ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (3)

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“…‘मां तो कहती है कि सपनों के अंकुराने से ही भविष्‍य के फूल खिलते हैं. इसलिए आदमी को सपना देखने में कभी कंजूसी नहीं करनी चाहिए. हम गरीब सही,...

“…‘मां तो कहती है कि सपनों के अंकुराने से ही भविष्‍य के फूल खिलते हैं. इसलिए आदमी को सपना देखने में कभी कंजूसी नहीं करनी चाहिए. हम गरीब सही, पर सपने देखने पर पाबंदी क्‍यों हो, क्‍यों हम सपना देखने में भी मन को मारें?' टोपीलाल ने तर्क दिया. मां का नाम जुबान पर आते ही उसका आत्‍मविश्‍वास जोर मारने लगा, चेहरे की चमक सवाई हो गई. ऐसा अक्‍सर होता था. मां का जिक्र कहीं भी, किसी भी रूप में हो, टोपीलाल का रोम-रोम प्रफुल्‍लित हो जाता था…. ” ……..इसी उपन्यास से.

मिश्री का पहाड़

(बालउपन्‍यास)

ओमप्रकाश कश्‍यप

BPSN PUBLICATION

G-571, ABHIDHA, GOVINDPURAM

GHAZIABAD, UP-201013

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सर्वाधिकार : लेखक

मूल्‍य : 175 रुपये

प्रथम संस्‍करण : 2009

प्रकाशक : बीपीएसएन पब्लिकेशन

जी-571, गोविंदपुरम्‌,

गाजियाबाद-201013

आवरण संयोजन : लेखक

कंप्‍यूटरीकृत : लेखक

Mishri Ka Pahad (Novel) : by Omprakash Kashyap

Price : Rs. - 175.00

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सहसा पड़ोस से किसी के चीखने की आवाज आई. आवाज साफ नहीं थी. मुझे भी खेल को देर हो रही थी, इसलिए मैं अपने काम में लगा रहा. कुछ देर बाद ही बराबर के घर से रोने की आवाज आने लगी. मैंने लोगों को उस ओर दौड़कर जाते हुए देखा. झाड़ू फर्श पर पटककर मैं भी बाहर की ओर भागा.

मजदूर और कारीगर जहां काम करते हैं, वहीं पर अपने लिए छोटी-छोटी झुग्‍गियां बना लेते हैं. बिना किसी भेदभाव के. मजदूरों और चिनाई मिस्त्रियों की झुग्‍गियां बराबर-बराबर बनी होतीं. हमारी झुग्‍गी के बराबर में ही एक मजदूर की झुग्‍गी थी. गांव से भागकर धंधे की तलाश में वह शहर पर आया था. जब कोई दूसरा काम नहीं मिला तो मजदूरी करने लगा.

मां बताया करती थी कि उनपर गांव के किसी महाजन का कर्ज है. उसे उतारने के लिए ही पति और पत्‍नी दोनों मजदूरी करते थे. उनका दो साल का एक बेटा था. दिन में वह कुछ देर हमारे साथ खेलता. दोपहर के समय उसे नींद आने लगती तो उसकी मां बीच में आकर उसको सुला जाती. कुछ समय तक हम भी उसकी ओर से निश्‍चिंत हो जाते थे.

उस दिन उसकी मां उसे सुलाकर गई ही थी. इसलिए मैं उसकी ओर से बेफिक्र होकर अपने काम में लगा था. उसकी चीख को अनसुना करने के पीछे एक कारण यह भी था. लेकिन...' टोपीलाल चुप हो गया. मानो अपनी गलती पर अफसोस कर रहा हो.

‘आगे क्‍या हुआ?' निराली जिज्ञासु बनी थी, चुप्‍पी उसको खलने लगी.

‘उस दिन उसकी मां बच्‍चे को सुलाने के बाद काम पर चली गई थी. वह उसकी ओर से निश्‍चिंत थी. लेकिन न जाने कैसे बच्‍चे की नींद उचट गई. वह उठकर चूल्‍हे के पास चला गया. राख के नीचे आग दबी थी. बच्‍चा चिमटा उठाकर उसी से खेलने लगा. खेल-खेल में एक चिंगारी उछलकर बच्‍चे के कपड़ों पर आ गिरी. तपिश लगने से वह रोने लगा. आग की कुछ चिंगारियां उछलकर कपड़ों तक भी पहुंची थीं, जिनसे धुआं उठने लगा. उसे देख बाहर काम कर रहे किसी मजदूर का माथा ठनका. वह फौरन भीतर भागा. उसने फटाफट जाकर आग पर काबू किया. बच्‍चा भी काफी झुलस गया था.'

‘इसमें तुम्‍हारा क्‍या दोष है?' निराली ने पूछा. उसे साथ चल रहा टोपीलाल इतना भला लग रहा था कि उसपर संदेह करना भी मुश्‍किल लग रहा था.

‘गलती कैसे नहीं थी, उस दिन अगर मैं बच्‍चे की पहली चीख सुनते ही उसके घर चला जाता तो संभव है कि उसको झुलसने से भी बचा लेता. मेरी ही गलती से...'

‘इसलिए मेरी चीख सुनते ही आज तुम फटाफट दौड़कर चले आए.'

‘आदमी अपनी गलती से भी सीखता है, मेरी मां बिलकुल सही कहती है?'

‘आदमी जब गलतियों से भी सीखता है तो जरा-सी भूल होने पर शर्म कैसी?' निराली ने निराला तर्क दिया.

‘कभी-कभी गलती सुधारने में बहुत देर हो जाती है.' दुःखी मन से टोपीलाल ने कहा.

‘अच्‍छा उस ओर मुड़ जाओ. मेरी मां वहीं बैठती है.' और टोपीलाल बिना कुछ कहे जिधर निराली ने इशारा किया था, उसी ओर मुड़ गया.

अगर मन साफ हो तो अच्‍छे मित्र राह चलते हुए भी मिल जाते हैं. काफी सोचने के बाद उस दिन निराली इसी नतीजे पर पहुंची. -

वह गलत थोड़े ही थी.

टोपीलाल के रूप में निराली को एक अच्‍छा दोस्‍त मिला; और सच्‍चा हमदर्द भी. उम्र में वह टोपीलाल से एक-दो वर्ष कम ही होगी. किंतु टोपीलाल से मिलने से पहले वह गुमसुम और खोई-खोई रहती थी. चेहरे पर पीलापन छाया रहता. टोपीलाल के साथ रहकर उसकी उदासी छंटने लगी. जिसका असर उसके शरीर पर भी पड़ा. उसपर निखार आने लगा. एक दिन टोपीलाल से मिली तो बहुत प्रसन्‍न लग रही थी. टोपीलाल उसकी ओर देखता ही रह गया.

‘मैंने एक फैसला किया है.'

‘कैसा फैसला?'

‘सोचती हूं कि कुछ काम करने लगूं. इससे मैं अपनी मां की और अधिक मदद कर सकती हूं.'

टोपीलाल को अच्‍छा लगा. उस यह सोचकर दुःख भी हुआ कि उसने स्‍वयं कभी अपने माता-पिता की मदद करने के बारे में नहीं सोचा. कभी ऐसा कोई विचार तक दिमाग में नहीं आया. अगर आया भी तो निकाल बाहर किया. निराली अपनी मां की मदद करना चाहती है, इसलिए वह उससे अच्‍छी है. जो बच्‍चे किसी भी प्रकार से दूसरों की मदद करना चाहते हैं, वे अच्‍छे ही होते हैं.

‘काम क्‍या करोगी?' टोपीलाल के प्रश्‍न पर निराली ने मुंह लटका लिया. मानो सकुचा रही हो.

‘तुमने जवाब नहीं दिया?' टोपीलाल ने खुद को दोहराया.

‘हमारी बस्‍ती की कई लड़कियां कबाड़ चुनने जाती हैं, सोचती हूं मैं भी उन्‍हीं के साथ जाने लगूं. काम बहुत अच्‍छा नहीं है. आदमी तो आदमी कुत्ते भी दुतकारे बिना नहीं रहते. लेकिन यदि मैं मां की मदद करने की ठान ही लूं तो कोई भी काम मुझे बुरा नहीं लगेगा. फिर धीरे-धीरे आदत तो पड़ ही जाती है.' कहकर वह चुप हो गई. टोपीलाल की प्रतिक्रिया का इंतजार करने लगी. टोपीलाल खुद सोच में पड़ा था. निराली इतना गहरा सोच सकती है, उसे कतई उम्‍मीद न थी.

‘कबाड़ बीनने के अलावा क्‍या किसी और काम के बारे में भी सोचा है?' कुछ देर बाद टोपीलाल ने पूछा.

‘मुझे कोई और काम आता कहां है. मां गलत थोड़े ही कहती है कि मैं सिर्फ घर पर रहकर रोटियां तोड़ सकती हूं.'

