलाज तो क्‍या कराते, दुगुना पीने लगे हैं.

आजकल बहाना है कि चार वर्ष पहले जो गलती की थी, उसके बोझ से उबरने के लिए पीता हूं. यह मजाक नहीं तो और क्‍या है. धोखा दे रहे हैं वे खुद को, मुझको, हमारे पूरे परिवार को. चार साल से लंगड़ाकर चल रही हूं. तुम अगर मेरे पिता को समझाकर सही रास्‍ते पर ला सको तो इस लंगड़ी बहन पर बहुत उपकार होगा. नहीं तो मुझे अपना पता दो, मैं भी तुम्‍हारे अभियान में शामिल होना चाहती हूं. भरोसा रखो, बोझ नहीं बनूंगी तुमपर. जहां तक हो सकेगा मदद ही करूंगी. लंगड़े पर लोग जल्‍दी तरस खाते हैं. हो सकता है मेरे बहाने ही कोई आदमी शराब और नशे से दूर चला जाए.

अगर ऐसा हुआ तो तुम्‍हारी यह लंगड़ी बहन जब तक जिएगी, तब तक तुम्‍हारा एहसान मानेगी. और यदि मर गई तो ऊपर बैठी-बैठी तुम्‍हारी लंबी उम्र के लिए प्रार्थना करेगी.

तुम्‍हारी एक अभागिन बहन

पत्र घनी संवेदना के साथ लिखा गया था. जिसने भी पढ़ा, वही आंसुओं की बाढ़ से घिर गया. खुद को माया-मोह से परे मानने वाले बद्री काका भी भाव-विह्‌वल हुए बिना न रह सके. अगले दिन वही पत्र शहर-भर में चर्चा का विषय बना था. स्त्री-पुरुष, बच्‍चे-बूढ़े सब उस लड़की के बारे में सोचकर दुःखी थे.

शब्‍द की ताकत से बद्री काका का बहुत पुराना परिचय था. महात्‍मा गांधी के सान्‍निध्‍य में रहकर वे उसे परख चुके थे. अब वर्षों बाद फिर उसी अनुभव को साकार

देख रहे थे. बच्‍चों द्वारा चलाए जा रहे अभियान की सफलता कल्‍पनातीत थी. बावजूद इसके उन्‍हें लगता था कि वे अपनी मंजिल से अब भी दूर हैं. असली परिणाम आना अभी बाकी है.

उससे अगले ही दिन एक पत्र ऐसा छपा, जिसकी उन्‍हें प्रतीक्षा थी. पत्र पढ़ते ही बद्री काका के चेहरे पर चमक आ गई. देह प्रफुल्‍लित हो उठी. पत्र में किसी अधेड़ व्‍यक्‍ति की आत्‍मस्‍वीकृति थी. उन्‍हें वह पत्र अपने जीवन की अमूल्‍य उपलब्‍धि जान पड़ा. टूटी-फूटी भाषा में लिखे गए उस पत्र को संपादक ने प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया था. शीर्षक दिया था, मेरे पाप, जिसमें बिना किसी संबोधन के लिखा था-

‘सच कहूं तो अपने जीते जी किसी को ईश्वर नहीं माना. न स्‍वर्ग-नर्क, पाप-पुण्‍य, आत्‍मा-परमात्‍मा जैसी बातों पर ही कभी भरोसा किया. हमेशा वही किया जो मन को भाया, जैसा इस दिल को रुचा. इसके लिए न कभी माता-पिता की परवाह की, जो मेरे जन्‍मदाता थे. न भाई को भाई माना, जो मेरी हर अच्‍छी-बुरी जिद को पानी देता था और उसके लिए हर पल अपनी जान की बाजी लगाने को तत्‍पर रहता था. न उस पत्‍नी की ही बात मानी, जिसके साथ अग्‍नि को साक्षी मानकर सप्‍तपदियां ली थीं; और सुख-दुःख में साथ निभाने का वचन दिया था. न कभी बच्‍चों की ही सुनी, जिनके लालन-पालन की जिम्‍मेदारी मेरे ऊपर थी.

मन को अच्‍छा लगा तो जुआ खेला, मन को भाया तो शराब, चरस, अफीम जैसे नशे की शरण में गया. मन को भाया तो दूसरों से लड़ा-झगड़ा, यहां तक की लोगों के साथ फिजूल मारपीट भी की. मेरी मनमानियां अनंत थीं. उन्‍हीं से दुःखी होकर माता-पिता चल बसे. पहली पत्‍नी घर छोड़कर चली गई. उस समय तक भी जिंदगी इतनी चोट खा चुकी थी कि मुझे संभल जाना चाहिए था. लेकिन मेरा अहं तो हमेशा सातवें आसमान पर रहा है. उसी के कारण मैं हमेशा अपने स्‍वार्थ में डूबा रहा.

