प्रख्‍यात कथाकार स्‍वयं प्रकाश के साथ लक्ष्‍मण व्‍यास की बातचीत

SHARE:

(स्वयं प्रकाश) दिमाग में बहुत सारी हांडियाँ है प्रख्‍यात कथाकार स्‍वयं प्रकाश के साथ लक्ष्‍मण व्‍यास की बातचीत (बातचीत भाग 1) कहा...

swayam prakash (WinCE)

(स्वयं प्रकाश)

दिमाग में बहुत सारी हांडियाँ है

प्रख्‍यात कथाकार स्‍वयं प्रकाश के साथ लक्ष्‍मण व्‍यास की बातचीत

(बातचीत भाग 1)

कहानी के समकालीन परिदृश्‍य में जहाँ एक ओर कई कहानीकारों की उपस्‍थिति बनी हुई है, वहीं इस दौर में स्‍वयं प्रकाश का स्‍थान विशिष्‍ट है क्‍योंकि रचनात्‍मक विवेक, यथार्थ की गहरी समझ, वैचारिक पक्षधरता और लगातार व्‍यापक हुए कथा संसार से उनकी उपस्‍थिति बड़ी और महत्त्वपूर्ण हो जाती है। वे हमारे दौर की विडम्‍बनाओं से भिड़कर सही रास्‍ता तलाश करने का उपक्रम करना जानते हैं और जनपक्षरता उनका मूल स्‍वभाव है। उनकी कहानियों में सोद्देश्‍यता और शिल्‍प सजगता मिल कर वह सौन्‍दर्य देते हैं जो विशिष्‍ट होकर भी जनपक्षधर है, लोकमूलक है।

स्‍वयं प्रकाश के अब तक सात कहानी संकलन और तीन विशिष्‍ट कहानी संचयन प्रकाशित हो चुके हैं। उन्‍हें वर्ष 2001 के प्रतिष्‍ठित पहल सम्‍मान के अलावा कई महत्त्वपूर्ण पुरस्‍कारों से समादृत किया जा चुका है। यहाँ उनसे लेखन तथा साहित्‍य के विषय पर बातचीत प्रस्‍तुत की जा रही है।

लिखने से पहले पढ़ना होता है, तो कुछ उसके बारे में बताएँ कि आपने किस उम्र में पढ़ना शुरू किया। शुरुआत में किस तरह की रचनाओं का आप आनन्‍द लेते थे। बाद में किस तरह की प्रौढ़ रचनाएँ आपके सामने गुजरी और उनमें से किस तरह के साहित्‍यकारों का आप पर प्रभाव रहा।

मेरा बचपन इन्‍दौर में बीता, वहाँ बाइस हायर सैकेन्‍डरी स्‍कूल थे और हर गली में एक बगीचा था और वहाँ बहुत सारे कॉलेज थे बाद में तो विश्‍वविद्यालय भी बन गया और वहाँ की नगरपालिका जो बाद में नगर निगम बन गई अत्‍यन्‍त सक्रिय अपने समय में थी और उसने मोहल्‍ले-मोहल्‍ले में सार्वजनिक वाचनालय और पुस्‍तकालय खुलवा रखे थे। साथ ही उनके पास एक मोबाइल वाहन था जिसमें वो एक चलित पुस्‍तकालय भी चलाते थे। यह गाड़ी हफ्‍ते में एक बार मोहल्‍ले में जाकर खड़ी हो जाती थी और मैं देखता था कि 40-50 लोग जैसे कोई मिठाई बंट रही हो, टूटकर वहाँ जाते थे और पुस्‍तकों का आदान प्रदान करते थे। स्‍वाभाविक था कि ऐसे माहौल में पढ़ने लिखने के लिए थोड़ा प्रोत्‍साहन मिले और इसलिए जब मैंने सार्वजनिक वाचनालयों पुस्‍तकालयों में जाना शुरू किया तो सबसे पहले हमारे जो क्‍लासिक रचनाकार हैं हिन्‍दी और बंगला के जैसे रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर हैं प्रेमचन्‍द हैं, शरद हैं, बंकिम हैं ....जब मैं 7 वीं 8 वीं क्‍लास में था.... तब यह चस्‍का उन्‍हें पढ़ने का लगा था। एक दो साल में मैंने सबको पढ़ लिया और यह दुनिया, साहित्‍य के माध्‍यम से देखी गई दुनिया मुझे बहुत आकर्षक लगी और मुझे बहुत डुबो देने वाली लगी। इसके बाद में जैसे कि आमतौर पर सभी करते हैं कविता से मैंने अपनी शुरुआत की। फिर मैं दूसरे - दूसरे कामों में व्‍यस्‍त हो गया। जैसे कि पढ़ाई पूरी करने में व्‍यस्‍त हो गया, उसके बाद भारतीय नौसेना में चला गया, और कुछ नाटक वाटक करने लगा, कुछ अभिनय करने लगा। कुछ दिनों फिल्‍म इण्‍डस्‍ट्री में भी मैंने काम किया। जब मैंने गम्‍भीरतापूर्वक लिखना शुरू किया तो मैंने कहानी को चुना, इसका कारण यह है कि उन दिनों तक राजेन्‍द्र सिंह बेदी से मेरी साक्षात्‌ मुलाकात बम्‍बई में हो चुकी थी जो दस्‍तक नामक फिल्‍म बना रहे थे और मंटो, बेदी और चेखव इन तीन लेखकों ने मुझे इतना ज्‍यादा प्रभावित किया था कि मुझे लगा कि मैं अपने दुःख, दर्द ओर तकलीफ और अपनी भावनाओं को बहुत अच्‍छी तरह से कहानी में ही अभिव्‍यक्‍त कर सकता हूँ। तो इसलिए जब मैंने 1969 में लिखना शुरू किया तो कहानी के माध्‍यम से ही लिखना शुरू किया और बेशक जैसा कि आपने कहा जो कुछ भी तब तक पढ़ा हुआ था वह सब इस मायने में काम आया कि आप अपने अनुभवों को किस भाषा में व्‍यक्‍त करें कि वह पाठक को भी अपने अनुभव जैसा लगे। एक आदमी अगर सिर्फ अपने दुःख दर्द के बारे में बताता रहेगा तो शायद दूसरे उसे इतनी उत्‍सुकता से न सुनें। लेकिन जब वह सुनने वाले को या पढ़ने वाले को ऐसा लगेगा कि यह मेरी ही बात की जा रही है तो जाहिर है कि वह उसे दिलचस्‍पी से पढ़ेगा। यह कला मुख्‍यतया मुझे मंटो, बेदी और चेखव ने सिखायी जिन्‍हें मैं अपना कलागुरु मानता हूँ।

रचना प्रक्रिया के बारे में बात करें कि अपना जो व्‍यक्‍तिगत अनुभव है वह एक सार्वजनिक अनुभव बन जाए, तभी उसमें अपने आप की अपनी पहचान कर सकें। तो थोड़ा बताइये कि यह कैसे सम्‍भव हो पाता है कि एक आप जिन्‍दगी जीते हैं, आपका अनुभव होता है एक आपका आब्‍जरवेशन होता है और उसको आप कागज़ पर उतारते हैं तो उस प्रक्रिया के बारे में बताएँ कि वह किस तरह से सार्वजनिक हो जाती है और सभी लोग उससे पहचान कर पाते हैं।