‘मां के कहे का बुरा क्‍यों मानती हो, दिन-भर काम करते-करते वे बहुत थक जाती होंगी.'

‘काम तो तुम्‍हारी मां भी करती हैं. चिनाई का काम तो एक जगह बैठकर सौदा बेचने से कहीं ज्‍यादा मेहनत का है.'

‘गुस्‍सा आने पर तो मां भी नाराज होती है. लेकिन उनके गुस्‍से का शिकार पिताजी को होना पड़ता है. मुझसे तो मां बहुत प्‍यार करती है.' टोपीलाल की गर्दन अभिमान से तन गई. मगर निराली की उदासी और भी बढ़ गई. टोपीलाल कुछ समझ न पाया. वह जान न सका कि अनजाने ही उसने निराली के दुःख को हरा कर दिया है. तो भी उसको लग रहा था कि उसने कुछ गलत कहा है.

‘काम तो कोई भी बड़ा या छोटा नहीं होता, लेकिन...' कहते-कहते टोपीलाल चुप हो गया.

‘क्‍या तुम नहीं चाहते कि मैं कोई काम करूं?' निराली ने पूछा.

‘जरूर करना चाहिए. यदि मकसद नेक है तो इसमें कुछ भी बुराई नहीं है. परंतु मेरी मां कहा करती है कि हम बच्‍चों को बड़े-बड़े सपने देखने चाहिए. भले ही वे उस समय हकीकत में तब्‍दील ना हो पाएं.'

‘अगर सच न हो पाएं तो ऐसे सपने देखने का लाभ ही क्‍या?' निराली ने बीच ही मैं टोक दिया. टोपीलाल के पास जवाब एकदम तैयार था.

‘मां तो कहती है कि सपनों के अंकुराने से ही भविष्‍य के फूल खिलते हैं. इसलिए आदमी को सपना देखने में कभी कंजूसी नहीं करनी चाहिए. हम गरीब सही, पर सपने देखने पर पाबंदी क्‍यों हो, क्‍यों हम सपना देखने में भी मन को मारें?' टोपीलाल ने तर्क दिया. मां का नाम जुबान पर आते ही उसका आत्‍मविश्‍वास जोर मारने लगा, चेहरे की चमक सवाई हो गई. ऐसा अक्‍सर होता था. मां का जिक्र कहीं भी, किसी भी रूप में हो, टोपीलाल का रोम-रोम प्रफुल्‍लित हो जाता था.

‘सिर्फ सपने! बड़ी अजीब बात है. मेरी मां तो कहती है कि आदमी को पांव उतने ही पसारने चाहिए जितनी कि उसकी चादर हो.'

‘अरे! यही प्रश्‍न तो मैंने अपनी मां से किया था, जब उन्‍होंने बड़े से बड़ा सपना देखने को कहा था. तब जानती है उन्‍होंने क्‍या कहा?'

‘मैं कैसे बता सकती हूं!' निराली के चेहरे पर मासूमियत छा गई.

‘तब मां ने कहा था कि ठीक है, आदमी को अपने पांव उतने ही पसारने चाहिए जितनी कि उसकी चादर है. मगर यह सपना तो वह देख ही सकता है कि आने वाले दिनों में वह बड़ी चादर जरूर खरीद लेगा...फिर एक घर होगा, चारपाई होगी, जिसपर दिन-भर की मेहनत के बाद वह आराम से सो सकेगा. बच्‍चों के अच्‍छे भविष्‍य के लिए योजनाएं बना सकेगा.'

‘हां, चादर बड़ी करने का सपना देखना तो कोई गुनाह नहीं है.' निराली ने सहमति जताई.

‘पर मां के सामने मैंने इस बात को आसानी स्‍वीकार नहीं किया था.'

‘क्‍यों...?'

‘उस समय मेरा मन था कहानी सुनने का; और मां के पास हर स्‍थिति को समझाने के लिए कहानी तैयार रहती है.'

‘तो कहानी सुनाई थी, उन्‍होंने?'

‘हां!' कहते हुए टोपीलाल मुस्‍करा दिया.

‘कहानियां तो मुझे भी बहुत अच्‍छी लगती हैं. चलो आज का काम यहीं पूरा करते हूं. वहां पेड़ की छाया में बैठते हैं. तुम मुझे वह कहानी सुनाओ?'

न जाने क्‍यों टोपीलाल को निराली का साथ अच्‍छा लगता था. उनकी जान-पहचान

तो कुछ ही दिनों की थी, मगर लगता जैसे कि वह वर्षों पुरानी हो. इसलिए जब निराली ने कहानी सुनाने को कहा तो वह खुशी-खुशी तैयार हो गया. दोनों सड़क किनारे खडे़ जामुन के पेड़ के नीचे जा बैठे.

‘कहानियां कहना तो सिर्फ मां को आता है, मैं तो उसको बता ही सकता हूं. उसमें तुम्‍हें वह आनंद नहीं आएगा, जो मुझे मां के मुंह से सुनने में आता है.' टोपीलाल ने बताया. निराली बस मुस्‍कुरा दी.

टोपीलाल ने सुनी-सुनाई कहानी आरंभ कर दी-

एक सेठ के दो लड़के थे. सेठ भला आदमी था. बेटे थे आज्ञाकारी. उसने आम आदमी का सादा-सरल जीवन जिया था. मृत्‍यु करीब आई तो उसने अपने दोनों बेटों को पास बुलाकर कहा, ‘इस छोटे-से गांव में रहकर मैंने अपनी मेहनत और सादे चलन के बाद जो बचाया है, उसको दो हिस्‍सों में बांट दिया है. आधा-आधा धन इन दो हांडियों में बंद है. मैं चाहता हूं कि इनमें से एक-एक को तुम दोनों मेरे जीते जी संभाल लो, ताकि बाद में तुम्‍हारे बीच किसी भी प्रकार का झगड़ा न हो.'

इतना कहकर सेठ ने पलंग के नीचे रखी हांडियों पर से कपड़ा हटा दिया. वहां एक ही रंग और आकार की दो हांडियां रखी थीं. दोनों भाई उनमें से एक-एक उठाकर चलने लगे तो सेठ ने टोका-

‘मेरी आखिरी बात और सुन लो...अगर मन भाए तो अमल करना, नहीं तो बिसरा देना.' दोनों बेटों के रुकने पर सेठ ने कहा-‘मेरे गुरुजी कहा करते हैं-नंगे पांव चलना, सपने बड़े देखना. इन शब्‍दों को मैं तो अपने जीवन में पूरी तरह से उतार नहीं पाया. तुम अगर उतार सको तो मैं समझूंगा कि मेरी गुरुदक्षिणा मेरे बेटों ने चुका दी.'

दोनों बेटे पिता के इन शब्‍दों को मन ही मन दोहराते हुए वापस लौट आए. कुछ ही दिनों के बाद सेठ चल बसा. उसके बाद दोनों अपना-अपना धंधा संभालने लगे.

पिता के शब्‍दों का दोनों बेटों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ा था. बड़े बेटे ने पांव में जूतियां डालना छोड़ दिया था. पिता की बात पर अमल करने के लिए वह हमेशा नंगे पांव रहता. उसी तरह आता-जाता. शाम ढलते ही वह बिस्‍तर पर चला जाता. फिर अगले दिन बांस-भर सूरज ऊपर चढ़ने के बाद ही आंखें खोलता. धीरे-धीरे उसका धंधा पिटने लगा. परेशानी और चिंता बढ़ी तो देह की आब घटने लगी. शरीर दिनोंदिन क्षीण पड़ने लगा. उधर छोटा बेटा मोटा पहनता, मोटा ही खाता. चुपचाप अपने काम में डूबा रहता. उसका धंधा बढ़ता ही जा रहा था.

बड़े की बीमारी जब लंबी खिंचने लगी तो उसकी पत्‍नी ने वैद्य को बुलवाया. वैद्य ने रोगी की नाड़ी की जांच की. कुछ समझ में नहीं आया तो पूछा-

‘नाड़ी तो ठीक ही लगती है, परेशानी क्‍या है?'

‘मैं बहुत तकलीफ में हूं. खाना-पीना कुछ भी अच्‍छा नहीं लगता. न भूख लगती

है, न प्‍यास. नींद न रात को ढंग की आती है, न दिन को?'

‘ऐसी कौन-सी चिंता खाए जा रही है, जहां तक मुझे मालूम है, मरने से पहले सेठजी तुम दोनों भाइयों के लिए ठीक-ठाक संपत्ति छोड़ गए हैं.'

