कहानी : दुलारी

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- विजय शर्मा जम कर उसकी कुटाई करने के बाद अब थक-हार कर बूढ़ा खों-खों कर खाँस रहा था. खाँसते-खाँसते बेदम होकर हांफ रहा था. ऊपर की साँस ...


- विजय शर्मा

जम कर उसकी कुटाई करने के बाद अब थक-हार कर बूढ़ा खों-खों कर खाँस रहा था. खाँसते-खाँसते बेदम होकर हांफ रहा था. ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे. आँखें कोटरों से निकली पड़ रहीं थीं. खाँसी रुकने का नाम नहीं ले रही थी. लग रहा था हर अगली साँस के साथ प्राण भी बाहर निकल जाएँगे, लेकिन हर साँस के साथ बाहर निकल रहीं थीं गालियां और कोसना. बूढ़ा रुकती-अटकती साँस और धौंकनी-सी चलती छाती और खाँसी के बीच कोसता जा रहा था दुलारी और जाड़े के मौसम को. दुलारी ने अँगीठी से गरम ईंट का टुकड़ा निकाल साड़ी में लपेट बूढ़े की पसलियों से सटा कर रख दिया, साथ ही उसकी पीठ और छाती सहलाने लगी. उसे बूढ़े पर दया आ रही थी, साथ ही आ रहा था गुस्सा. दया आ रही थी हाँफती, खाँसती, दोहरी होती काया पर, उसकी अटकती साँस पर और बलगम में जाते खून को देख कर. गुस्सा आ रहा था अपनी दुखती नील पड़ी देह पर, माथे के गूमड़ के दरद पर. मुआ मरता नहीं, मर जाए तो पिंड छूटे. थोड़ी देर पहले उसे बूढ़े ने खूब पीटा था. मारते समय इन बूढ़ी हाड़ात में न जाने कहाँ से इतनी ताकत आ जाती है. मारेगा तो मारता चला जाएगा. दुलारी मार खाती चली जाएगी. शरीर पर नील उभरने देगी, माथे पर गूमड़ पड़ने देगी, खून बहने देगी. हाथ पैर तुड़वा लेगी पर उलट कर कभी वार नहीं करेगी. जब बूढ़ा मार-पीट कर पस्त हो जाएगा तो उसकी तीमारदारी में जुट जाएगी.

बूढ़ा शाम से खुन्नस खाए बैठा था. दारू के नशे में झूमता हुआ आया और आते ही हुकुम बजाया, ``रोटी ला!'' रोटी खा दुलारी को झिलगी खाट पर खींच ले गया. दुलारी कसमसाई, आनाकानी करने लगी. बस फिर क्या था शुरू हो गया बूढ़ा, आव देखा ना ताव, लगा पीटने और बकबक करने, दिन भर हाड़-तोड़ कर रिसका चलाता हूँ , घर बैठा कर राज कराता हूँ , साली नैना मटक्का करती है सारे दिन. हराम की खाने की लत लग गई है. दूसरी लुगाइयों की तरह घरों में जा कर जूठे-बासी बरतन नहीं माँजने पड़ते हैं, दूसरों का जूठा-बासी नहीं खाना पड़ता है, इसी वास्ते चर्बी चढ़ गई है, अच्छा खाने पीने को मिलता है, फिर भी नखरे देखो, साली हाथ नहीं लगाने देती है.''

दुलारी गुड़ी-मुड़ी बैठी थी हाथ की ओट से चेहरा छिपाए. बूढ़ा लात-हाथ चलाता हुआ झोंक में बोले जा रहा था. ``नकसा दिखाती है. चौखटा न बिगाड़ दिया तो कहना. सब जानता हूँ तेरी काली करतूत. सब मालूम है तेरे चरित्तर. उस रंडुए सीतला के संग आसनाई साध रही है, सारी मस्ती झाड़ दूंगा आज. जवानी का गुरूर दिखाती है. बहुत देखी हैं मैंने तेरी जैसी.'' हाथ लगी दातुन से दुलारी को धुनते-धुनते वह थकने लगा. हाँफने-खाँसने लगा. दौरा पड़ने पर खाट पर लुढ़क गया. खाँसी उसे जकड़ चुकी थी.

