शरद तैलंग का व्यंग्य : दूध है कि मानता नहीं

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दूध है कि मानता नहीं   ०शरद तैलंग   पुराने या बुजुर्ग लोगों का यह आदर्श वाक्य है कि हमें दूध पीना चाहिए क्योंकि दूध पीने से मनुष्य...

दूध है कि मानता नहीं

 

०शरद तैलंग

 

पुराने या बुजुर्ग लोगों का यह आदर्श वाक्य है कि हमें दूध पीना चाहिए क्योंकि दूध पीने से मनुष्य में ताकत आती है हालांकि इसी ताकत को बाद में युवा लोग उन्हीं बुजुर्गों से लड़ने झगड़ने के काम में प्रयोग में लाते हैं। यदि किसी विज्ञापन की भाषा में बात करें तो कह सकते हैं '' दूध पियें क्योंकि इसमें जान है।“ लेकिन दूध पीने की प्रकिया मात्र इतनी सी ही नहीं है कि दूध लिया और पी लिया तथा ताकत ग्रहण कर ली इसके लिए बड़ी तपस्या करनी पड़ती है।

यह भी हम सब जानते हैं इस दुनियां में जो नर हैं उन्हें अपने मन को निराश नहीं करना चाहिए तथा कुछ काम करना चाहिए अर्थात विवाह करना चाहिए और जब विवाह होगा तो जाहिर हैं उनकी पत्नी भी आएगी और जब पत्नी आएगी तो वह यदा कदा मायके भी जाएगी जब वह मायके जाएगी तो पति को स्वयं ही खाना या तो बनाना पड़ेगा या बाज़ार में खाना पड़ेगा खाना तो चलो वह बाजाऱ में खा लेगा किन्तु सुबह सुबह उठते ही उसे चाय भी तो चाहिए । वैसे पुरूष चाहे कितना ही कामचोर या अक्खड़ किस्म का क्यों न हो चाय तथा खिचड़ी बनाने का गुण तो उसे जन्मजात से ही मिला हुआ होता है। उसकी सबेरे सबेरे चाय पीने की आदत के कारण ही सुबह हुई नहीं कि सबसे पहले तो दूध वाले का इन्त़जार करो। जो लोग ऐसा करते हैं वे इस कथन को बिलकुल बकवास समझते हैं कि इन्तज़ार का मज़ा ही कुछ और है'। इसमें कोई मज़ा वज़ा नहीं आता जिनको आता है वे शायद दूध नहीं पीते होंगे।

दूध के विषय में भी लोगों में यह भ्रान्ति फैला दी गई है कि उसे आते ही गर्म करके उफान लेने से वह फटता नहीं है मनुष्य का स्वभाव इसके विपरीत है उसमें उफान आते ही वह फट पड़ता है और दूसरों को फाड़ने के लिए आतुर हो जाता है। घर में अकेले होने पर यह सबसे बडा प्रश्न सम्मुख खडा रहता है कि दूध कितना लेना है हालॉकि प्रश्न दिखता तो नहीं है कि वह खड़ा है हो सकता है कि वह बैठा हुआ हो जब दिखता नहीं है तो क्या भरोसा खड़ा है कि बैठा है फिर भी हम मान लेते है कि वह खड़ा है। यदि एक पाव लेते हैं तो कम रहता है आधा लीटर लेते है तो बच जाता है जो प्रतिदिन थोड़ा थोड़ा एकत्रित हो कर बूंद बूंद से घड़ा भरने वाली कहावत को सिद्ध कर देता है परन्तु मेरी समस्या दूध की मात्रा या उसके उपयोग को ले कर नहीं है वरन्‌ उसे उफान लाने के लिए गर्म करने को ले कर है।

आपने दूधवाले से दूध ले लिया और उसे गैस के चूल्हे पर चढ़ा दिया ।अब आप प्रतीक्षा कर रहे है कि दूध में उफान आए तो आपका अनुष्ठान पूरा हो। आपकी स्थिति रेलवे स्टेशन पर खड़े उस यात्री की तरह हो रही है जिसे ट्रेन के आने का इन्तज़ार करना पड़ रहा है पर वह आ नहीं रही है। आपको भी उफान के आने का इन्तज़ार है पर वह भी नहीं आ रहा है । आपके दिमाग में ही उफान आ रहा है। दूध है कि किसी तपस्वी की तरह शान्तचित्त अपनी तपस्या में लीन है । आप उस पर कितना ही खीज क्यों न खाए उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। इन्तज़ार की घड़ियॉं रिस्ट वॉच से बढ़ कर दीवार घड़ी बनती जा रही है पर दूध है कि मानता ही नहीं। दूध भी सोचता रहता है कि खड़े रहो बेटा लेते रहो इन्तज़ार का मज़ा । इस बीच आपको कोई काम याद आ जाता है या यह विचार मन में आ जाता है कि कहीं बाहर का दरवाजा खुला न रह गया हो देख लिया जाए और आप जल्दी से यह देखने थोड़ी देर के लिए बाहर चले जाते हैं बस सारी गड़बड़ यहीं से शुरू हो जाती है। दूध जैसे ही देखता है कि अब अपुन को देखने वाला कोई नहीं तो वह किसी कैदी की भॉंति चल पड़ता है कारागार की दीवारों की सारी सीमाएं लांघ कर दूसरी दुनिया की सैर करने । आप जब जल्दी से काम निपटा कर वापस आते हैं तब तक मालूम पड़ता है कि चिड़ियॉं तो खेत को चुग ही गईं हैं। आपका गैस का चूल्हा भी दूधो नहाओ हो चुका हैं।