आपने बड़ा महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया। दरअसल जब हम लिखने बैठते हैं तो हमें उस अनुभव का चुनाव भी करना पड़ता है जो सार्वजनिक महत्व का होने की सम्‍भावना रखता हो। हममें से कौन ऐसा है जिसको कि कुछ विचित्र विचित्र प्रकार के अनुभव कभी न कभी न हुए हों। मसलन हम सब सपने देखते हैं, हर एक के सपने में कुछ न कुछ विचित्र बात होती है यदि हम सब अपने सपने लिखना शुरू कर दें तो वो हमारा सपना दूसरे के लिए कैसे दिलचस्‍प हो सकता है। लेकिन समाज के और समय के अपने व्‍यापक संदर्भ होते हैं यदि उस संदर्भ में रखकर आप अपने एक अनुभव को सामने रखते हैं तो पढ़ने वाले को या सुनने वाले को यह प्रतीत होता है कि मानो उसी की कहानी कही जा रही है। मसलन एक बेरोजगार आदमी है उसके अपने पिता के साथ जो सम्‍बन्‍ध हैं, अब पिता के साथ तो हर पुत्र के सम्‍बन्‍ध होते हैं कैसे हम कहें कि निर्मल वर्मा का पिता और ज्ञानरंजन का पिता और चेखव का पिता एक दूसरे से अलग है, तो यहाँ समय और समाज के संदर्भ सामने रखने पड़ते हैं। एक समय में लिखी गई कहानी एक दूसरे समय में लिखी गई कहानी से या एक देश में लिखी गई कहानी दूसरे देश में लिखी गई कहानी से इसी मामले में भिन्‍न होती है कि वह अपने व्‍यक्‍तिगत अनुभव को सार्वजनिक संदर्भों में इस प्रकार से रखते हैं कि पढ़ने वालों को यह प्रतीत हो कि मानो यह उनके भी अनुभव हैं।

तो इस बारे में यह कहना सही होगा कि जो जितनी लोकल होगी स्‍थानीय होगी उतनी ही सार्वजनिक भी होगी सार्वभौम भी होगी।

हाँ, यह तो सही है। अपने समय के प्रश्‍नों से कतरा कर कोई भी रचना कालजयी या महान नही हो सकती। और स्‍थानीय संदर्भ बहुत बड़ा रोल प्‍ले करते हैं। इस बात को अब हम उत्तर आधुनिक समय में बहुत ज्‍यादा स्‍पष्‍टता के साथ स्‍वीकार करने लगे हैं। बहुत समय तक आँचलिक कह कर या स्‍थानीय कह कर या देसी कह कर या गंवारू कह कर हमने उस अनुभव की उपेक्षा की जो खरा, खांटी और स्‍थानीय था। लेकिन यदि हम दुनिया के बड़े से बड़े क्‍लासिक कालजयी रचनाओं की कृतियों को देखें तो जहाँ एक अर्थ में वे सार्वभौमिक हैं...... यानी दोस्‍तोयवस्‍की के पात्रों का दुःख दर्द हमें यहाँ अपने दिल में महसूस होता है..... वहीं दूसरी और वे बहुत स्‍थानीय और निजी भी हैं। मसलन दोस्‍तोयवस्‍की के ही पात्र जिस परिवेश में रहते हैं वह परिवेश दोस्‍तोयवस्‍की के समय और समाज का परिवेश ही हो सकता है लेकिन वह हमें बहुत प्रेम से अपने भीतर आने की दावत देता है और जब हम उसमें पहुँच जाते हैं तो हमें यह महसूस होता है मानो हम भी उसी का एक हिस्‍सा हो गए हैं। जैसे एक बहुत अच्‍छी फिल्‍म जब आप देखते हैं तो धीरे-धीरे उसमें प्रवेश करते हैं और एक बार जब उसमें प्रविष्‍ट हो जाते हैं तो फिर समय और समाज दोनों की जो परिकल्‍पनाएँ हैं उनमें प्रविष्‍ट होने के बाद आप उसका एक हिस्‍सा हो जाते हैं। यही कला है वरना किस्‍सा तो कोई भी सुना सकता है।

आपने कहानी विधा को ही चुना है। इसमें कैनवास बहुत बड़ा नहीं होता फिर भी आपको क्‍यों लगा कि मैं अपनी बात सार्थक तरीके से कहानी के भीतर ही कह सकता हूँ।

शायद मेरी मनोरचना इस प्रकार की होगी कि बहुत बड़े कथ्‍यों को संभाल पाना मेरे लिए सम्‍भव नहीं होता होगा। हालांकि मैंने चार उपन्‍यास भी लिखे हैं, नाटक भी लिखा है, निबन्‍ध भी लिखता रहा हूँ और समय समय पर सामयिक विषयों पर टिप्‍पणियाँ भी लिखता रहा हूँ, ये वही चीजे़ हैं जो कहानी में नहीं अंटती। लेकिन मुझे लगता है कि जितना लोगों के पास पढ़ने का समय है, जितना उनमें धैर्य है और जितनी उनकी जिज्ञासा है..... कहानी में जिज्ञासा की एक जबर्दस्‍त लपक होती है वह बहुत ज्‍यादा आपसे कुछ नहीं मांगती यदि आपके पास में आधा घण्‍टा चैन का, फुर्सत का, तसल्‍ली का, आराम का इत्‍मीनान का है और एक अच्‍छी कहानी आपको पढ़ने को मिल जाती है तो वो आपको इतना बड़ा सुख दे सकती है जो शायद एक भारी भरकम उपन्‍यास भी नहीं दे सकता। दूसरी बात जैसा मैंने आपसे पहले कहा कि मेरे तीनों कथागुरु कहानियाँ ही लिखते थे और बेहद मार्मिक और अच्‍छी कहानियाँ लिखते थे। इसलिए शायद इस विधा ने मुझे फेसिअनेट किया हो।

मैंने यह देखा है कि आप जो लिखते हैं उसमें पाठक को बाँधे रखने की क्षमता है। पठनीयता उसकी पहली शर्त होती है। आप कोई बात भी कहना चाहते हैं, कोई सरोकार भी हैं आपके। समाज की विसंगतियाँ-विडम्‍बना भी उजागर कर रहे हैं तो यह जरूरी है कि पढ़ने वाला उसमें उलझ जाए (मतलब साहित्‍यिकता उसका पहला गुण है।) उसे लगता है कि यह पढ़ना मेरे लिए जरूरी है। और आप जो रचना लिखते हैं वह केवल नारे में न बदल कर रह जाए। उसमें एक कहानी के गुण मौजूद रहें यह कैसे कर पाते हैं।

ऐसा हुआ कि बचपन में जिन विद्यालयों में मैं पढ़ता था या जिन बुजुर्गों के साथ में मैं रहता था उनसे एक बात तो मैंने बहुत अच्‍छे से सीख ली कि उपदेश और उपदेशकों को न तो कोई पसन्‍द करता है और न उपदेश और उपदेशकों से कुछ बदलता है। हिन्‍दुस्‍तान में दुनिया के सबसे ज्‍यादा बड़े उपदेश और सबसे ज्‍यादा बड़े उपदेशक रहे हैं लेकिन जो हमारे समाज की स्‍थिति है वो आप भी देख रहे हैं और सभी देख रहे हैं। तो यह एक नकारात्‍मक किस्‍म की शिक्षा भी कि आप उपदेश मत दीजिए और उपदेशक की भूमिका ना निभाइये। दूसरी बात यह भी कि मैं जिन लोगों को पसन्‍द करता था राजेन्‍द्र सिंह बेदी, मण्‍टो, मार्क ट्‌वेन या चेखव जिनका मैंने आपसे जिक्र किया इन सब लोगों के अन्‍दर एक बहुत बारीक किस्‍म का एक विट्‌ और सॅटायर, एक व्‍यंग्‍य की चेतना उनके भीतर मौजूद थी जो मुझे बहुत लुभाती थी। इसलिए मुझे लगा कि जैसे हमारे परम्‍परागत समाज के अन्‍दर कुछ क़िस्‍सागो हुआ करते थे या बातपोश हुआ करते थे राजस्‍थान में, जो कि रात-रात भर बैठकर अपने क़िस्‍से सुनाते थे और लोगों का जी नहीं अघाता था। तो वो क्‍या था जो कि उनको बाँधे रखता था तो मैने सोचा कि मैं दूसरों से हटकर अपनी गम्‍भीर बात भी चुहल और चाशनी की भाषा में कहूँगा। इसलिए आपने देखा होगा कि कहीं कहीं मेरी कहानियों की शुरुआत में एक खिलन्‍दड़पन सा दिखाई देता है। तो खिलन्‍दड़ापन पाठक को पकड़ने की एक तरकीब भी होता है और धीरे-धीरे फिर कहानी की परतों में से कुछ रहस्‍यमय तरीके से गम्‍भीर चीज़ें सामने आने लगती हैं। लेकिन अन्‍त तक मेरी कोशिश यही रहती है कि वो कोई उपदेश जैसा न बने और सिर्फ महसूस और अहसास की हद तक आदमी को अहसास हो कि यह कौनसी गम्‍भीर बात इस माध्‍यम से हमसे कही जा रही है कि तरकीब कारगर हुई है और हमारी बात लोगों तक रोचक तरीके से पहुँच जाती है। मैं बहुत जोर देकर इस बात को लिख चुका हूँ और फिर दोहराता हूँ कि कहानी का सबसे पहला और प्राथमिक गुण होना चाहिए उसकी रोचकता। यदि वह रोचक ही नहीं है तो आप चाहे जितनी बड़ी बात कहने वाले हों उसे कोई सुनेगा ही नहीं तो वह निरर्थक हो जाएगी।