आए दिन का यही नियम था. रात को किसी-न-किसी बात पर बूढ़ा उखड़ जाता, दिन भर का अपमान और शराब के नशे की कसर दुलारी को मार कर पूरी करता. कोई न कोई बहाना खोज लेता. कभी रोटी ठीक नहीं सिंकी होती, कभी सालन पतला होता, कभी सब्जी खतम होने के पहले दुलारी ने बूढ़े के बिना मांगे और सब्जी थाली में क्यों न डाली. खाते समय नहीं तो सोते समय तो मारने-पीटने का सिलसिला पक्का था. दुलारी ने जरा न नुकुर की और बूढ़े का पारा चढ़ा. बूढ़े का हाथ खुजलाता रहता करती पर दुलारी की धुलाई करने के लिए. दुलारी पहले हाथ-पाँव सिकोड़ती, बचने की कोशिश जल्दी ढीली पड़ जाती. मार-मार कर बूढ़ा बेहाल कर देता दुलारी को और खुद भी बेदम हो जाता दमे से. जब वह खाट पकड़ लेता तब दुलारी शुरू होती. अपना दुख-दरद भूल कर जुट जाती बूढ़े की दवा-दारू में . कराहती, लँगड़ाती उठती, तेल गरम कर बूढ़े की छाती पर मलती, कभी गरम तवे पर कपड़े की तह जमा कर छाती पीठ सेंकती, कभी गरम ईंट से पसलियाँ गरमाती. आज भी जब बूढ़े की साँस तनिक थमी तो दुलारी उसे कथरी उढ़ा, खुद चूल्हे के पास आ बैठी. बुझते अलाव की सेंक चोटिल बदन को आराम देने लगी और मार खाई, भूखी-प्यासी दुलारी वहीं कच्चे फर्श पर गुड़ी-मुड़ी लुढ़क गई.

कुल जमा सोलह साल की है दुलारी. सोलहवां साल, कमसिन लड़की. दुलारी पर दृष्टि दौड़ाने पर नहीं लगता है उसने सोलह बसंत देखें हैं. हाँ देखने पर यह जरूर दिखता है कि सोलह गर्मी, सोलह वर्षा झेली है उसने. वर्षा और गर्मी ने प्रभाव डाला है दुलारी पर और भरपूर कामयाबी मिली है पतझड़ को. तेल के अभाव में रूखे, भूरे, उलझे बाल. सूखी चमड़ी, अधखायी काया. सोलह साल होने पर भी शरीर में भराव नहीं, पतली कमर पर सपाट छाती और पिचका पेट सौंदर्य नहीं जगाता है. यौवन गरीबी के कारण दूर ठिठका खड़ा है. फिर भी एक खास तरह का आकर्षण है दुलारी में. उसका मन, उसकी आँखें अभी बचपन नहीं छोड़ पाई हैं. भोलापन और सरलता चिपकी हुई है, अभी गई नहीं है उसकी चपलता, चंचलता, उसका खिलन्दड़ापन. दिन भर दौड़ती-कूदती रहती है. मौका लगते लड़कों के संग गिल्ली-डंडा खेलती है. डंडे से एक बार में गिल्ली को तीन बार तिड़तिड़ा देना उसके बाएं हाथ का खेल है. जीतने के लिए लड़के उसे अपनी पाली में रखने को झगड़ते हैं. पतंग काट कर ढेरों मंझा लूट बटोर लेती है दुलारी. इन्हीं कमाल के फुर्तीले कौशलों का पुरस्कार बूढ़े से उसे जब-तब मिलता रहता है. बाँह मरोड़ कर हाथ-पैर तोड़ कर कोठरी में डाल देने की धमकी वह बराबर देता रहता है. मुँह से पीछे बोलेगा हाथ-पैर पहले चलाएगा. दिन में इसकी नौबत बहुत कम आती है. सुबह होते बूढ़ा रिक्शा ले कर निकल जाता है और फिर दिन की दुलारी को काबू करना कोई हँसी ठट्ठा नहीं है. दिन उसका होता है. दिन की दुलारी कोई और होती है. परंतु रात बूढ़े की होती है. दारू के नशे में झूमता, बड़बड़ाता, दुलारी के बाल पकड़ कर खींचता, पीटता बूढ़ा और चुपचाप पिटती दुलारी. कोई कोर-कसर नहीं छोड़ता है बूढ़ा. रात को पिटती दुलारी के मन में उलट कर वार करने, अपने को बचाने का ख्याल न आता. जर्जर बूढ़े को डंडे से गिल्ली की तिड़तिड़ा देने में कितना समय लगेगा. उल्टे हाथ का एक धक्का दे दे दुलारी तो भरभरा कर बूढ़ा चार हाथ दूर जा गिरे और फिर कभी ना उठे. पर नहीं रात की दुलारी उसका प्रतिकार नहीं करती मार खा-खाकर बड़ी सख्त जान हो गई है वह. बूढ़ा कहता है ``बड़ी बेसरम है हरामजादी, दो दिन में सारी मार भूल जाती है. कुटम्मस न करो तो काबू में नहीं रहे.'' इसीलिए वह जब तब दुलारी को ठोंकता रहता है. बूढ़े को विश्वास है कि तभी वह बस में रहती है. ``ठुकाई की आदत पड़ गई है साली को.'' रात की दुलारी दिन की दुलारी से अलग होती है. मार खाती, बूढ़े की हवस का शिकार होती, गुड़ी-मुड़ी सोती, एक दूसरी औरत होती है दुलारी.