‘वह तो ठीक है पर...' बड़े लड़के ने हामी भरी. वैद्यजी उसके चेहरे पर नजर गड़ाए हुए थे. यह देख वह आगे बताने लगा, ‘मरने से पहले बाबू जी ने कहा था-नंगे पांव रहना, सपने बड़े देखना. मैंने उसी दिन से जूतियां पहनना छोड़ दिया. रोज यह सोचकर सोता हूं कि आज की रात खूब बड़ा सपना देखूं. लेकिन क्‍या करूं...अव्‍वल तो नींद ही नहीं आती. और जब आती है, तो बहुत डरावने सपने आते हैं. भय से देह पसीना-पसीना हो जाती है. नींद बीच ही में टूट जाती है, और उसके बाद तो सो भी नहीं पाता. बड़ा बेटा होकर भी मैं पिताजी की आखिरी इच्‍छा पूरी नहीं कर पा रहा हूं. बस यही चिंता मुझे खाए जा रही है. इसकी कोई दवा हो तो आप बताएं.'

अनुभवी वैद्य रोग की थाह तो पा गए, लेकिन कहा कुछ नहीं. कहने से पहले वे खुद को परख लेना चाहते थे, ‘बेटा, मैं तो सीधा-सादा वैद्य हूं. वर्षों पहले बड़े वैद्यजी ने जो सिखाया था, उसी के सहारे लोगों के काया-कष्‍ट दूर करने का काम करता हूं. तुमने जो कहा, उसके बारे में तो बड़े वैद्यजी ने मुझे कुछ नहीं बताया था. पर मैं इतना जानता हूं कि तुम्‍हारे पिता बहुत गुणी इंसान थे। उनकी बात का कोई न कोई सार तो जरूर होगा. मुझे विणज-व्‍यौपार का जरा-भी अनुभव होता तो कुछ उपचार सोचता. हां, कोशिश जरूर करूंगा. यदि कुछ समझ पाया तो आज से ठीक पंद्रहवें दिन हाजिर हो जाऊंगा. उस समय तक यदि किसी और से सलाह लेना चाहो तो तुम्‍हारी मर्जी.'

इतना कहकर वैद्यजी वहां से प्रस्‍थान कर गए.

बाहर निकलकर उन्‍होंने सोचा कि अब छोटे भाई को भी परख लिया जाए. व्‍यापारी की बात का अर्थ कोई व्‍यापारी ही भली-भांति बूझ सकता है. सेठ के दो बेटे हैं. मरने से पहले उसने अपने छोटे बेटे से भी वही शब्‍द कहे होंगे. वैद्यजी को मालूम था कि छोटा बेटा दिनोंदिन तरक्‍की कर रहा है. इस बोध के साथ ही उनके चेहरे पर उत्‍साह छा गया. मन में जिज्ञासा और कौतूूहल लिए वे सेठ के छोटे बेटे से मिलने चल दिए.

छोटा बेटा अपनी गद्दी पर ही विराजमान था. वैद्यजी को देखा तो उठकर खड़ा हो गया. स्‍वागत किया, बिठाया. उस समय वह पांव में साधारण-सी जूतियां पहने हुए था. कपड़े भी स्‍वच्‍छ एवं साधारण थे. चेहरे पर भली मुस्‍कान थी. मन को खींचने वाली.

‘सेठजी के जाने के बाद अच्‍छी तरक्‍की की है?' वैद्यजी ने बात आरंभ की.

‘जी नहीं, मुझे उनके जैसा बनने में तो अभी बहुत समय लगेगा.'

‘मैंने तो सुना है कि तुम्‍हारा व्‍यापार दूर-दूर तक फैला हुआ है?'

‘सो तो है, पर दुनिया बहुत बड़ी है. आकाश में भले ही मत उड़ो, पर आगे बढ़ने लिए धरती पर ही इतने कोने बाकी हैं, जहां तक, मुझे लगता है कि पिताजी का नाम जाना

ही चाहिए.'

‘सेठजी तो बहुत संतोषी जीव थे.' वैद्यजी ने हैरानी जताई.

‘जी हां, ईमानदारी से कमाना, खूब मेहनत करना और अपनी ही कमाई में संतोष रखना हमें उन्‍होंने ही सिखाया था.' छोटे बेटे के स्‍वर में विनम्रता थी, आंखों में आत्‍मविश्‍वास. वैद्य जी के चेहरे पर मुस्‍कान छा गई. छोटे बेटे को कोई संदेह न हो, इसलिए वे उठकर प्रस्‍थान कर गए. इसके बाद वे रोज उसके पास जाते. बातचीत करते और चुपचाप वापस लौट आते. हर बार वे देखते कि छोटे बेटे की कथनी और करनी में कोई भेद तो नहीं है.

पूरी तरह आश्‍वस्‍त होने के बाद, ठीक पंद्रहवें दिन वे बड़े बेटे के पास पहुंच गए. इस बीच उसके चेहरे का पीलापन और भी बढ़ गया था. देह कमजोर होकर चारपाई से जा लगी थी. उस समय वह चारपाई पर पड़ा था. उसकी पत्‍नी सिरहाने बैठकर पंखा झल रही थी. वैद्य जी के पहुंचते ही वह रोने लगी. उसे ढाढ़स बँधाते हुए वैद्य जी बराबर में पड़ी चौकी पर बैठ गए.

‘घबराओ मत, इनके उपचार के लिए मैंने बड़े वैद्य जी की पोथियों को छान मारा. और कुदरत का करिश्‍मा देखिए कि आज से पचास साल पहले ठीक ऐसा ही मामला बड़े वैद्य जी के सामने भी आया था. तब उन्‍होंने मिश्री पाक द्वारा रोगी का उपचार किया था. तीसरे ही दिन वह रोगी दौड़ लगाने लगा था.'

‘मिश्री पाक?' बड़े बेटे की पत्‍नी ने कहा, ‘इस बारे में मैंने कभी नहीं सुना.'

‘सुनती कैसे बेटी. बड़े वैद्य जी तो तेरे जन्‍म से पंद्रह वर्ष पहले ही स्‍वर्ग सिधार चुके थे. उनके बाद न तो किसी की निगाह में ऐसा विचित्र रोग आया, न कोई ऐसे उपचार के बारे में सोच ही पाया. पर एक समस्‍या है, मिश्री पाक बनाने की विधि बहुत जटिल है, बेटी!'

‘आप कहें तो वैद्य जी. इस रोग से छुटकारा पाने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं.'

‘बताऊंगा? मैंने तुम्‍हारे छोटे भाई को भी बुलवाया है. वह बस आता ही होगा.'

उसी समय सेठ के छोटे बेटे ने प्रवेश किया. तब वैद्यजी ने बताने लगे, ‘मिश्री पाक बनाने के लिए परस्‍पर विपरीत दिशा में स्‍थित दो गांवों के कुओं का जल लाना होगा. शर्त यह है कि उन कुंओं से पहले किसी ने एक भी बूंद जल न लिया हो. मुझे तैयारी करने में पंद्रह दिन लगेंगे. उससे पहले तुम दोनों भाइयों को जल लेकर पहुंचना होगा.'

दोनों भाई जाने लगे तो वैद्य जी ने कहा, ‘एक बात और ध्‍यान से सुनो, जल लाने के लिए तुम दोनों अलग-अलग दिशा में प्रस्‍थान करोगे और जब तक निवासे कुंए का जल नहीं मिल जाता, तब तक आपस में कोई संपर्क नहीं रखोगे.'

‘मेरी समझ में आपकी कोई बात नहीं आ रही.' जाने से पहले छोटे भाई ने कहा,

‘लेकिन मेरी खुशी बड़े भइया को स्‍वस्‍थ देखने में है. इसलिए जैसा आप चाहते हैं, वही होगा.'

इसके बाद बड़े भाई ने पूर्व की दिशा पकड़ी. छोटा भाई पश्‍चिम की ओर चल पड़ा. पंद्रह दिन बाद हाजिर होने को कहकर वैद्यजी अपने घर की ओर प्रस्‍थान कर गए.

ठीक पंद्रहवें दिन पहले बड़े भाई ने प्रवेश किया. उसकी हालत और भी बिगड़ चुकी थी. चेहरा धूप से काला पड़ चुका था. उसके अवसादग्रस्‍त चेहरे से कोई भी अनुमान लगा सकता था कि मौत उसके चेहरे पर नाच रही है. आते ही वह धम से चारपाई पर पड़ गया.

‘मिश्री पाक के लिए सारी सामग्री तैयार है...निवासे कुएं का जल मिला?' वैद्यजी ने प्रवेश करते हुए पूछा.

‘जाने दीजिए. मैं जानता हूं कि अब कुछ नहीं हो सकता. अब केवल मौत ही मुझे इस बीमारी से छुटकारा दिला सकती है.' यह सुनते ही उसकी पत्‍नी की रुलाई फूट गई.