आप बहुत लम्‍बे अरसे से लिख रहे हैं। कहीं पढ़ने वाले को यह नहीं लगे कि हाँ यह एक शैली बन चुकी है एक पहचान बन चुकी है ओर अब इसमें कुछ नया आने की गुंजाइश न हो। इससे बचने के लिए आप कैसे रीइन्‍वेंट करते हैं अपने आपको।

इसके लिए एक तो निरन्‍तर पढ़ना बहुत जरूरी होता है। हमें यह मालूम होना चाहिए कि दुनिया के किस किस हिस्‍से में लोगों ने कौन-कौन सी तरकीबें ईजाद की हैं जिनसे कि पाठकों को लुभाया जा सके और अपनी चीज़ को पढ़ने के लिए बाध्‍य किया जा सके। सौभाग्‍य से हमारी दुनिया बहुत छोटी होती जा रही है और सारी दुनिया का साहित्‍य हमें अब सीधे सुलभ है जो किसी समय में सिर्फ अंग्रेज़ी के माध्‍यम से एक सीमित दुनिया का साहित्‍य ही हम तक पहुँच पाता था। हम फ्रेंच या अंग्रेज़ या ज्‍यादा से ज्‍यादा अमरीकी साहित्‍यकारों को जानते थे लेकिन अब सारी दुनिया के साहित्‍य को बराया सीधी तौर पर जानने के लिए भी सक्षम हैं। उनमें बहुत तरह की तरकीबें काम में ली जाती दिखाई देती हैं। जैसे लोक कथाओं का खजाना और लोककथाओं की कहन और दूसरे यह दिखाई देता है कि कथा के अन्‍दर किए गए विचित्र प्रकार के प्रयोग अनेक बार तो जो हमारे कला के परम्‍परागत ढाँचें हैं जैसे हम कहते हैं कि यह कहानी है या यह उपन्‍यास है उनको तोड़ना भी कहानीकार के लिए जरूरी हो जाता है।

आपने सही कहा कि इतने लम्‍बे समय तक अगर कोई चुटकुले ही सुनाता रहेगा सारी रात तो जाहिर है कि लोग ऊबना शुरू कर देंगे। इसलिए उसे अपने आपको री रीड करना पड़ता है और नये तरीके से रीइक्‍विप भी करना पड़ता है। इसलिए मैं भी लगातार यह कोशिश करता रहा हूँ और जो जानने वाले हैं वो जानते हैं कि ऐसे-ऐसे दौर लक्षित किए जा सकते हैं इस साहित्‍य में भी जो मैंने लिखा, जहाँ यह परिवर्तन बहुत नुमाइन्‍दा तौर पर उजागर होते हैं। जैसे अभी ताजातरीन दौर, मेरा चल रहा है वह यह चल रहा है कि मैं इस विखण्‍डनवाद और अतिआधुनिकता के बरअक्‍स हमारी लोककथाओं और लोकक़िस्‍सों के कहन को सामने रखने की कोशिश कर रहा हूँ। मैं एक कोई कथा उठाऊँ जो मुझे परम्‍परा से प्राप्‍त है और फिर मैं उसे आज के संदर्भों में रखकर उसे कुछ व्‍यापक समकालीन प्रश्‍नों से जोड़ने की चेष्‍टा करता हूँ। यह तरकीब अब देखिए कहाँ तक कामयाब होती है। अगर मुझे लगता कि इससे आगे कुछ किया जा सकता है तो निश्‍चित तौर पर मैं उसे भी तोड़ने की कोशिश करूंगा।

आपकी रचनाओं में एक और बात है कि आप जटिल से जटिल बात को बहुत ही सरल और सहज शब्‍दों में रखते हैं। भारी, गम्‍भीर शब्‍दों की आपके यहाँ जरूरत नहीं पड़ती, इतनी सहजता से सारी बातें कह देते हैं। तो इस सहजता का गुण कैसे आया।

यह तो निरन्‍तर अभ्‍यास से आता है। मेरे एक गुरु ने कहा था और यह बात ध्‍यान देने योग्‍य है कि कठिन लिखना बहुत सरल है लेकिन सरल लिखना बहुत कठिन है। हमारे एक बहुत अच्‍छे हिन्‍दी कवि थे भवानी प्रसाद मिश्र जिन्‍होंने कहा था कि -

जिस तरह से हम बोलते हैं उस तरह तू लिख

और इस बार भी हमसे बड़ा तू दिख

साथ ही हम इस बात को भी याद करें कि कबीर की जो व्‍याप्‍ति हमसे समय में हुई है वह पहले कभी भी नहीं हुई है। यह अचानक लोगों का कबीर के प्रति जो आकर्षण पैदा हुआ है वह इसी वजह से हुआ है कि कबीर ने सरल से सरल शब्‍दों में गूढ़ से गूढ़ बात सामने रखने की कला हमें दिखाई है। और यह भी याद करें कि हम चित्तौड़ में रहते हैं जहाँ मीराबाई हुई थी और उसने बहुत ही सरल शब्‍दों में बोलचाल की भाषा मेंं आम जन की भाषा में एक अलौकिक प्रेम की गूढ़ताओं को अभिव्‍यक्‍त किया था। यही कला है और इसे ही साधने की कमज़ोर कोशिश मैं करता नज़र आ रहा हूँ।

कुछ आपकी रचना प्रक्रिया के बारे में भी बात कर लें। कोई विचार है, कोई अंकुर पड़ा है, किसी कहानी का प्‍लाट है, तो यह कितने समय तक मन के भीतर रहता है। और उसके कितने ड्राफ्‍ट आप लिखते हैं। कितनी बार रीराइट करते हैं और किस तरह के माहौल में आप लिख पाते हैं।