दिन की दुलारी पेड़ पर चढ़ती. अमरूद तोड़ती, खाती, नीचे गिराती नीचे खड़ी बाल-मंडली को खिलाती, खिलवाड़ करती कोई और ही छोकरी होती है वह दुलारी. तब बच्चों के साथ लौंडे-लपाड़े भी आ जुटते हैं पेड़ के आस-पास. शैतान इतनी है कि कभी भी एक भी साबुत अमरूद नीचे नहीं गिराएगी. पहले दाँत से खुद कट्टा लगाएगी, मन किया तो पूरा खा जाएगी या झोली में रख लेगी. अगर मन में आया तो नीचे खड़ी टोली की ओर उछाल देगी. बच्चे बुरा नहीं मानते उसके दाँत काटे अमरूदों का. उन्हें अमरूद से सरोकार होता है, झूठे-मीठे से मतलब नहीं होता. छोकरों को उसके अधखाए अमरूदों में ज्यादा रस आता है. दुलारी दूसरों के रस-रंग से दूर पेड़ की इस डाल से उस डाल चढ़ती, फुँनगी छूती, फलाँगती, अमरूद तोड़ती खाती, गिराती, खिलाती अपने आप में मस्त रहती है. कमर में साड़ी का फेंटा दिए आँचल को झोली की तरह खोंसे पेड़ पर चढ़ती-उतरती नटखट दुलारी और रात को घुटनों में सिर दिए मार खाती दुलारी में कोई साम्य नहीं होता है.

दिन में उसे बैठने के लिए खाट, मचिया या जमीन रास नहीं आती है, जब बैठेगी कूद कर दीवाल पर चढ़ कर पैर लटका हिला हिलाकर गप्पें मारेगी मजे में. या फिर अकेली हुई तो दीवाल के दोनों ओर पैर डाल कर कंकड़ियों से गोटी खेलेगी. लड़के जुट गए, वे जुट ही जाते हैं तो कंचे खेलेगी. दिन की दुलारी बड़ी फुर्तीली होती है चटपट चूल्हा सुलगा दाल-भात राँध लेगी, कोठरी झाड़-पोंछ-लीप लेगी, नल से पानी भर लाएगी, कपड़े कूट-पींछ लेगी. देखने वाले को वह हमेशा खेलती, कूदती, हँसती-बतियाती फुरसत में नजर आती है. यही दुलारी रात को पिटते समय चूँ नहीं करती है, शरीर पर नील और सूजन लिए सोती है.