‘निराश क्‍यों होते हो, तुम्‍हारे रोग में मिश्री पाक रामवाण औषधि है. खाते ही चंगे हो जाओगे. तुम्‍हारा छोटा भाई भी आता ही होगा. तुम फटाफट जल दो ताकि मैं मिश्री पाक तैयार कर सकूं.'

‘कहा नहीं कि अब कुछ नहीं हो सकता,' बड़े बेटे के स्‍वर में छिपी निराशा बोल उठी. निवासे कुंए का जल लेने के लिए मैं पूर्व दिशा में पूरे सौ कोस तक गया. एक-एक गांव छान मारा. मगर कहीं भी ऐसा कुंआ नहीं मिला, जो निवासा हो, जिसके जल को पहले किसी ने प्रयोग न किया हो. इसलिए मैं मान चुका हूं कि अब मेरी मौत पक्‍की है. वही मुझे इस लाइलाज बीमारी से मुक्‍ति दिला सकती है.'

यह सुनकर बड़े की पत्‍नी जोर-जोर से रोने लगी. उसी समय सेठ के छोटे बेटे ने घर में कदम रखा. उसके सिर पर घड़ा था. देह सिर से पांव तक तर, चेहरे पर थकान के भाव थे, पर मंजिल तक पहुंचने का उल्‍लास भी कम नहीं था-‘माफ करना वैद्य जी, मैं आ ही रहा था कि एक व्‍यापारी टकरा गया. दिसावर में व्‍यापार जमाने की बात करने लगा. उससे बात करने में थोड़ी देर हो गई. मैं निवासे कुंए का जल ले आया हूं. कम हो तो चिंता मत करना. जितना कहोगे, और मंगवा दूंगा.'

‘तुम कहां से ले आए? तुम्‍हारे बड़े भाई को तो सौ कोस तक एक भी निवासा कुंआ नहीं मिला.' वैद्य जी ने हैरानी जताई.

इसपर छोटा बेटा मुस्‍करा दिया, बोला-‘मैं जानता था कि अगर कुंआ है तो वह निवासा क्‍यों होगा. मुझसे पहले तो किसी न किसी ने उससे जल लिया ही होगा. इसलिए ऐसे कुंए की खोज में जाना ही बेकार था.'

‘फिर तुमने क्‍या किया?'

‘करना क्‍या था. पंद्रह दिनों तक व्‍यापार से अलग रहना भी उचित नहीं था, इसलिए

मैंने पश्‍चिम दिशा में जो भी पहला गांव पड़ा, वहीं कुंआ खुदवाना शुरू कर दिया. उसी गांव में टिककर अपना काम भी देखता रहा. आज सुबह जैसे ही पानी निकला, सबसे पहले आपके लिए ले आया.'

‘शाबाश बेटा! मैं जानता था कि तुम यही करोगे.' वैद्य जी बोले. उसके बाद वे बडे़ बेटे की ओर मुड़कर कहने लगे, ‘देखा, भाषा तो एक माध्‍यम होती है. जरूरी नहीं कि हम जो कहना चाहते हैं, उसको ठीक-ठीक शब्‍दों में व्‍यक्‍त कर ही सकें. मन में छिपी बात को बाहर लाने में कभी-कभी भाषा भी पीछे रह जाती है. उस समय शब्‍दों का सीधा अर्थ न लेकर उनके निहितार्थ को पकड़ना पड़ता है. जो सिर्फ शब्‍दों के प्रकट अर्थ के फेर में रहते हैं, वे अक्‍सर नाकाम जाते हैं. मरने से पहले बड़े सेठजी ने जो तुमसे कहा था, उसका अभिप्राय...'

‘रहने दीजिए वैद्य जी, मुझे अपनी गलती का एहसास हो चुका है.' बड़े भाई ने कहा. उसके बाद वह संभलने लगा. कुछ दिनों के बाद उसका व्‍यवसाय भी पटरी पर आने लगा.

‘कुछ समझीं...!' कहानी पूरी करने के बाद टोपीलाल ने निराली से पूछा.

‘और नहीं तो क्‍या धरती पर तुम्‍हीं अकेले समझदार हो.' कहकर निराली हंस दी, ‘बहुत देर हो चुकी है. अब मैं चलूंगी. मां घर पहुंचने ही वाली होगी.'

‘मैं भी चलता हूं. बस्‍ती के बच्‍चे इधर-उधर भटक रहे होंगे. किसी को कुछ हो गया तो मां डांटेगी.' टोपीलाल चलने को हुआ. तभी पीछे से निराली ने टोक दिया-

‘सुनो!'

‘राह चलते को टोकना अच्‍छा नहीं होता, बात क्‍या है?' टोपीलाल ने नकली गुस्‍से का प्रदर्शन किया.

‘आज के बाद किसी से यह मत कहना कि तुम्‍हें कहानी सुनाना नहीं आता. तुम्‍हारी मां बहुत बड़ी किस्‍सागो होंगी. पर तुम भी कुछ कम नहीं हो. आगे मां जो भी कहानी सुनाए, वह मुझे जरूर सुनाना.'

‘कहानी को सुनना-कहना जितना आसान है, उसको गुनना उतना ही कठिन. कभी-कभी तो कई दिन, बल्‍कि महीनों निकल जाते हैं कहानी की गहराई तक पैठने में, फिर भी उससे पेश नहीं जाती. हर बार कुछ न कुछ छूट ही जाता है.'

कहकर टोपीलाल पलटा और तेज कदमों से अपने घर की ओर चल दिया.

कहानी सुनने से मुश्‍किल होता है, कहानी को गुनना-क्‍या टोपीलाल ने गलत कहा था?

बिलकुल नहीं, टोपीलाल ने जो कहा, वह मां के मुंह से कई कहानियां सुनने और गुनने के बाद ही कहा था. उसको हमेशा लगता कि हर कहानी के पीछे एक कहानी होती है.

उस तक तभी पहुंचा जा सकता है, जब कहानी को गुनने की कला भी आती हो. पर आदमी चाहे कितना ही बुद्धिमान क्‍यों न हो. कहानी को एक बार में गुनना कहां संभव हो पाता है! यह प्रक्रिया तो हर समय चलती रहती है. कभी मंद होती है, कभी तेज. कभी लगातार सोचने पर भी कोई परिणाम नहीं निकलता तो कभी भीतर से ज्ञान का -ोत अचानक फूट पड़ता है.

किसी कहानी को सुनने-गुनने के बाद आदमी को लग सकता है कि वह उसके बारे में पर्याप्‍त बातें जान चुका है. लेकिन अगली बार जब भी वह कहानी से गुजरता है, वही कहानी उसको एक झटका दे सकती है, चौंका सकती है. कुछ इतना कि आदमी कह उठे-

‘अरे! इस बारे में तो मैंने सोचा ही नहीं था...यह तो एकदम अनूठी बात हुई, वाह!'

शब्‍दों को गुनना...खुद को उसके अर्थ से पूरी तरह परचाना...उसकी पर्तों को खोलना, उनकी तह तक जाना बड़ा ही कठिन, एक चुनौती की तरह होता है. निराली को कहानी सुनाने के बाद टोपीलाल वहां से उठा तो कुछ इसी प्रकार सोच रहा था. जब उसने मां मुंह से यह कहानी सुनी थी, तब भी इसने उसको प्रभावित किया था. कहानी के बाद बातों-बातों ने मां ने उसके बारे में समझाया भी था. उसका प्रभाव उसके दिलो-दिमाग पर अभी तक था.

आज, निराली को कहानी सुनाने के बाद उसको लगा कि आज से पहले उसने कहानी को सुना-भर था, गुन नहीं पाया था.

सेठ की कहानी का अभी तक उसके लिए यही संदेश था कि आदमी को बड़े से बड़ा सपना देखना चाहिए. ऊंची उड़ान भरने का मनोरथ पालना चाहिए. पर आज एक और पर्त खुली कि भाषा केवल एक माध्‍यम होती है. वह अपने शब्‍दों द्वारा सीधे-सीधे जो संदेश देना चाहती है, जरूरी नहीं कि उसका मकसद वही हो. वह एकदम अलग भी हो सकता है.

कि शब्‍द प्‍याज के छिलकों की भांति होते हैं. कभी हम उनके स्‍वाद का एक अंश जान पाते हैं, कभी उनकी गंध का कोई एक अंश. कभी उनके स्‍वाद और गंध के थोडे़-थोड़े अंश से हमारा परिचय हो जाता है. किसी भी क्षण में हम न प्‍याज के स्‍वाद को पूरी तरह भोग पाते हैं, न उसकी गंध को. यही हमारी सीमा है. यही हमारी भाषा की भी सीमा है.उस समय बाकी का काम हमें अपने अनुभव और विवेक से चलाना पड़ता है.