असल में क्‍या होता है कि कहानी का बीज तभी पड़ जाता है जब आपके दिमाग में कोई बात ‘खुद’ के रह जाती है जैसे कोई व्‍यक्‍ति मुझसे मिला या कोई घटना मैंने देखी या किसी पात्र की कोई बात मैंने सुनी या रेलगाड़ी में कोई फिकरा मेरे कान में पड़ा वो अटका रह जाता है और फिर उसके बाद में यह उधेड़बुन चलती रहती है लम्‍बे समय तक मन ही मन जैसे खिचड़ी पकती है न! तो वो चलती रहती है और यह छह महीने भी चल सकती है, सालभर भी चल सकती है, दो साल भी चल सकती है। और दिमाग में बहुत सारी हांडियाँ है जिनमें बहुत सारी किसम-किसम की खिचड़ियाँ पकती रहती हैं। यदि उसको समय से पहले निकाल लिया जाए तो वह कच्‍ची रह जाएगी और यदि उसको समय पर नहीं निकाला जाए तो वह जल जाएगी। तो इसी तरह हम उनको देखते, छाँटते, परखते और सूंघते रहते हैं और फिर उसके बाद में उसको लिख देते हैं। कई रचनाकार ऐसे हैं जो एक बार ड्राफ्‍ट लिखकर उसको परिशोधित करते रहते हैं, उसकी भाषा की नोक दुरस्‍त करते हैं, उसको पाँच-पाँच, छह-छह बार लिखकर जाँचते रहते हैं। मेरे साथ ऐसा नहीं होता। मैं लिख देता हूँ और जब मुझे लग जाता है कि सही तरीके से खिचड़ी पक गई है तभी उसको मैं लिखूंगा तो वो एक ही बार में अच्‍छा लिख लूंगा। और उसमें मुझे तसल्‍ली हो जाएगी तो उसे मैं पाठक के सामने परोस दूंगा। हाँ, यह जरूर है कि मेरी लिखी हुई किसी कहानी को सालभर बाद दुबारा मुझसे लिखने को कहा जाए तो सम्‍भवतः मैं उसमें बहुत सुधार करना पसन्‍द करूंगा और यह होता भी है कि कई बार उसका नाट्‌य रूपान्‍तरण करना हो या फिल्‍म तब उसमें कई सारे परिवर्तन हो ही जाते हैं।

किन विचारों से या विचारधाराओं से आप प्रभावित रहे और जिन विद्वानों से आप प्रभावित हुए उनके बारे में थोड़ा बताइये।

अपने बचपन की एक याद है रामकृष्‍ण मिशन की। उस रामकृष्‍ण मिशन में एक स्‍वामी जी आया करते थे स्‍वामी आत्‍मानन्‍द जी, वे गणित में एम. एस. सी. थे और धाराप्रवाह भाषण देते थे बहुत ही धीमी मीठी सधी हुई आवाज में, कोई खांसना खंखारना नहीं। और वो घण्‍टों अगर बोलते रहेंगे तो जैसे अमृत का झरना बहता था और उसे सुनकर के उठने की इच्‍छा ही नहीं होती थी। इतने अद्‌भुत वक्‍ता थे। और परीक्षा के दिनों में वे गणित और विज्ञान पढ़ने में हमारी मदद भी किया करते थे। उनसे मैं विवेकानन्‍द के प्रति आकर्षित हुआ और तब मैंने विवेकानन्‍द की पुस्‍तकें पढ़ना आरम्‍भ किया। विवेकानन्‍द से धीरे-धीरे मुझे लगा कि विवेकानन्‍द दावत तो बड़ी अच्‍छी देते थे लेकिन खाने का समय नहीं बताते। इसलिए मैं फिर गाँधी के पास चला गया जो न सिर्फ दावत भी देते थे बल्‍कि मीनू भी बताते थे कि पालक का साग और सूखी रोटी होगी और बथुए का साग होगा और बकरी का दूध होगा। और समय भी बताते थे। उनके पास एक निश्‍चित कार्यक्रम था वो सिर्फ जवानी के जोश में मन को तरंगों से नहीं भरते थे बल्‍कि एक ठोस कार्यक्रम भी पकड़ाते थे तब मैं गाँधी के सम्‍पर्क में आया। गाँधी के बाद में न जाने कैसे मैं लोहिया की और आकर्षित हो गया और लोहिया से होते-होते मैं मार्क्‍स की तरफ आ गया। और तबसे मैं मार्क्‍सवाद के पक्ष में ही हूँ विचारधारा की दृष्‍टि से। और मुझे लगता है कि दुनिया के सामने सबसे नया और सबसे बेहतरीन रास्‍ता दुनिया को बदलने का किसी ने बताया है तो अब तक का सबसे बेहतरीन और नया रास्‍ता मार्क्‍स ने ही बताया है।

---

यह समय अपने हथियारों को ठीकठाक करने का है।

प्रख्‍यात कथाकार स्‍वयं प्रकाश के साथ लक्ष्‍मण व्‍यास की बातचीत

(बातचीत 2)

आपको लेखक बनाने में बचपन का क्‍या प्रभाव रहा ?

बचपन ने अच्‍छे संस्‍कार दिए। पढ़ने-लिखने को प्रोत्‍साहित किया। कुछ अच्‍छे साहित्‍यप्रेमी अध्‍यापक मिले। अच्‍छे पुस्‍तकालय-वाचनालय मिले। इससे अधिक शायद कुछ नहीं। लेखक बनना मेरी महत्‍वाकांक्षाओं में कहीं नहीं था।

कितनी हैरानी की बात है कि मैंने अपने बचपन के बारे में कुछ नहीं लिखा। लिखूँगा लिखूँगा करके टालता रहा और अब वैसा सब पढ़ने में किसी की दिलचस्‍पी ही नहीं।

आपकी आरम्‍भिक रचनाएँ, उन पर मिली प्रतिक्रियाएँ, क्‍या लिखना है - किस तरीके से लिखना है........ उन पर वैचारिक मंथन के बाद आपकी सर्जनात्‍मकता का एक ठोस और निश्‍चित रूप ग्रहण करना......... इस रचनात्‍मक यात्रा के बारे में विस्‍तार से जानना आपके पाठकों के लिए दिलचस्‍प होगा।

1968 की बात है। मैं भारतीय नौसेना की नौकरी, गोदी की नौकरी, फिल्‍म इण्‍डस्‍ट्री की दिहाड़ी और इधर-उधर का छुटपुट काम छोड़कर अपने गृहनगर अजमेर आ गया था। आया भी इसलिए था कि बम्‍बई में झोंपड़पट्‌टी में रहने, आधा पेट खाने और लगातार नौटाक दारू पीने से भयंकर पीलिया हो गया था। बचने की कोई उम्‍मीद नहीं थी। दोस्‍तों ने चन्‍दा करके रेल का टिकट खरीदा था और टाँगाटोली करे अजमेर जानेवाली रेल में बिठा दिया था। रेल चलते-चलते हाथ हिलाते हुए भी वे यही कह रहे थे- स्‍वयं प्रकाश। वापस मत आता! वे सब फिल्‍म इण्‍डस्‍ट्री में कुछ बनने के लिए संघर्ष कर रहे थे। मदन सिन्‍हा, राजेश शर्मा, पाश, बाबूभाई! मैँने आज तक इनमें से किसी का नाम किसी बिलबोर्ड, पोस्‍टर या किसी फिल्‍म की क्रेडिट में नहीं देखा। शायद हम सब नष्‍ट हो जाने के लिए ही बने थे। उन्‍होंने मुझे वापस भेजकर बचा लिया। मेरी जिन्‍दगी उन्‍हीं का कर्ज है।

इत्‍तफाक से इसी समय रमेश उपाध्‍याय-जो व्‍यावसायिक पत्रिकाओं के स्‍थापित लेखक थे और बम्‍बई में फ्रीलान्‍सिंग कर रहे थे- लगातार पेट खराब रहने की वजह से बम्‍बई छोड़कर अजमेर आ गये- इस भावना से कि हिन्‍दी में एम.ए. करेंगे। अजमेर उनका जाना पहचाना शहर था। यहीं विभिन्‍न प्रेसों में कम्‍पोजीटरी करते-करते वह लेखक बने थे।

अब अजमेर बोले तो कितना बड़ा शहर ? साइकिल पर घण्‍टे भर में सारे शहर की परिक्रमा हो जाये। तो हमारी मुलाकात तो होनी ही थी। एक जैसी रूचियाँ होने और मेरे परम फुर्सतिया होने के कारण नजदीकी भी हो गयी। कुछ बम्‍बई में रह लेने का सगापन भी था। में सोच रहा था कि देखें यह फ्रीलान्‍सिंग क्‍या होती है, कैसे होती है कि लिखने मात्र से गुजारा चल जाता है। उन्‍हीं दिनों मैंने एक स्‍थानीय कम्‍पोजीटर के उवकसाने पर अपना कविता संग्रह खुद का पैसा खर्च करके छपवा लिया था। शीर्षक था ‘मेरी प्‍यास तुम्‍हारे बादल'। और कवि का नाम था, जी हाँ, स्‍वयं प्रकाश ‘उन्‍मुक्‍त'। छपवा इसलिए लिया कि कविताएं एक गहरी मोहब्‍बत की निशानी थी।

अब रमेश उपाध्‍याय ने देखा तो बोले- आप कहानियाँ क्‍यों नहीं लिखते ? पता नहीं क्‍यों ऐसा बोले। क्‍या देखकर बोले। लेकिन मैने सोचा-क्‍यों नहीं? क्‍या हर्ज ?