दिन भर शरारत करने वाली चाहे तो रात को बूढ़े का सिर दीवाल से टकरा कर सारा किस्सा तमाम कर सकती है, सारी बलाओं से छुटकारा पा सकती है. परंतु रात की दुलारी ने मार खाते जाना स्वीकारा हुआ है. वह अपनी जिन्दगानी को दो टुकड़ों में जीने की आदी हो गई है. रात को खेलना-कूदना भूल कर मार खाती जाना. दिन होते दुखते हाड़ को पीछे छोड़ खेल-कूद में लग जाना. मानों दो अलग-अलग आत्माएं एक शरीर में वास कर रहीं हों.

दुलारी बूढ़े की तीसरी बीबी है. पहली बीबी बरसों पहले पहलौटी की सौरी में बच्चे के साथ मर गई. दूसरी पिछले बरस जहरीली शराब पीने से मर गई. पिछले बरस जहरीली दारू पीने के कारण बस्ती के ढेरों लोग मरे थे. दुलारी के माँ-बाप भी. कई उसी रात लुढ़क गए, कई अस्पताल ले जाते हुए रास्ते में टें बोल गए. बहुतेरे अस्पताल पहुँच कर दो-तीन दिन के भीतर मरे. एकाध चंगे हो कर लौटे जिन्हें पुलिस पकड़ कर ले गई. सूनी हो गई थी बस्ती. उसका भाई कई दिन अस्पताल में पड़ा रहा. माँ-बाप की लाश दूसरों ने ठिकाने लगाई. बहुत दिनों तक पुलिस की पूछताछ चली. भाई की हालत थोड़ी अच्छी होने पर वहीं से उसे पुलिस ले गई. महीना भर अखबार वाले, फोटो वाले, वीडियो वाले, पुलिस, नेता समाज वाली बहनजी और न मालूम कौन कौन चक्कर लगाते रहे, आते-जाते रहे पर शराब पी कर मरने वाले वापस न आए. इसी बीच दुर्गा पूजा आ कर चली गई. बस्ती पर मुर्दनी छाई रही. किसी- किसी परिवार के सब लोगों का सफाया होने से झोपड़ी भुतही बन गई थी. किसी का पति मरा, किसी की माँ, किसी का बेटा, किसी का भाई. हर घर में मौत डोली थी; हर घर में कोई न कोई मरा था. लाइन से रखी कफन लिपटी लाशों की तस्वीरें अखबारों में छपी थीं. कल के लड़ते-झगड़ते, हँसते- कुछ दिनों में बस्ती फिर अपने ढर्रे पर आ लगी. दारू भट्टी चालू हो गई, शराब बनने-बिकने लगी. लोग

पीने-पिलाने लगे, पीकर गाली-गलौज, मार-पीट करने लगे. अस्पताल और पुलिस से छूटकर भाई जब लौटा तो दुलारी ने सोचा था कि अब वह दारू को हाथ नहीं लगाएगा. परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ. भाई दारू के अड्डे पर नियमित जाने लगा. तीन महीने के अन्दर भाई ने कुछ ले-दे कर दुलारी को बूढ़े के गले बाँध दिया. बूढ़ा कहता उसने रुपए लुटा कर मुसीबत मोल ली है. दुलारी के मन में बूढ़े के प्रति ममता, दया, दुलार था और था गुस्सा, पर बदले की भावना उसके मन में कभी न उठती. वह सोचती उसी जहरीली दारू को पीकर बूढ़ा मर क्यों न गया. छुट्टी हो जाती. फिर तुरंत दाँतों से जीभ काट लेती उसकी आँखों के सामने तड़पते, छटपटाते, मरते, ठंडे होते शरीर घूम जाते. रोते-पीटते, छाती कूटते लोग घूम जाते. कहाँ होती है छुट्टी.