वैज्ञानिकों के सामने भी यह समस्या अवश्य आई होगी क्योंकि उनकी भी शादी हुई होगी उनकी पत्नी भी मायके गई होगी उन्होनें भी दूध उफान लिया होगा और उनके साथ भी ऐसा हादसा हुआ होगा। वे भी लग गए होगे इस समस्या का हल खोजने और इस समस्या का हल उन्होने खोज निकाला भी । कुछ समय पूर्व बाजार में एक ऐसा पात्र प्रचलन में आया जिसकी दो दीवारें होतीं थीं । दोनों दीवारों के बीच एक छेद में से वर्तन में कुछ पानी डाला जाता था तथा उस छेद में एक सीटी फिट कर दी जाती थी। जब दूध गर्म हो जाता था तो बाहरी दीवारों में भरा हुआ पानी भी गर्म हो कर भाप में परिवर्तित हो कर सीटी को बजाता था जिससे मालूम हो जाता था कि दूध गर्म हो गया। उस पात्र की एक विशेषता यह भी थी कि चाहे कितनी भी देर गर्म होता रहे दूध बर्तन से बाहर उफनता नहीं था । कितना आसान तरीका था कि दूध को गैस चूल्हे पर रख कर आराम से पडोसिन से गप्पें लडाओ। अब भले पत्नी महीनों तक मायके में बैठी रहे कोई समस्या नहीं। परन्तु परम्पराएं भी तो कोई चीज़ होती है । आधुनिकता की चकाचौंध के वशीभूत हो कर हम अपने रीति रिवाज़ तो नहीं बदल सकते है । हमारी परम्परा है कि जब तक दूध उन फौजियों की तरह जो धीरे धीरे चुपके चुपके चलते चलते अपने दुश्मन पर एकाएक आक्रमण करके मलाई को बाहर तक न खदेड़ दे और उनकी सीमा में प्रवेश कर अपनी सीमा का उल्लंघन न कर जाए तब तक आनन्द कहां ।

यह क्या बात हुई कि किसी बच्चे की तरह जिसने अपनी कुछ शंकाओं का निवारण कर लिया हो एक जगह पडे पड़े चिल्लाए जा रहे हो और किसी पर उसकी इस चीख पुकार का कोई असर नहीं हो रहा।सब उसको अकेला छोड़कर अपने अपने कार्यों मे व्यस्त हैं। यह वीरों की भूमि है यहॉ चाहे रक्त में हो या दूध में उफान आता देख कर वीर रस से ही लोगों मे उत्साह तथा जोश पैदा होता है न कि शान्त रस से । भला ऐसे दूध पीने से क्या फायदा जिसमें उफान ही न आया हो । नहीं चाहिए हमें ऐसा पात्र जो किसी दूध में उफान तक न ला सके । ऐसा दूध किसी नौजवान को क्या तन्दुरूस्त बनाएगा जिसमें खुद ही उफान न आए । अब हम अपनी पत्नी के ताने भी नहीं सहेंगे कि हमें दूध उफान लेना नहीं आता । अब हम सारे काम छोड़ कर तब तक वहीं खडे़ रहेंगे जब तक दूध में उफान न आ जाए ।हम दूध पियेंगे तो उफान लेकर ही पिएंगे । हम अपनी परम्पराएं नहीं छोड़ सकते ।

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. मजेदार व्यंग्य के लिए शरद जी को बधाई। उन का दूध का अनुभव व्यापक है। मेरे जैसे नौसिखिये ने तो दूध गरम करने के वैज्ञानिक बरतन में दूध गरम किया तो पहली बार में ही बरतन जल गया उस में एक छेद हो गया। पता लगा उस में बीच में एक जगह थी जहाँ पानी भरना था। उस के बाद कसम खाई और आज तक भगोनी ही इस्तेमाल कर रहे हैं।

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रचनाकार: शरद तैलंग का व्यंग्य : दूध है कि मानता नहीं
शरद तैलंग का व्यंग्य : दूध है कि मानता नहीं
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