कि शब्‍दों का मतलब निकालना केवल शब्‍दों पर नहीं, उन्‍हें सुनने-पढ़ने वाले पर भी निर्भर होता है. कि शब्‍दों में छिपा अर्थ तो अधूरा होता है. श्रोता और पाठक उसको पूरा करते हैं. अपनी-अपनी तरह से, अपने अनुभव और विवेक के अनुसार.

कभी-कभी टोपीलाल को लगता है कि उसकी मां उसको यूं ही उलझा देती है. कभी सोचता कि अनपढ़ मां के दिमाग में इतनी भारी-भरकम बातें कहां से आ जाती हैं!

‘जिंदगी के अनुभव से?' उसे याद आता है, मां ने एक बार यही कहा था. तो क्‍या

ऐसा नहीं हो सकता कि कोई बात पढ़ते या सुनते ही उसके सभी अर्थ सीधे दिमाग में उतरते चले जाएं. सोचने-समझने में एक भी पल गंवाए बिना. गुनने की तो जरूरत ही न पड़े. कितना अच्‍छा हो अगर उसके पास यह शक्‍ति आ जाए.

टोपीलाल फिर कल्‍पना में उड़ने लगा. चलते-चलते उसको लगा कि उसके पास एक ऐसी ताकत आ चुकी है, जिससे वह एक झटके में चीजों की गहराई में उतर सकता है. पलक झपकते बड़ी-बड़ी पहेलियां हल कर सकता है. मां और बापू हैरान हैं. मां की प्रसन्‍नता का तो ठिकाना ही नहीं है. लोग उसके पास बड़ी-बड़ी पहेलियां लेकर आते हैं. जिन्‍हें वह चुटकी बजाते हल कर देता है.

टोपीलाल के पास चीजों को समझने की जादुई ताकत है, चारों ओर यह बात फैल जाती है. यह विचार ही टोपीलाल के चेहरे को उजास से भर देता है.

घर लौटा तो बापू सामने ही दिख गए. चारपाई पर लेटे हुए. मां उस समय काम पर थी. पता चला कि तबियत खराब होने के कारण बापू ने आधे दिन की छुट्‌टी की है. टोपीलाल के दिमाग में विचारों का तांता लगा था. अपने पिता से वह कम ही बोलता था. कुछ कहना होता तो मां के माध्‍यम से कहलवा देता. पर उस समय वह सीधे उन्‍हीं के पास पहुंच गया-

‘बापू, अनुभव क्‍या होता है?' उसने दिमाग में चल रही उथल-पुथल का समाधान चाहते हुए कहा.

‘चल हट! न जाने कहां-कहां अपना दिमाग दौड़ाता रहता है...!' आशा के विपरीत बापू ने डपट दिया. टोपीलाल का मन बुझ-सा गया. वह जाने को हुआ कि पीछे से बापू की आवाज कान में पड़ी-

‘छोटी उम्र के बच्‍चों के साथ रहकर तू अभी तक खुद को बच्‍चा ही समझता है. जबकि तेरी उम्र के लड़के काम-धंधे में अपने मां-बाप का हाथ बंटाते हैं. खाली दिमाग शैतान का घर. कल से मेरे साथ चलना, कहीं हल्‍का-फुल्‍का काम दिलवा दूंगा.'

जिस बहुमंजिला इमारत का निर्माण चल रहा था, उसका मालिक इमारत के चारों ओर पार्क बनवा रहा था. उसके लिए घास बिछाने और पेड़-पौधे लगाने का काम चल रहा था. टोपीलाल रोज देखता कि माली के साथ उसका बेटा भी पौधों की देखभाल करने, पानी लगाने के लिए आता है. उसको काम करते देखना उसको बुरा नहीं लगता.परंतु इस विचार के साथ उसका दिल बैठता चला गया. इसलिए नहीं कि वह काम से जी चुराता था. इसलिए कि जिंदगी को लेकर उसका सपना कुछ और ही था.

‘मैं तो पढ़ना चाहता हूं बापू!' टोपीलाल ने अनुभव किया कि उसकी भाषा में तल्‍खी थी. इतना जोर देकर उसने बापू से कभी बात नहीं की थी. मां सुन लेती तो उसकी खूब खबर लेती. अपनी भाषा की गरमी से वह खुद ही घबरा गया; और बापू की प्रतिक्रिया जाने बिना बाहर निकल आया.

शाम हो चुकी थी. किंतु अंधेरा अभी दूर था. वह सीधा सड़क पर पहुंचा और निरुद्‌देश्‍य-सा एक ही दिशा में बढ़ने लगा. अपनी ही धुन में. बढ़ता गया, बढ़ता ही गया. आगे और आगे. स्‍ट्रीट लाइटें जलीं तो उसको एहसास हुआ कि वह घर से काफी आगे आ चुका है. उसका मन घबराने लगा.

वापस मुड़ते समय टोपीलाल की निगाह पार्क के बीचों-बीच बनी एक मूर्ति पर पड़ी. उसको कुछ दिन पाठशाला जाने का अवसर मिला था. उस अवधि में उसने अक्षरों को जोड़ना सीखा था. अपने उसी बोध के सहारे टोपीलाल मूर्ति के नीचे खुदे अक्षरों को बांचने का प्रयास करने लगा.

‘ह..मा..रे...रा..ष्‍ट्र..पति....डॉ. सर्वपल्‍ली राधाकृष्‍णन!' अपनी इस कोशिश पर वह स्‍वयं ही इतरा गया. मूर्ति भव्‍य थी. कुछ देर तक वह अपलक उसको देखता रहा. फिर वापस लौट पड़ा। घर पहुंचा तो मां काम से लौट चुकी थी. संभव है, इतनी देर तक घर से बाहर रहने पर मां उसको डांटे. इसलिए भीतर कदम रखने से पहले उसके कदम ठिठक गए. सहसा उसके कानों में पिता की आवाज पड़ी. वे उसकी मां से कह रहे थे-

‘लगता है कि वह नाराज है...!'

‘ऐसा क्‍यों लगता है तुम्‍हें?'

‘तबियत ठीक न होने के कारण मैं परेशान था. उसने मुझसे कुछ पूछा तो मैंने डांट दिया. सच तो यह है कि मैं अपनी कमजोरी छिपा नहीं पाता. जब भी वह मुझसे कोई प्रश्‍न करता है तो मुझे अपना अनपढ़ होना याद आ जाता है; तब मैं आपा खोकर झुंझला पड़ता हूं.'

‘टोपीलाल पढ़ना चाहता है, और आप जानते हैं कि इसमें कोई बुराई नहीं है.'

‘बुराई कौन कहता है. बल्‍कि मैं तो सच्‍चे दिल से चाहता हूं कि वह पढ़े. वही क्‍यों बस्‍ती के सारे बच्‍चे पढ़ें. पढ़-लिखकर कामयाब इंसान बनें. पर मैं भी क्‍या करूं. टोले के मिस्त्री और मजदूर, औरत और मर्द सभी मुझपर भरोसा करते हैं. हर फैसले के लिए मुझे आगे कर देते हैं. ऐसे में मुझे वही निर्णय लेना पड़ता है, जिसमें पूरे टोले का हित, सभी की मर्जी हो.

अब जैसे इसी इमारत के ठेके को लो. मैंने सोचा था कि इस बार किसी स्‍कूल के निकट लंबा काम पकड़ूंगा. जहां हमारे बेटे की पढ़ाई का पक्‍का इंतजाम हो सके. उससे पहले ही इस बिल्‍डिंग का मालिक प्र्रस्‍ताव लेकर आ गया. मैंने टोले में बातचीत की तो सभी इस काम को पकड़ने की जिद करने लगे. दो-तीन वर्ष तक लगातार चलने वाले काम को वे लोग छोड़ना ही नहीं चाहते थे। मुझे मजबूर होकर उन्‍हीं की बात माननी पड़ी. ये बातें मैं टोपीलाल को कैसे समझाऊं!'

‘अपना टोपीलाल इतना नासमझ नहीं है...' बाहर खडे़ टोपीलाल ने सुना, मां कह रही थी. उसके बाद वहां एक पल भी खडे़ रहना उसको भारी पड़ने लगा. वह दौड़कर भीतर

गया और बापू की गोद में पड़ गया. बिना कुछ कहे बापू उसके बालों में हाथ फिराने लगे। मां ने खाना लगाया तो पिता-पुत्र ने एक ही थाली में साथ-साथ भोजन किया.

‘यदि भावना सच्‍ची तथा उसका प्रवाह तीव्र हो तो संवाद के लिए शब्‍दों और वाक्‍यों की जरूरत नहीं पड़ती; चुप्‍पी की भी अपनी स्‍वतंत्र भाषा होती है.' बापू की गोदी में पड़े-पड़े टोपीलाल को एकदम नया बोध हुआ. -

हर नई जानकारी ज्ञान के अनगिनत दरवाजों को खोल जाती है.