मैंने जिंदगी में सिर्फ अपना सुख चाहा, केवल अपनी सुविधाओं का खयाल रखा. बच्‍चों की पढ़ाई-लिखाई, शादी-विवाह हर ओर से मैं अपनी आंख मूंदे रहा. भूल गया कि जवान बेटी का असली घर उसकी ससुराल में होता है. भूल गया कि बेटों को पढ़ा-लिखाकर जिंदगी की पटरी पर लाना भी पिता का धर्म है. मेरा अहंकार और स्‍वार्थ-लिप्‍साएं अंतहीन थीं. बेटी से पीछा छुटाने के लिए मैंने उसे, उससे दुगुनी आयु के आदमी के साथ ब्‍याह दिया. इस कदम से उसकी मां को गहरी चोट पहुंची और वह बीमार रहने लगी. सही देखभाल न होने के कारण लड़के आवारगी पर उतर आए. पुरखों की सारी जमीन-जायदाद शराब और जुए की भेंट चढ़ गए. गहने-जेवर, बर्तन-भांडे कुछ भी बाकी नहीं रहा.

हालात यहां तक आ बने कि सप्‍ताह में तीन दिन फाका रहने लगा. सब कुछ लुटाने, बरबाद कर देने के बाद मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ. उस समय ग्‍लानिबोध में मैं घर से भाग जाना चाहता था. एक दिन यह ठानकर ही घर से निकला था कि अब वापस कभी नहीं आऊंगा. रास्‍ते में एक दुकान पर अखबार में एक बच्‍चे का पत्र पढ़ा.

फिर उस लड़की के पत्र ने तो मेरी आंखें ही खोलकर रख दीं. उसे पढ़कर तो मैं खुद को अपनी ही बेटी का हत्‍यारा मानने लगा हूं.

नशाखोर आदमी कभी नहीं सोचता कि उसकी बुरी लतों के कारण उसके परिवार पर क्‍या बीतती है. उनके जीवन, उनके मान-सम्‍मान पर कितना बुरा असर पड़ता है. उस बच्‍ची ने मुझे आईना दिखाया है. मैं उसका बहुत शुक्रगुजार हूं. हालांकि मुझे अपनी गलती का एहसास तब हुआ, जब मेरा सबकुछ लुट-पिट चुका है. कहीं कोई उम्‍मीद बाकी नहीं है. मैं उन सब बच्‍चों से मिलना चाहता हूं, जिन्‍होंने वे पत्र लिखे हैं. उनमें से हरेक से माफी मांगना चाहता हूं, क्‍योंकि मुझे लगता है कि उनकी दुर्दशा के पीछे कहीं न कहीं मेरा भी हाथ है. पर उनसे मिलने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाया हूं.

कल रात लेटे-लेटे मैंने यह फैसला किया है कि अपना बाकी जीवन में प्रायश्‍चित में ही बिताऊंगा. गांव-गांव जाऊंगा. वहां जाकर हर गली-मुहल्‍ले-चौपाल पर जाकर अपना किस्‍सा बयान करूंगा. सबके सामने अपने पापों का खुलासा करूंगा. उनसे सरेआम माफी मांगूगा. उस समय लोग यदि मुझे पत्‍थर भी मारें तो सहूंगा. तब शायद मेरा पापबोध कुछ घटे. ऐसा हुआ तो मैं उन बच्‍चों से माफी मांगने जरूर पहुंचूंगा. संभव है उस समय तक वे बड़े हो चुके हों. उनके अपने भी बाल-बच्‍चे हों. तब मैं उनके बच्‍चों के आगे जाकर दंडवत करूंगा. कहूंगा कि मैं उनके पिता का बेहद एहसानमंद हूं. उन्‍हीं के कारण मेरे पापों पर लगाम लगी थी. मेरी पाप-कथा सुनकर अगर उनमें से एक को भी मेरे ऊपर तरस आया तो मैं इसको अपनी उपलब्‍धि मानूंगा. तब तक यह धरती, यह आसमान, इस चराचर जगत के सभी प्राणी, चेतन-अचेतन मुझे क्षमा करें, मुझे इंसानियत की राह दिखाएं.

एक पापी

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(क्रमशः अगले अंकों में जारी…)

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रचनाकार: ओमप्रकाश कश्यप का बाल-उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (6)
ओमप्रकाश कश्यप का बाल-उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (6)
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