वह अपनी छुट्टी राधे के साथ चाहती थी. राधे के साथ मर जाना चाहती थी वह. राधे जैसा बीस साल का गबरू जवान तीन दिन तक मौत से लड़ता रहा अस्पताल में, पर हार गया. जीत हुई जहरीली शराब की. माँ बाप के लिए दुलारी के आँसू सूखे नहीं थे तभी चौथे दिन राधे का मुर्दा शरीर बस्ती में आया. पछाड़ खा कर गिर पड़ी थी वह. बहुत रोई थी वह राधे के लिए. अब आँसू नहीं आते, रोए तो किसके लिए वह. बूढ़ा सारी रात खाँसता है पर मरने के कोई आसार नहीं हैं.

शाम को जब वह अमरूद तोड़ रही थी पेड़ पर चढ़ा कर, बच्चों के साथ पेड़ के नीचे सीतला भी खड़ा था, उससे अमरूद माँग रहा था. सीतला की बीबी उसी जहरीली शराब की भेंट चढ़ गई थी उसी रात. दुलारी को सीतला अच्छा नहीं लगता, फिर भी वह उसे अधखाए अमरूद दे रही थी. तभी रिक्शा टेकता बूढ़ा उधर आ निकला. बूढ़े को देखते सीतला खिसक लिया. बच्चे इधर उधर हो लिए. दुलारी भी पेड़ से उतर आई. बूढ़े ने उसकी बाँह मरोड़ कर पकड़ी और घसीटता हुआ कुठरिया में ले आया. दुलारी को कोठरी में पटक बड़बड़ाता अड्डे पर चल दिया. थोड़ी देर बाद उठकर दुलारी ने रोटी बनाई. रात घिरने पर बूढ़े ने लौट कर रोटी मांगी. रोटी खा कर वह दुलारी को बिस्तर पर खींच ले चला. दुलारी के आनाकानी करने पर बूढ़े ने उसकी गत बना दी. लात-हाथ दातून से मारते- धुनते वह बेदम हो खाँसने लगा उत्तेजना से उसका दमा उखड़ गया था. बाद में दुलारी ने उसकी सेवा की, कथरी उढ़ा कर सुलाया और दुखते बदन आग की गरमाहट पा जमीन पर सो गई.

जब दुलारी की आँख खुली तो ठंडे फर्श पर उसका शरीर तप रहा था. बदन पर जगह-जगह खून छलछला आया था, सूजन थी, माथा टटोला वहाँ गूमड़ था. उसने करवट लेनी चाही तो बदन मार और सर्दी से अकड़ा हुआ था. धीरे धीरी बदन की जकड़न खुलने लगी, सुबह होने वाली थी दुलारी उठ बैठी. बाहर से बच्चों का शोर सुनाई दिया. दुलारी दरवाजा खोल कर चौखट पर खड़ी हो गई. बाहर बड़े-बड़े ओले गिर रहे थे. बच्चे उन्हें बटोरने के लिए होड़ कर रहे थे, किलकारियाँ भर रहे थे. ओलों और बच्चों ने दुलारी को पूरी तरह जगा दिया उसकी आँखों में चमक आ गई. चारों ओर सफेदी की चादर बिछी हुई थी ओलों से सारी धरती पटी पड़ी थी. दुलारी बच्चों के साथ ओले बीनने लगी. सब मिलकर ओले चुन रहे थे, खा रहे थे, हंस रहे थे, खिलखिला रहे थे. बड़े-बड़े, ठंडे-ठंडे ओले, सफेद-सफेद ओले, हथेली पर रखते गल कर पानी बन जाने वाले ओले. मुट्ठी में पकड़े गलते ओलों की ठंड से पुलकित-सिहरित दुलारी बच्चों के साथ हँस रही थी, किलकार रही थी. सुबह हो चुकी थी दिन निकल रहा था.

(गूंज में पूर्वप्रकाशित)

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रचनाकार: कहानी : दुलारी
कहानी : दुलारी
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