टोपीलाल सोने चला तो एक और एहसास हुआ. उस रात उसको गहरी नींद आई. सुबह आंख खुलने से पहले उसने सपना देखा कि राष्‍ट्रपति महोदय उसको अपने हाथों से पुस्‍तक सौंप रहे हैं. उनकी कद-काठी हू-ब-हू वैसी ही थी, जैसी उसने मूर्ति में देखी थी. आंखें खुलीं तो सपने के प्रभाव से उसका शरीर खिला हुआ था. चेहरे पर चमक थी, मन में उमंग. चाल में मस्‍ती.

वह जल्‍दी से जल्‍दी निराली से मिलना चाहता था. ताकि उसको अपने सपने के बारे में बता सके. बता सके कि उसके बापू उतने बुरे और लापरवाह नहीं हैं, जितना वह कहता आया है. कि बापू के बारे में वह अब तक जो सोचता था, जितनी बातें उनके बारे में बताईं हैं, वे कितनी गलत, कितनी झूठ हैं. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उसका दिमाग अभी कितना हल्‍का सोचता है. कि उसको पढ़ाई की कितनी जरूरत है. कि किसी भी बालक के लिए पढ़ाई कितनी जरूरी होती है. कि पुस्‍तकें ही प्राणीमात्र को मनुष्‍यता से परचाती हैं.

देर तक वह सड़क पर टकटकी बांधे देखता रहा. निराली नहीं आई. उसके दिमाग में तरह-तरह के सवाल उठने लगे. वह उठा और उस स्‍थान की ओर बढ़ गया, जहां निराली की मां अपनी गुमटी लगाती थी. वहां जाने के बाद पता चला कि उसकी मां की तबियत ठीक नहीं. आज नहीं आ सकी.

बोझिल कदमों से अनमना-सा वह वापस लौट आया. लौटते हुए फिर उसी पार्क के करीब से गुजरा. मूर्ति को देखकर फिर उसके कदम फिर ठिठक गए. वह एकटक उसी की ओर देखने लगा. इतना डूब गया कि अपनी सुध ही न रही. सहसा सामने से एक वाहन आता हुआ दिखाई पड़ा. उससे बचने के लिए वह पीछे हटा ही था कि सहसा उससे कोई टकराया. वह संभल पाए कि...

साइकिल पर चिटि्‌ठयों, पत्रिकाओं का बंडल ले जाता हुआ डाकिया उससे टकराया था. इसके साथ ही उसकी चिटि्‌ठयां धूल चाटने लगीं. डाकिया नीचे उतरकर चिटि्‌ठयों को समेटने लगा. टोपीलाल का कोई दोष नहीं था. फिर भी खुद को बीच रास्‍ते में खड़े होने का कुसूरवार मानते हुए वह चिटि्‌ठयों को समेटने में डाकिया की मदद करने लगा.

‘क्‍या तुम्‍हें घर पर कोई काम नहीं है, जो सड़क पर निठल्‍ले खड़े हुए हो?' डाकिया ने कहा, ‘इतनी सारी डाक बांटनी है. लोग इंतजार कर रहे होंगे.'

टोपीलाल ने डाकिये की बात पर कोई प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त नहीं की. वह चुपचाप सड़क पर बिखरे पड़े पत्रों को समेटने में लगा रहा. जब भी कोई नया पत्र उसके हाथ में आता तो उसका दिल मखमली एहसास से भर जाता. आंखों में इंद्रधनुष की आभा उतर आती. उस काम में उसे खूब मजा आया.

‘सभी को डाकिये का इंतजार रहता है. मैं बड़ा होकर डाकिया ही बनूंगा.' टोपीलाल के दिमाग मेें आया. अपने सोच पर वह खुद ही मुस्‍करा दिया.

डाकिया को पत्र बांटने की जल्‍दी थी. पत्रों को समेटकर वह जल्‍दी-जल्‍दी मंजिल की ओर बढ़ गया. टोपीलाल उसको साइकिल पर जाते हुए देखता रहा. फिर घर जाने की याद आई तो पलटा. सहसा जमीन पर गिरे पेन पर उसकी नजर पड़ी. वह चौंका. उसने डाकिया को अपना पेन ले जाने के लिए आवाज भी दी. किंतु तब तक वह एक गली में मुड़ चुका था. टोपीलाल ने अनमने भाव से कलम उठा ली.

‘वह रोज इसी रास्‍ते से गुजरता होगा...कल मुझे कलम लौटाने के लिए दुबारा यहीं आना पड़ेगा...' टोपीलाल ने वापस लौटते हुए सोचा.

‘मामूली कलम ही तो है, न लौटाऊं तो भी क्‍या है!' अगले ही पल उसके दिमाग में आया. मगर अपने इस स्‍वार्थी सोच पर उसको आत्‍मग्‍लानि होने लगी.

‘चीजों को उनके मूल्‍य के बजाय उनकी उपयोगिता से आंकना चाहिए'-उसके मास्‍टरजी ने एक बार कहा था. उनकी बात टोपीलाल को जंची थी. इसी कारण वह उसको आजतक याद है. तब टोपीलाल ने निर्णय लिया कि कल वह कलम लौटाने के लिए इस ठिकाने पर दुबारा आएगा.

‘कम से कम एक दिन तो यह कलम मेरे पास रहेगी ही.' टोपीलाल ने सोचा.

इस विचार के साथ उसका मन एक अजीब-सी गर्माहट से भर गया. उसके हाथ कलम को आजमाने के लिए मचल उठे. कागज के अभाव में कलम को हथेली पर चलाकर उसकी जांच की. उसको फर्राटेदार स्‍थिति में चलते देख टोपीलाल को कुछ तसल्‍ली हुई. लेकिन मन न भरा. घर लौटते समय रास्‍ते में पड़े एक साफ-सुथरे कागज पर उसकी नजर पड़ी तो उसने उसको फौरन उठा लिया. टोपीलाल ने कागज पर पेन को आजमाना चाहा. मगर उसके हाथ ठिठक गए-

‘इस सुंदर कागज को इस तरह खराब करना ठीक नहीं है.' सोचते हुए उसने सड़क किनारे पड़ा कागज का दूसरा टुकड़ा उठाया. उसपर कलम को रगड़ा देखा. गोल-मोल रेखाओं ने उसको फिर आश्‍वस्‍ति दी कि वह ठीक है.

अपने ठिकाने पर वापस पहुंचने तक टोपीलाल का मन इस सोच से भरा-भरा रहा कि अब उसके पास कागज और कलम है. कलम भले ही एक दिन के लिए हो, मगर कागज

उसका अपना है. रास्‍ते-भर वह कागज उसे मूर्ति के हाथ में लगी पुस्‍तकों याद दिलाता रहा. उसके एहसास ने टोपीलाल को इतना जकड़ा कि रास्‍ते में एक-दो रद्दी कागज उसको दिखाई पड़े तो उसने उन्‍हें फौरन उठा लिया.

‘हर चीज अपने सदुपयोग की चाहत रखती है.' पंद्रह अगस्‍त के दिन भाषण देते हुए प्रिंसीपल साहब ने कहा था. उस पाठशाला में वह कुछ ही महीने पढ़ पाया था. क्‍योंकि इस बीच उसके पिता स्‍कूल का काम निपटा चुके थे. उन्‍हें अपने टोले के साथ दूसरी जगह काम मिला. नया स्‍थान स्‍कूल से इतनी दूर था कि वहां पढ़ने जा ही नहीं सकता था. पढ़ाई बीच में छूटने पर वह कितना रोया था, उसको आज भी अच्‍छी तरह याद है.

इस कागज-कलम का कैसे सही उपयोग हो? टोपीलाल अपनी बुद्धि को भरसक दौड़ाने लगा. इसी सोच में डूबा वह अपने ठिकाने पर लौटा. बाकी बच्‍चों को चुपचाप खेलता हुआ देख उसको तसल्‍ली हुई. इमारत के लिए बनी पानी की टंकी के नीचे अपेक्षाकृत ठंडक रहती थी. वहां एकांत भी था. वह टंकी के लिए बने स्‍तंभ का सहारा लेकर बैठ गया. कलम हाथ में थाम ली. अभ्‍यास के लिए पहले पुराने कागजों पर सही-सही अक्षर बनाने का प्रयास किया. दो-चार शब्‍द लिखे. शब्‍दों को वाक्‍य में ढालने का अभ्‍यास किया. इस कोशिश में पुराने सभी कागज समाप्‍त हो गए.

कुछ और कागजों की खोज में वह दुबारा सड़क की ओर दौड़ पड़ा. फिर उठाए गए कागजों पर देर तक कलम साधने का अभ्‍यास करता रहा. इस बीच सूरज सिर पर तना, गर्माया और फिर ठंडा होने लगा.