और लीजिए-मैं कहानीकार हो गया। रमेश उपाध्‍याय ने अंग्रेजी की एक किताब भी दी। यह थी नेपोलियन की प्रेमिका की डायरी। बोले-इसका हिन्‍दी सार संक्षेप कर सकें तो कादम्‍बिनी में छप जाएगा। मैंने कर दिया। जस का तस बगैर काटे पीटे कादम्‍बिनी में छप भी गया। सौ रुपये पारिश्रमिक मिले जो बहुत होते थे उन दिनों। पहली कहानी ‘टूटते हुए' समाज कल्‍याण नामक पत्रिका में छपी। उसके साठ रुपये मिले। फिर तो मैंने झड़ी लगा दी। पैसा जैसे बरसने लगा। हर महीने चार-पाँच पत्रिकाओं में रचनाएँ छपती।

इस समय तक मार्क्‍सवाद से न मेरा परिचय था न रमेश का। वह कराया रमेश गौड़ और कान्‍ति मोहन ने। मगर यह बहुत बाद की बात है।

1971 मैं भीनमाल नामक एक छोटे से कस्‍बे के टेलीफोन एक्‍सचेंज में नौकरी करता था और कुछ दोस्‍तों के साथ “मुक्‍तवाणी” नामक साप्‍ताहिक अखबार निकालता था। एक दिन कस्‍बे के इकलौते कॉलेज में नये-नये आये अंग्रेजी के प्रोफेसर मोहन श्रोत्रिय ने कहा क्‍यों न हम एक साहित्‍यिक पत्रिका निकालें जो कस्‍बे में ही नहीं, सारे देश में पढ़ी जाये। और हमने ‘क्‍यों' निकाली।

यहाँ तक आते-आते शायद मैं वह बन गया था, जो हूँ।

इन्‍दौर, अजमेर, मुंबई, जोधपुर, भीनमाल, जैसलमेर, सुमेरपुर, सुन्‍दरगढ़, जावर, दरीबा, चित्तौड़गढ़ और अब भोपाल! कैसी लगती है यह यात्रा?

बहुत रोचक, बहुत घटनापूर्ण, बहुत शुभाशीषमय।

इतनी लम्‍बी रचना यात्रा में क्‍या कभी मन में सन्‍देह हुआ इसके प्रभाव को लेकर ? लोगों को प्रभावित कर बदलाव लाने की क्षमता पर ?

अनेक बार। अनेक बार ! जब अखबार पर मुकदमा हुआ। जब पत्रिका बन्‍द करना पड़ी। जब शिकायत पर तबादले हुए। जब दोस्‍त खोये। जब अपने ही संगठन मेंं पद के लिए कुत्‍ता-बिल्‍ली खींचतान देखी। जब सोवियत संघ ध्‍वस्‍त हुआ। लेनिन की प्रतिमाओें के सिर काटकर उन्‍हें धराशायी किया गया.........

साठ के दशक से अब तक...... साहित्‍य का मुख्‍यधारा से हाशिए पर चले जाना.... इस प्रक्रिया को आप किस तरह देखते हैं ? प्रेमचन्‍द के शब्‍दों में समाज और राजनीति के आगे चलती मशाल' अब पिछलग्‍गू बनकर रह गयी है। या आप मानते हैं कि यह स्‍थापना ही गलत है ?

तब जीवन अपेक्षया सरल था। खाली समय में लोग पढ़ते थे या दोस्‍तियाँ करते थे। ‘प्रकृति के सम्‍पर्क में आते' थे या रिश्‍तेदारियाँ निभाते थे। तब मनोरंजन करने के अलावा सूचना देना और शिक्षित करना भी साहित्‍य के प्रकार्य माने जाते थे। हर कविता-कहानी से कुछ न कुछ शिक्षा मिलती थी। जबकि उपन्‍यास (लोग सोचते थे कि) बिगाड़ते थे। जैसे कि फिल्‍म। और बिगड़ने की आरंभिक लेकिन पुष्‍ट और निर्विवाद निशानी होती थी। खड़े-खड़े पेशाब करने लगा.... या बाल जमाने लगा........ या सिगरेट पीने लगा। इसके बाद फिल्‍म, टेलीविजन, कम्‍प्‍यूटर, इण्‍टरनेट, मोबाइल और खोजी पत्रकारिता तथा स्‍टिंग अॉपरेशन हो चुके हैं। साहित्‍य का स्‍वरूप और प्रकार्य पहले जैसे कैसे रह सकते थे ? समाज और राजनीति के आगे चलने वाली मशाल का यह मतलब नहीं है कि मुँह में बेर की गुठलीवाली सीटी डाले, हाथ में मशाल पकड़े साहित्‍यकार आगे-आगे दौड़ रहा है और पीछे से उसका कुरता पकड़े राष्‍ट्रपति- उपराष्‍ट्रपति-प्रधानमंत्री-सांसद-विधायक-प्रशासक-उद्योगपति सब दौड़ रहे हैं।

किसी विषय-किसी भी विषय का सर्वोच्‍च ज्ञान होता है उसका दर्शन। चाहे वह भौतिक शास्‍त्र ही क्‍यों न हो। डॉक्‍टर अॉफ फिलॉसॉफी का मतलब है इस विषय की फिलॉसॉफी में आपकी भी डॉक्‍ट्राइन है। उस दर्शन में अपका भी योगदान है। तो आप विद्यावाचस्‍पति हैं।

और दर्शन से भी ऊपर होता है साहित्‍य। यदि किसी विषय के साहित्‍य में आपके योगदान को स्‍वीकार कर लिया जाये तब तो आप हो गये विद्यावारिधि।

प्रेमचन्‍द के इस कथन की महत्‍ता न आज कम हुई है न कल कम होगी। हाँ, ऐसा साहित्‍य युगान्‍तकारी परिस्‍थितियों में ही दिखाई देता है।

दुनिया में परिवर्तन इतनी तेजी से हो रहे हैं कि एक परिवर्तन को समझे तब तक नया परिदृश्‍या सामने आ जाता है। कथा प्रविधि इस पल-पल बदलते यथार्थ को पकड़ पाने में कितनी सक्षम है?

हाँ यह बात तो ठीक है। पहले सौ साल में जो परिवर्तन होते थे, अब दस साल में हो जाते हैं, और पहले दस साल में जो परिवर्तन होते थेे अब एक साल में हो जाते हैं। एक टेक्‍नॉलोजी आती है और हम उसे सीखें-सीखें कि वह अॉब्‍सलीट हो जाती है और यह रेपिड फास्‍ट अॉब्‍सलेन्‍स टेक्‍नॉलोजी में ही नहीं, धारणाओं-मान्‍यताओं-मूल्‍यों और मनुष्‍यों में भी है। कोई नहीं जानता कि आज से पाँच साल बाद दुनिया कैसी होगी!

एक तरफ इतनी अनिश्‍चितता और अनप्रिडिक्‍टिबिलिटी (अननुमानेयता) और दूसरी तरफ पारंपरिक यथार्थवाद की घोर प्रिडिक्‍टिबिलिटी ! आप कहिए नर्स, और हम समझ गये कि वह कैसी है। आप कहिए पुलिसवाला और मजाल है हमारी आंखों के आगे शैलेन्‍द्र सागर या विभूति नारायण राय का चित्र आ जाये! आप कहिए सेठ और पाठकों ने मानो उसे देख भी लिया। आगे कुछ कहने की जरूरत ही नहीं। समूचे हिन्‍दी साहित्‍य में न बिलगेट्‌स जैसा एक भी सेठ है न टीना मुनीम जैसी एक भी सेठानी (मुनीम नाम से क्‍या होता है! है तो सेठानी!)

अब कथाकार को इस चुनौती का सामना करना है कि कैसे इनका चित्र उतारे! उसके पक्ष में यह बात है कि वह पत्रकार या संवाददाता या फोटोग्राफर नहीं है। दशक खण्‍ड का भी प्रतिनिधि-सा चित्र बना ले तो पाठक स्‍वीकार कर लेंगे।

इस बीच एक नयी पीढ़ी का आगमन हुआ है जिसके संस्‍कार इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया ने तय किये हैं। जिनके जीवन का मूल मंत्र है Instant Gratification (तुरंत तृप्‍ति) इस पीढ़ी के ध्‍यानाकर्षण हेतु साहित्‍यकार कथ्‍य व शैली के स्‍तर पर क्‍या परिवर्तन अपनाये ?

मीडिया को गाली देना तो ठीक नहीं होगा लक्ष्‍मणजी। यहाँ भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय है जिसमें में युवक-युवतियों को मीडिया के बारे में गंभीर विचार-विमर्श और अध्‍ययन-मनन करते हुए देखता हूँ। व्‍यवसाय का भी अपनी जगह महत्‍व है। मैं तो कहता हूँ विज्ञापन का भी महत्‍व है।

यह सही है कि आज के अनेक रचनाकार व्‍यावसायिकता के दबाव और प्रभाव में हैं और कई बार वे कहानी भी ऐसे लिखते हैं जैसे छब्‍बीस एपीसोड का सीरियल लिख रहे हों, लेकिन हमें तो उनकी निष्‍ठा पर इसलिए भी शक नहीं करना चाहिए कि उन्‍होंने अपनी रचनात्‍मकता की अभिव्‍यक्‍ति के लिए हिन्‍दी जैसी भाषा और लेखन जैसा नॉन ग्‍लैमरस व्‍यवसाय चुना।

बाकी यह भी तय है कि भविष्‍य मेंं साहित्‍य का विकास एक व्‍यवसाय के रूप में ही होगा, मिशन के रूप में नहीं। शैली-शिल्‍प का निर्णय परिस्‍थिति के अनुसार हो जाएगा। बाजार इतनी बड़ी शक्‍ति है कि वह जनता के पाठ अभ्‍यास और पाठ संस्‍कार को भी बदल सकती है। मुझे तो शक है कि यह परिष्‍कृत-नागर और सवर्ण हिन्‍दी-जिसमें हम बात कर रहे हैं, भविष्‍य में रहेगी या नहीं। विक्‍टोरियन अंग्रेजी का उदाहरण सामने है! क्‍या वाट लगायी है इसकी बदलते समय ने!

साहित्‍य सृजन को ही जीविकोपार्जन का साधन बनाने की इच्‍छा हिन्‍दी लेखकों के मन में रही है। विदेशी और भारत की कुछ अन्‍य भाषाओं में यह संभव भी हो पाया है पर हिन्‍दी समाज में एक - दो अपवाद ही हैं, यह संभव नहीं हैं। जबकि हिन्‍दी बोलने-पढ़ने समझने वाले करोड़ों में हैं क्‍या कारण हैं उसके ?

क्‍या पता! शायद हिन्‍दी प्रदेश का भूगोल ही हो। हिन्‍दी के हृदय प्रदेश बिहार राजस्‍थान मध्‍यप्रदेश उत्‍तर प्रदेश की पिछड़ी अर्थव्‍यवस्‍था। वर्षा आधारित कृषि। चारों तरफ से समुद्र से दूरी। व्‍यापक निरक्षरता। फिल्‍म और रंगमंच के केन्‍द्रों से दूरी। व्‍यापार-वाणिज्‍य का पिछड़ापन! (देश के प्रमुख दस में से सात व्‍यापारिक घराने राजस्‍थान के। लेकिन उनका व्‍यापार वाणिज्‍य कहाँ ? अहिन्‍दीभाषी प्रदेश में।) मराठी, कन्‍नड़, मलयालम, तमिल, तेलुगु और बांग्‍ला के श्रेष्‍ठ साहित्‍यकार सहज ही व्‍यावसायिक रंगमंच और सिनेमा से जुड़ जाते हैं। हिन्‍दीवालों के लिए यह दुष्‍कर हैं। और परदेसियों के सम्‍पर्क में आना भी समान रूप से दुष्‍कर।

अब तो यह स्‍थिति है कि तीन सौ प्रतियों के प्रथम संस्‍करण होते हैं, और दूसरा संस्‍करण तो कभी-कभी ही सुनाई देता है।

लेकिन साहित्‍य से जीविका चलाने वालो ने कालजयी साहित्‍य शायद ही कभी रचा हो। साहित्‍य पर बगैर स्‍वार्थ कोई पैसा नहीं लगाता। कहीं चर्च का पैसा है, कहीं दवा उद्योग का, कहीं सीआइए का। फोर्ड फाउण्‍डेशन रॉकफेलर फाउण्‍डेशन क्‍या है? एलेक्‍स हेली को ‘रूट्‌स' लिखने के लिए रीडर्स डाइजेस्‍ट ने पैसा दिया। हमारे यहाँ व्‍यास सम्‍मान कैसे लोगों को मिलता है? राजा लोग पालते थे तो प्रशस्‍तियाँ और विरूदावलियाँ भी लिखवाते थे। सोवियत संघ में क्रांति के बाद लेखक आजीविका की चिन्‍ता से मुक्‍त हो गये, लेकिन क्‍या उनमें से कोई भी क्रांतिपूर्व के साहित्‍यकारों जैसा लिख पाया ? तुलसीदास ने एकाध बार माँगकर खाया होगा या बचपन में कभी एकाध रोज खेलते-खेलते मस्‍जिद के अहाते में उनकी नींद लग गयी होगी, लेकिन जो लिख गये उसका आशय यह लगता है कि लेखक लेन-देन के लफड़े से दूर रहता है। सच्‍चे लेखक के लिए साहित्‍य सृजन परमानन्‍द प्राप्‍ति का माध्‍यम है, आजीविका-फाजीविका क्‍या होती है। पेट तो किसी तरह कुत्‍ता भी भर लेता है।

लक्ष्‍मणजी, मुझे तो साहित्‍य को जीविका का साधन बनानेवाला आइडिया बहुत आकर्षक नहीं लगता।

सोवियत संघ में साम्‍यवादी ढाँचे का ढहना इन लेखकों के लिए बड़ा धक्‍का था जो इसे मार्क्‍सवादी सोच की व्‍यावहारिक प्रयोशाला के रूप में देखते थे, पूँजीवाद के विकल्‍प के रूप्‍ में देखते थे, इस घटना का पूर्वानुमान भी नहीं कर पाये। ऐसा क्‍यों हुआ ?