‘यह कागज अपने सदुपयोग की प्रतीक्षा में है.' साफ कागज को टकटकी बांधकर देखते समय टोपीलाल के मन में कौंधा. लेकिन सदुपयोग कैसे हो, इस बारे में वह कोई निर्णय न कर सका. देर तक वह उसी स्‍थान पर बैठा रहा. दोस्‍त उसको लिवाने आए तो उसने उनकी ओर कोई ध्‍यान न दिया. वे सभी खेल में डूब गए.

सहसा एक विचार उसके दिमाग में कौंधा. किंचित असमंजस के बीच उसने कागज सामने फैलाया. मस्‍तिष्‍क को एकाग्र किया. टूटे-फूटे अक्षरों के साथ कलम अपने आप आगे बढ़ने लगी-

‘श्रीमान जी!

मेरा नाम टोपीलाल है. मेरे पिता राजमिस्त्री हैं. वे बड़ी-बड़ी इमारतें बनाते हैं. जब तक इमारत का काम पूरा होता है, हम आमतौर पर उसमें रहते हैं. इमारत तैयार होने के बाद, उसको मालिक के हवाले कर हम नए ठिकाने की ओर बढ़ जाते हैं. एक और इमारत बनाने के लिए.

मां कभी-कभी मुझे एक गरीब बंजारे की कहानी सुनाया करती है. उसके पास कुछ भेड़ें थीं. वह बहुत ही ईमानदार था. और मेहनती भी. फिर भी अपने परिवार का पेट बड़ी मुश्‍किल से भर पाता था. वह खेती करना चाहता था. उसका यह सपना कभी फला नहीं.

क्‍योंकि उसको शाप लगा था, कहीं न टिकने का. कुछ ऐसी ही जिंदगी हमारी भी है.

पिता जी कहते हैं कि हमारा एक गांव भी है. पर मैंने उन्‍हें कभी गांव जाते नहीं देखा. बताते हैं कि वहां एक महाजन के पास हमारी जमीन गिरवी पड़ी है. हर साल वह कुछ न कुछ रुपये गांव भिजवाते रहते हैं, फिर भी कर्ज है कि पीछा ही नहीं छोड़ता. मैं पिता जी और मां को जमीन के बारे में बातचीत करते हुए सुनता हूं. जमीन न छुड़ा पाने के कारण पिता जी बहुत दुःखी रहते हैं.

मेरी मां भी राजमिस्त्री है. देश की शायद सबसे पहली महिला राजमिस्त्री. पिता मानते हैं कि उनके टोले में कोई भी काम के मामले में मां की बराबरी नहीं कर सकता. जब भी अच्‍छे काम की जरूरत हो, उसके लिए या तो उन्‍हें खुद आगे आना पड़ता है, या फिर मां को. पिता जी मां की झूठी तारीफ नहीं करते. वह है ही ऐसी. बल्‍कि इससे भी कहीं ज्‍यादा.

छिः छिः! मेरा लेख कितना गंदा है. मैं इसको सुधारना चाहता हूं. पर मेरे पास न कागज हैं, न कलम. यह कागज तोे बस भर ही चुका. कलम कल इसके मालिक को सौंप दी जाएगी. परसों बापू कह रहे थे कि वे मुझे पढ़ाना चाहते हैं. मैं उनकी मजबूरी जानता हूं. जिस इमारत को वे बनाने में जुटे हैं, वह दो साल में पूरी होगी. मुझे उस दिन का इंतजार है, इसलिए कि मैं पढ़ना चाहता हूं.

टोपीलाल

इन शब्‍दों को जोड़ने में टोपीलाल को करीब एक घंटा लग गया. एक-दो जगह काट-छांट भी करनी पड़ी. पर अंत में उसने अपने विचारों को कागज पर उतार ही दिया. तत्‍पश्‍चात उसने कागज को सहेजकर रख लिया. उस कागज का क्‍या हो, वह सोच ही नहीं पाया. कुछ देर बाद वह वहां से उठा और घर की ओर चल दिया. रास्‍ते में उसको यह एहसास बना रहा कि वह हवा में तैर रहा है. मन-मयूर नाचता ही रहा.

रात को सोने चला तो भी बहुत प्रसन्‍न था. मां ने कारण जानना चाहा तो वह मुस्‍कुरा दिया. कागज उसने मोड़कर तकिये के नीचे रख लिया. रात को एक बार आंखें खुलीं तो उसको हाथ से सहलाया. मन हुआ कि दीया जलाकर एक बार फिर अपनी लिखी इबारत पर नजर डाल ले-

‘मेहनती लोगों को नींद से जगाना पाप होता है'-मां और पिताजी की ओर देखकर उसके दिमाग में आया. उसने अपना इरादा बदल दिया.

अगले दिन जैसे ही मां और बापू काम के लिए रवाना हुए, वह डाकिया की कलम लौटाने के लिए निकल पड़ा. साथ में उसने वह कागज भी सहेज लिया, जिसपर पिछले दिन जतन से कुछ अक्षर उकेरे थे. रास्‍ते में उसने रुक-रुककर कई बार उस पत्र को पढ़ा. सोचा कि आगे क्‍या किया जाए. पर बेकार. दिमाग कोई निर्णय ले ही नहीं पा रहा था.

‘अरे! आज तू फिर यहां, कल की तरह क्‍या आज भी मेरी डाक को गिरवाएगा?' साइकिल पर आते डाकिया ने उसको देखकर दूर ही से कहा.

‘आपका पेन!' बिना कुछ कहे टोपीलाल ने डाकिया का पेन उसकी ओर बढ़ा दिया.

‘अरे वाह! कल मैंने इसे काफी खोजा था. अब याद आया कि यह यहीं पर छूट गया था।' पेन देखकर वह बोला। सहसा उसकी आंखों में विस्‍मय-भाव उभरने लगे, ‘किंतु यह पेन तो बहुत मामूली है. मुश्‍किल से तीन-चार रुपये का. माना कि मुझे इसके गुम होने पर भी अफसोस हुआ था. मगर तुझे इसके लिए यहां आने की क्‍या जरूरत थी!' टोपीलाल चुप। क्‍या कहे, कुछ समझ ही नहीं पाया।

‘रहता कहां है?' डाकिया ने खुशी और संतोष-भरे शब्‍दों में पूछा. टोपीलाल ने चुप्‍पी को सहेजते हुए अपने ठिकाने की ओर इशारा कर दिया.

‘हूं, अच्‍छी बात है. हालांकि आजकल कुछ लोग इसे कतई आवश्‍यक नहीं मानते. पर मुझे अब भी यही लगता है कि ईमानदार होना बहुत अच्‍छी बात है. मेरे पास समय होता तो इसपर और भी बातें करता. तुम जैसे बच्‍चों से बात करने में तो मुझे बहुत ही मजा आता है. लेकिन समय ही नहीं मिलता. काम ही ऐसा है. प्रतिदिन कई किलो डाक बांटता हूं. फिर भी हर दिन ढेर सारी डाक आ जाती है. इतनी फुर्सत भी नहीं कि किसी के साथ जी खोलकर बात कर सकूं. पर कोई बात नहीं, आज नहीं तो कल, कभी न कभी तो इतना समय जरूर मिलेगा, जब हम दोनों अच्‍छे दोस्‍तों की तरह बैठकर देर तक बतिया सकेंगे. अच्‍छा, अब मैं चलता हूं. देर हुई तो गुर्राते सूरज का कोप चांद पर झेलना पड़ेगा. और आज तो जल्‍दबाजी में मैं अपनी टोपी भी घर भूल आया हूं।'

डाकिया को मुड़ते देख टोपीलाल को अचानक कुछ सूझा-

‘जरा अपना पेन दिखाएंगे?'

‘अब क्‍या है? मुझे पहले ही काफी देर हो चुकी है।' कहते हुए डाकिया ने पेन टोपीलाल की ओर बढ़ा दिया। पेन लेकर टोपीलाल सड़क किनारे घुटनों के बल बैठ गया। फिर डाकिया से नजरें बचाते हुए उसने जेब से कागज निकाला और उसपर झुक गया।

‘इन चिटि्‌ठयों में न जाने कितने जरूरी संदेश छिपे हों...इस तरह देर करना तो अपनी ड्‌यूटी के साथ नाइंसाफी होगी। मैं चलता हूं. पेन तुम्‍हारे लिए जरूरी है तो रख लो।' कहते हुए डाकिया ने हैंडल संभाला। पैडल मारने ही जा रहा था कि टोपीलाल फिर सामने आ गया-

‘लीजिए!' कहते हुए उसने पेन आगे बढ़ाया। उस समय वह बुरी तरह सकुचाया हुआ था। डाकिया ने हाथ बढ़ाया। तत्‍क्षण उसने अपना बायां हाथ आगे कर उसमें छिपाया हुआ कागज डाकिया को थमा दिया। उस समय उसका दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। सांसें घुटी जा रही थीं। पल-पल खड़ा रहना भारी साधना लग रही थी।

‘यह क्‍या है?' डाकिया ने कागज को हाथ में लेकर उल्‍टा-पलटा. फिर कागज के

पीछे लिखे शब्‍दों को पढ़ा. टूटे-फूटे अक्षरों में वहां लिखा था-‘हमारे राष्‍ट्रपति जी...'