सोवियत सत्‍ता के पतन की आशंका या अनुमान तो उसके अस्‍तित्‍व में आने के भी पहले से आरंभ हो गये थे। अक्‍तूबर क्रांति के समय बोल्‍शेविक बहुमत में नहीं थे। तुरंत बाद चौदह साम्राज्‍यवादी देशों की सेना ने रूस पर आक्रमण कर दिया था। अपने देश की रक्षा में लगभग अस्‍सी प्रतिशत सबसे अच्‍छे बोल्‍शेविक मारे गये थे। खुद गोर्की कई मामलों में लेनिन से सहमत नहीं थे। हिटलर को साम्राज्‍यवाद का पूरा समर्थन प्राप्‍त था। ऐसी परिस्‍थिति में समाजवाद की ठीक से नींव ही नहीं रखी जा सकी। मजदूरों की बजाय पार्टी नौकरशाही का नेतृत्‍व और विकेन्‍द्रीकरण के स्‍थान पर केन्‍द्रीकरण। छोटे-छोटे बच्‍चे पढ़ने की बजाय कोम्‍सोमोल में भर्ती होकर बड़ों का काम कर रहे हैं। सैनिक आधार पर समाज का गठन करना पड़ा।

एक बात और ध्‍यान देने की है। पूँजीवाद एक वैश्‍विक व्‍यवस्‍था है। एक वैश्‍विक व्‍यवस्‍था का विकल्‍प दूसरी वैश्‍विक व्‍यवस्‍था ही हो सकती है। इसकी संभावना थी। परिस्‍थितियाँ थीं। लेकिन रूस और चीन आपस में ही लड़ लिये। और किस बात पर ? चीन ने कहा हमें एटम बम दो, रूस ने कहा नहीं दूँगा। फिर तो अतिक्रमण और सीमा विवाद और सैद्धांतिक मतभेद और संशोधनवाद और सोवियत साम्राज्‍यवाद सब हो गया। वरना सोचिये। पर्व यूरोप, सोवियत संघ, चीन, कम्‍बोडिया, वियतनाम, लाओस, मंगोलिया, मंजूरिया, कोरिया, इण्‍डोनेशिया, भारत, पाकिस्‍तान, अफगानिस्‍तान, ईराक, ईरान ......॥

आज पीछे मुड़कर देखते हैं तो रूस और चीन का यह व्‍यवहार बहुत बचकाना और गैर जिम्‍मेदाराना लगता है पर आज भी चीन जो कर रहा है- पाकिस्‍तान को पिट्‌ठू बनाकर अनाधिकृत तरीके से भारत की भूमि पर से होते हुए सीधे हिन्‍द महासागर और पश्‍चिम एशिया के तेल क्षेत्र तक पहुँचने की कोशिश - वह क्‍या है़? और यह किस बात का सूचक है ? सिवा दूरान्‍ध नौकरशाही कूटनीति के वर्चस्‍व और दूरंदेश राजनीतिक नेतृत्‍व के अभाव के ?

लेकिन इतिहास में इट्स और बट्स नहीं होते।

मैं तो सोवियत प्रयोग को सत्‍तर साल की असफलता नहीं, सत्‍तर साल की सफलता ही मानता हूँ। बात जरा व्‍यक्‍तिगत हो जाएगी। एक साल मुझे सोवियत लैण्‍ड नेहरू पुरस्‍कार मिलने वाला था। सेावियत संघ एक से अधिक बार हो आये एक मित्र ने कहा-मिल भी जाये तो जाना मत। वहाँ किसी भी दिन कुछ भी हो सकता है।

धटना के बाद वे किस विकल्‍प की खोज में है? इस विकल्‍प का कोई केन्‍द्र भी है? विभिन्‍न बिखरे हुए जनसंधर्ष हैं पर कोई केन्‍द्रीकृत सगंठन-वाद-विचारधारा नहीं है। मार्क्‍सवाद सिद्वान्‍त और विचारधारा के रूप में अभी भी प्रासंगिक है पर व्‍यावहारिक रूप पहनाने की चुनौती विश्‍व स्‍तर पर अभी भी मौजूद है। किस तरह के विकल्‍प आप देख पा रहे हैं।

आप कह रहे हैं कि मार्क्‍सवाद सिद्धान्‍त और विचारधारा के रूप में आज भी प्रासंगिक हैं तो बहुत सोच समझकर ही ऐसा कह रहे होंगे।

लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता।

मुझे लगता है उत्‍पादन कें साधनों और उत्‍पादन के सम्‍बंधो में काफी परिवर्तन हो चुका है मार्क्‍सवाद को अपडेट करना जरूरी हैं।

यह समय संघर्ष और क्रांति का नहीं, अपने हथियारों को ठीकठाक करने का है।

महाश्‍वेता देवी, अरुंधती रॉय जैसा एक्‍टिविस्‍ट लेखन जिसमें जीवन और रचना के बीच भेद न हो....... वही अभीष्‍ट हो नये लेखकों का या एक्‍टिविस्‍ट न होते हुए भी उन सरोकारों को अपने लेखन में स्‍थान देना भी महत्‍वपूर्ण है ? इस संगति के प्रश्‍न पर क्‍या सोचते हैं ?

मुझे लगता है हमारे अनेक युवा मित्र भयंकर रूप से दुविधाग्रस्‍त हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि समाजसेवा अधिक तसल्‍लीबख्‍श रहेगी या लेखन अधिक सार्थक? कुछ चतुराई भी चल रही है मन में कि जवानी के पाँच साल तो चलो हम इसमें इन्‍वेस्‍ट कर देंगे, लेकिन उसके बाद रिटर्न हेण्‍डसम होना चाहिए। अब यह पता नहीं लेखन से होगा या समाजसेवा से। इस दुविधा के चलते वे कभी यह करते हैं कभी वह। और दुख इससे होता है कि दोनों में से एक भी काम ढंग से नहीं कर पाते।

यह जो शब्‍द चला है - एक्‍टिविस्‍ट - जिसका कोई हिन्‍दी पर्याय नहीं है और जो भयानक रूप से दिग्‍भ्रमित करनेवाला पद है - इसने अनेक युवाओं की जिन्‍दगी को बरबाद कर रखा है। इनमें से अधिकांश आज से दस साल बाद पश्‍चिम से पैसे लेकर एड्‌स का प्रचार करते फर्जी एनजीओज में नजर आयेंगे।

किसी को लगता है कि प्रामाणिक और जीवंत लेखन के लिए जमीनी कार्यकर्ताओं से जुड़ना जरूरी है तो जरूर जुड़ना चाहिए, लेकिन इस बात का ध्‍यान रखना चाहिए कि रचना का मूल्‍यांकन तो साहित्‍य के मापदण्‍डों से ही होगा। उस वक्‍त कोई यह नहीं देखेगा कि आन्‍दोलन में आप पीछे खड़े हुए थे या आगे। हमारे लिए तो आज भी अरुंधती रॉय सिर्फ एक पुस्‍तक की लेखिका हैं - केन्‍द्रीय साहित्‍य अकादमी उन्‍हें चाहे जो समझे। और महाश्‍वेता देवी भी हमें एक अंचल के जीवन की खबर देने से ज्‍यादा क्‍या करती हैं ? उनके समग्र लेखन से कौनसा राजनीतिक विचार उभरकर आता है?

वर्तमान समय के उभरते बड़े मुद्‌दे जिनकी तरफ रचनाकारों को और ज्‍यादा तवज्‍जो देना चाहिए।

लक्ष्‍मणजी, पचास साल से यह देश तमाम निरक्षरता, गुरबत और राजनीतिक अनुभव हीनता के बावजूद सिर उठाकर खड़ा था तो सिर्फ इसलिए कि इसके पास एक मजबूत पारंपरिक कृषि आधार था। नव साम्राज्‍यवाद-जिसे लाड़ से भूमण्‍डलीकरण कहा जाता है- समझ गया है कि भारत को गुलाम बनाना है तो उसका मजबूत कृषि आधार तोड़ना पड़ेगा। और यह काम उन्‍होंने शुरू कर दिया है। हजारों किसान एक दिन दाल में नमक कम होने या नाती द्वारा नमस्‍ते न करने के कारण आत्‍महत्‍या नहीं कर रहे हैं। इनकी आत्‍महत्‍याओं के कारण हैं बैंक ऋण, डीजल के बढ़ते दाम और नकली बीढ़ी और जीई बीज। और अब आइटीसी, महेन्‍द्रा और रिलायंस भारी पैमाने पर रिटेलिंग के क्षेत्र में आये है। वालमार्ट और टेस्‍को भी पीछे-पीछे आ रही हैं। आज से पाँच साल बाद भारत में न कोई किसान बचेगा न गाँव न वनोपज न पशुधन। अगर इनकी चली। लेखकों को इस पर तुरंत ध्‍यान देना चाहिए।

अब कुछ साहित्‍य और निजी जीवन संबंधी सवाल पूछ लें ?

जरूर। पर ज्‍यादा गहराई में मत जाइयेगा।

आपने गद्य की लगभग सभी विधाओं में लिखा है - कहानी, उपन्‍यास, नाटक, रेखाचित्र निबन्‍ध..... आपका मन किस विधा में सबसे ज्‍यादा रमता है? विषयवस्‍तु विधा का निर्धारण करती है या विधा चुनने के उपरान्‍त इसके अनुरूप कथ्‍य चुनते हैं ?

सच बात तो यह है कि सबसे ज्‍यादा मजा मुझे दोस्‍तो को लम्‍बे-लम्‍बे पत्र लिखने में आता है। अंतरंग मित्रों को पत्र लिखना गर्मियों की दोपहर में किसी झरने में नंगे नहाने जैसा है। कुछ दिखाना नहीं है, कुछ छिपाना भी नहीं है। भाषा-व्‍याकरण भी जाये भाड़ में। मूर्खता की बड़ी से बड़ी बात जहाँ निस्‍संकोच कही जा सकती है। और लिखते-लिखते क्‍या शानदार विचार, उपमाएँ, कल्‍पना, बिम्‍ब, गुदगुदाते फिकरे, रसीली गालियाँ आती है अहा! मित्रों ने बड़ी संख्‍या में मेरे पत्र सम्‍हालकर रखे हैं। पता नहीं क्‍यों। पिछले इन्‍दौर गया तो एम ए में पढ़ रही मज्‍जू की बेटी ने मुझे कुछ पोस्‍टकार्ड दिखाये। सन 64-65-66 आदि। मैंने नये साल की शुभकामनाएं भेजी थी। हर पोस्‍टकार्ड में कुछ-कुछ करते हुए दो बड़े क्‍यूट से गधे बने हुए हैं।

विधा चुनकर उसमें कथ्‍य फिट करना तो कफन के नाप का मुरदा ढूंढने जैसा है।

आप मुंबई के जीवन पर उपन्‍यास लिखते हैं ..... महानगरीय जीवन आपको बहुत पसन्‍द नहीं ... संधान' कहानी में आमने-सामने रखते हैं दोनों को...... फिर भी भोपाल ? क्‍यों चुना महानगर ?

भोपाल महानगर नहीं है। सोलह लाख का मझोला-सा शहर है। इन्‍दौर से भी छोटा। उम्र भी ज्‍यादा नहीं। यही कोई पचास-साठ साल। हाँ, राजधानी जरूर है।

उड़ीसा भी रहे। वहाँ के जीवन प्रवास पर कुछ नहीं लिखा आपने ?

दो-तीन कहानियाँ तो लिखी थी। मसलन बील, नेताजी का चश्‍मा, अफसर की मौत वगैरह। आजकल उड़ीसा के संस्‍मरण ही लिख रहा हूँ।

आपने पार्टी का अखबार बेचा, प्रलेस के सदस्‍य बने, कहानी लिखी और अब वसुधा' का सम्‍पादन कर रहे हैं। कितनी प्रासंगिकता है इन चीजों की?

अपने-अपने समय में, अपने-अपने स्‍थान पर हर चीज की प्रासंगिकता है यही क्‍यों बच्‍चों को पढ़ाया भी, अपना अखबार भी निकाला, नाटकों का निर्देशन भी किया, यूनियन में भी काम किया, यूनियन में भी काम किया। लेकिन लाठी नहीं खायी, सिर नहीं फुड़ाया, जेल नहीं गया, भूखा नहीं रहा। अंत में यही लगता है कि जितना कर सकते थे। उतना नहीं किया। आलस्‍य में बहुत समय गँवा दिया। हाँ, लेकिन मजा बहुत आया।

बच्‍चों की पत्रिका चकमक' का आपने सम्‍पादन किया। यह अनुभव कैसा रहा ?

बहुत शिक्षाप्रद। लेकिन कुछ हताश भी करनेवाला। मेंने अपने बहुत सारे साहित्‍यकार मित्रों से बच्‍चों के लिए लिखने को कहा। कइयों ने मेरे कहने से लिखा भी, लेकिन इसे प्रकाशन योग्‍य नहीं पाया गया। बच्‍चों के लिए लिखना बहुत कठिन ओर चुनौतीपूर्ण है। लेकिन जरूरी भी।

वसुधा' का सम्‍पादन कर रहे हैं। साहित्‍य की पत्रकारिता कैसी है? कैसी चाहिए ? क्‍या यह सच है कि सम्‍पादक भी एक शक्‍ति केन्‍द्र बनता जा रहा है ?

मेरे पास दस साल की पहल, तद्‌भव, कथन, उद्‌भावना, आलोचना रखी हैं। कभी मन नहीं किया कि किसी को दे दें या रद्‌दी में बेच दें। यह किस बात का सूचक है? जिन्‍दा साहित्‍य से जिसे परिचित होना है उसका काम साहित्‍यिक पत्रिकाओं के बगैर चल ही नहीं सकता। जहाँ तक सम्‍पादक की भूमिका का सवाल है, मेरा खयाल तो यह है कि उन्‍हें जितनी सख्‍ती करना चाहिए उतनी वे नहीं करते।

उम्र के इस पड़ाव पर पीछे मुड़कर आप देखते हैं तो अपनी लेखकीय यात्रा के कौन से मुकाम महत्‍वपूर्ण नजर आते हैं जिन्‍हें आप रेखांकित करना चाहें ?

ज्‍यादा मुड़-मुड़कर देखेंगे तो आगे नहीं बढ़ पायेंगे। और पीछे देखते हुए आगे बढ़ने की कोशिश की तो ठोकर खायेंगे।

.................... ‘उम्र के इस पड़ाव पर' ............ मध्‍यांतर हो गया है। इण्‍टरवल के बाद अक्‍सर फिल्‍म सीरियल हो जाती है। इसलिए अब ऐसा लिखना है जो रोचक और सार्थक ही न हो, अंततः मूल्‍यवान भी सिद्ध हो। आशीर्वाद दीजिए कि मैं ऐसा कर पाऊं।

------

स्‍वयं प्रकाश

ई-3, अरेरा कॉलोनी भोपाल 462039

------

लक्ष्‍मण व्‍यास

33/3, ग्रीन सिटी, गांधी नगर

चित्तौड़गढ़-312001

----

साभार -

PALLAV, BANAAS, 403 B 3, VAISHALI APARTMENTS, SEC. 4, HIRAN MAGRI,

UDAIPUR 313002

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: प्रख्‍यात कथाकार स्‍वयं प्रकाश के साथ लक्ष्‍मण व्‍यास की बातचीत
प्रख्‍यात कथाकार स्‍वयं प्रकाश के साथ लक्ष्‍मण व्‍यास की बातचीत
http://lh4.ggpht.com/_t-eJZb6SGWU/STlYNisorEI/AAAAAAAAFU4/j4PT-i7WRos/swayam%20prakash%20%28WinCE%29_thumb.jpg?imgmax=800
http://lh4.ggpht.com/_t-eJZb6SGWU/STlYNisorEI/AAAAAAAAFU4/j4PT-i7WRos/s72-c/swayam%20prakash%20%28WinCE%29_thumb.jpg?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2008/12/blog-post_06.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2008/12/blog-post_06.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content