‘क्‍या मैं इसे श्रीमान्‌ राष्‍ट्रपति महोदय के नाम तुम्‍हारी ओर से चिट्‌ठी समझूं.' डाकिया ने गर्दन ऊपर उठाई. पर टोपीलाल वहां कहां? वह तो कभी का वहां से भाग छूटा था. हालांकि ऐसा कुछ नहीं था। परंतु उसको लगा कि डाकिया उसको आवाज देकर रोक रहा है। साइकिल पर बैठकर उसका पीछा कर रहा है। साइकिल के पैडल की आवाज उसके कानों में गूंजती रही। काफी देर तक वह भागता ही रहा। पलटकर देखने की हिम्‍मत ही न पड़ी.

अज्ञान डर का स्‍वाभाविक उत्‍पे्ररक है...बचपन की सरलता डर को भी रचनात्‍मक बनाने का सामर्थ्‍य रखती है।

सोच से बड़ा स्‍वप्‍न मन में भूचाल लाए बिना नहीं रहता।

टोपीलाल को घर पहुंचने के बाद भी चैन न मिला. तरह-तरह के विचार दिमाग में आने लगे. चौकन्‍नी निगाह से वह बार-बार इधर-उधर देखता. जरा-सी आहट पर चौंक पड़ता. दिल जोर-जोर से धड़कने लगता. अपनी मूर्खता पर कभी हंसी आती, कभी तेज गुस्‍सा...राष्‍ट्रपति के नाम पर चिट्‌ठी और वह भी बिना डाक टिकट, बगैर लिफाफे के? पुलिस उसको पकड़ने के लिए आती ही होगी. कभी लगता कि पुलिस आ ही पहुंची है. वह घबराकर छिपने का ठिकाना ढूंढने लगता.

ऊपर से पत्र के अंत में वह राष्‍ट्रपति जी को ‘नमस्‍ते' लिखना भी ध्‍यान न रहा. यह तो सरासर मूर्खता है. अपमान है उनका. राष्‍ट्रपति जी का पत्र पढ़ेंगे तो क्‍या सोचेंगे. कि कितना बेशऊर लड़का है. बड़ों के साथ व्‍यवहार करना भी नहीं आता. माता-पिता ने उसे कुछ सिखाया कि नहीं.

गलती मेरी, पर बदनामी तो मां और बापू की ही होगी. मां को कितना बुरा लगेगा. और बापू, हो सकता है मुंह से कुछ न कहें, पर दुःख तो उन्‍हें भी होगा न! लोग दोष भी उन्‍हीं को देंगे. बेचारे गरीब, राजमिस्त्री जो ठहरे. हाथ के कितने हुनरमंद है, यह कौन जान पाएगा? पूरी दुनिया में उनकी बदनामी होगी, सिर्फ मेरी वजह से।

फिर कागज तो उसने यूं ही लिख मारा था. यह देखने के लिए कि उसको लिखना आता भी या नहीं. जब लिख रहा था तो कहां सोचा था कि उसे राष्‍ट्रपति जी को भिजवाएगा ही. ऐसा वह सोच भी कैसे सकता है। वह तो जेब में रखा था. डाकिया को देखकर न जाने क्‍या सूझा कि पत्र उसको थमा दिया. सचमुच बहुत बड़ी मूर्खता की है उसने.

बावजूद इसके इस समय उसको इतना घबराना भी नहीं चाहिए. यह समय घबराने का है भी नहीं। उसको हिम्‍मत से काम लेना पड़ेगा। यह भी जरूरी नहीं है कि डाकिया बिना टिकट के उस पत्र को उसके ठिकाने तक पहुंचा ही दे. हो सकता है वह उसको

फाड़ ही डाले. जब बड़े आदमियों का पत्र समय पर नहीं पहुंचा पाता तो एक बच्‍चे के पत्र के लिए उसको कहां फुर्सत होगी.

अगर वह पत्र राष्‍ट्रपति जी के हाथों तक पहुंच ही गया तो. क्‍या वे उसको पढ़ेंगे? आखिर क्‍यों नहीं पढ़ेंगे. उस दिन भाषण में प्रधानाचार्य जी बता रहे थे कि इस देश में सभी बराबर हैं. कोई भी छोटा या बड़ा नहीं है. तब तो राष्‍ट्रपति जी उस पत्र को जरूर पढ़ेंगे. हो सकता है उसका जवाब भी दें.

उनका जवाब आया तो अगले पत्र में लिखूंगा कि अपने टोले में मैं अकेला ही अनपढ़ नहीं हूं. बाकी बच्‍चे भी हैं. जो पढ़ना चाहते हैं. मेरी मां तो फिर भी बहुत समझदार हैं. पर सभी बच्‍चे तो मेरे जितने भाग्‍यशाली नहीं हैं. उन्‍हें स्‍कूल की बेहद जरूरत है. पत्र को पढ़ते-पढ़ते जब वे उसके अंत में पहुंचेंगे. हो सकता है कि टोपीलाल नाम को पढ़कर उन्‍हें हंसी भी आ जाए. जैसे उस दिन जब मैं पहली बार पाठशाला गया था तो कक्षा के सारे बच्‍चे मेरा नाम सुनकर हंस पड़े थे. उस दिन मास्‍टरजी अगर उन्‍हें डांटते नहीं तो वे हंसते ही रहते.

फिर भी राष्‍ट्रपति जी को पत्र लिखने से पहले मुझे मां से जरूर पूछ लेना था. वह इतना तो बता ही देतीं कि इतने बड़े आदमी को नमस्‍ते में क्‍या लिखना चाहिए. चरणस्‍पर्श या हाथ जोड़कर प्रणाम. या इससे भी अधिक कुछ हो सकता है! क्‍या अब बात करके देखूं मां से! पर न जाने वह क्‍या सोचने लगे. हो सकता है कि विश्‍वास ही न करे कि मैं इतने बड़े आदमी को चिट्‌ठी लिख सकता हूं. या बुरी संभावनाएं उसको भी डरा दें.

ऊंह चिट्‌ठी! न लिफाफा, न डाक टिकट, न पूरा पता, न मजमून। एक मामूली कोरे कागज पर लिखे चंद अक्षरों को भला कौन चिट्‌ठी मानेगा. दिमाग खराब है मेरा.

पूरे दिन टोपीलाल बेचैन रहा. उल्‍टे-सीधे विचार दिमाग को लगातार मथते रहे. उस रात उसका न तो भोजन में मन लगा, न ही मां की कहानी में. सोने की कोशिश की तो नींद छूमंतर हो गई. जैसे पलकों पर पहरा बैठा दिया हो किसी ने. वह देर तक करवट बदलकर नींद आने का इंतजार करता रहा. मां ने कारण जानने की कोशिश की, परंतु उसने टाल दिया. बस डरे हुए बालक की तरह मां से चिपक गया.

ऐसी ही खींचातानी के बीच कब पलकें भारी हुइंर्, कब नींद ने मेहरबानी की, वह जान ही नहीं पाया. उस रात उसे सपने भी आए तो डरावने से. सुबह होने से पहले ही नींद अचानक टूट गई. उसके बाद उसने सोने का प्रयास किया तो नींद आंखों को भुलावा देेती रही. छलावा बनकर छलती रही. जल्‍दी सुबह हो, करवटें बदलते हुए देर तक वह यही सोचता रहा.

छोटा हो या बड़ा, जब कोई निःकलुष मन से किसी के बारे गहराई से सोचता है तो वह कभी न कभी अपने लक्ष्‍य को छू ही लेता है. -

उम्‍मीद के विपरीत आने वाली सुबह ताजगी से भरी थी.

माता-पिता के काम पर जाने के बाद टोपीलाल ने जल्‍दी-जल्‍दी काम निपटाया. फिर बाहर आ गया. उसको विश्‍वास था कि निराली उधर से जरूर गुजरेगी. कि सिर्फ उसी से वह अपने दिल की बात कह सकता है. उसको मालूम था कि निराली अब देर से आती है. मां की बीमारी के कारण घर का पूरा काम उसी को निपटाना पड़ता है.

(क्रमशः अगले अंकों में जारी….)

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रचनाकार: ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (3)
ओमप्रकाश कश्यप का बाल उपन्यास : मिश्री का पहाड़ (3)
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