कहानी - सिंडिकेट

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कहानी सिंडिकेट -प्रभात शुंगलू ''अरे रवि, स्टोरी जल्दी कटवा लीजिएगा. आपकी स्टोरी पहले सेगमेंट में ही लगी है.'' ...


कहानी


सिंडिकेट

-प्रभात शुंगलू

''अरे रवि, स्टोरी जल्दी कटवा लीजिएगा. आपकी स्टोरी पहले सेगमेंट में ही लगी
है.'' वैभव की आवाज़ में तल्ख़ी ज्यादा, गुज़ारिश कम थी.


रवि को पता था वैभव के आप कहने का मतलब. कहने को दोस्त. दोनों का एक-दूसरे के घर आना-जाना भी था. लेकिन काम के समय न जाने कैसे वैभव बिल्कुल बदल जाता. बहुत फॉर्मल. जैसे वह मेरा बॉस हो और मुझे डेडलाइन की अहमियत समझा रहा हो. आप-आप कर बात करता था.


''हां-हां, हो जाएगी'' रोज़ की तरह रवि का उस दिन भी यही जवाब था. साथ में पुनीत है. इसलिए स्टोरी समय पर एडिट हो जाएगी, रवि को विश्वास था. बुलेटिन रोल होने में अभी दस-बारह मिनट थे, जब वैभव दनदनाता हुआ एडिट रूम में घुसा.

''कहां है स्टोरी...?'' ऐसे पूछा मानो उसका पर्स मैंने चुरा लिया हो.
''हां, हो रही है, बस पांच मिनट और...''
''नहीं-नहीं जल्दी दीजिए...बुलेटिन रोल होने जा रहा है.''


रवि चुपचाप एडिट करवाता रहा. वैभव उसी गति से बाहर निकल गया. रवि ने उसे यह बताना जरूरी नहीं समझा कि मशीन दो बार बैठ चुकी थी. वरना अब तक स्टोरी हो गई होती. प्रेशर में डिलीवर करने के गुर उसे खूब आते थे.


पांच मिनट ही बीते थे जब वैभव दोबारा वहां आया. तमतमाया चेहरा, आंखें निकली हुईं. रवि अपनी स्टोरी में ही लगा रहा.


''कहां है, स्टोरी. दीजिए स्टोरी. बस आख़िर के दो शॉट्स हैं.''
''हो ही गई.''
''नहीं मुझे अभी चाहिए.'' वह गुर्राया. और हाथ बढ़ाकर मशीन से टेप निकालने लगा. रवि से यह बर्दाश्त नहीं हुआ.
''यार बोल दिया...दो मिनट में दे रहा हूं. आधी-अधूरी स्टोरी तो नहीं दूंगा ना.'' वैभव का हाथ वहीं रुक गया.


''जल्दी से लगाइए कोई भी शॉट्स और दीजिए.''
''कोई भी शॉट्स कैसे लगेंगे? क्वालिटी की बात है.'' वह अड़ा रहा. अमित के हाथ भी इस नोंक-झोंक में एडिट करते-करते रूक गए थे.


''तुम टाइम मत वेस्ट करो मेरा. अभी पूरे पांच मिनट हैं बुलेटिन रोल होने में. मैं उससे पहले खुद टेप लेकर पीसीआर में आ जाऊंगा.''
''मैं कुछ नहीं जानता मुझे अभी स्टोरी चाहिए.'' वह फिर गुर्राया. रवि ने भी हठ कर ली.


''नहीं मिलेगी अभी. जाके जिससे कहते बनता है...कह दो.'
यह सुनते ही वैभव वहां से मुड़ा और अपने पीछे दरवाज़े को धड़ाम से बंद करता कमरे से बाहर निकल गया. स्टोरी वक्त पे एडिट हो गई थी. शंकर अभी स्टूडियो में अपनी कुर्सी पर बैठा मेकअपमैन से टचअप करवा रहा था. यानी और तीन-चार मिनट के बाद बुलेटिन शुरू होना था. ये तो रोज़-मसला था. एक-दो स्टोरी तो रोज़ कुछ ऐसे ही कटा करती थीं, बिल्कुल ऐन वक्त पर. क्योंकि बुलेटिन की टॉप स्टोरी की स्क्रिप्ट पर आख़िर तक फेरबदल होती रहती थी. इसलिए ऐसी स्टोरीज़ देर से एडिट के लिए जाया करती थी. लेकिन कभी-कभी कुछ लोग बस बात का बतंगड़ बना देते थे. ये ऐसे लोग थे जो एडिटर के प्रिय थे. उनके हनुमान. और इन्हें कभी किसी अशोक वाटिका को उजाड़ने की पूरी छूट मिली हुई थी.


बुलेटिन के बाद यह बात एडिटर तक भी पहुंच चुकी थी. ''क्या रवि जी...स्टोरी टाइम पर क्यों नहीं एडिट हुई?''
''नहीं, समीर जी, बिल्कुल टाइम पर हुई. और ऑन एयर भी टाइम पर ही गई.''
''नहीं, वैभव तो बता रहे थे...''


''जी.''...रवि ने उन्हें बीच में ही काटा... ''वो बहुत कुछ बोल गए आज. वो जिस तरह से बात करते हैं...वो ठीक नहीं है. पहले भी कुछ ऐसी बदतमीजी से पेश आए थे लेकिन मैंने रहने दिया.''...रवि ने यह बताना ठीक नहीं समझा कि वह वैभव को दोस्त मानता है इसलिए उसकी बदतमीज़ी सहन करता रहा...''हर चीज़ क़ी एक हद होती है, समीर जी.''


''नहीं, देखिए ये दोबारा नहीं होना
चाहिए.'' मुझे लगा वे वैभव को बोल रहे, लेकिन सर उठाया तो देखा हाथ पीछे बांधे समीर जी उसी से मुखातिब थे.


वैभव तीन फुट की दूरी पर उनके पीछे खड़ा था. इस ऑफिस में आए उसे एक साल से ज्यादा हो चुके थे. सबका कोई-न-कोई माई-बाप था. जिसका नहीं था...उसने तुरंत अपने सीनियर के पैर पकड़ लिए कि प्रभु मुझे अपने सान्निध्य में ले लो. वरना उसे मालूम था उसका यहां जीना दूभर हो जाएगा. वहां तीन गुट साफ़ थे. एक समीर का था. एक धीमंत जी का और एक अनंत जी का. कहने को तो वे साथ में ही काम करते थे, मगर अपने-अपने चंगुओं के ज़रिए वे दूसरे सिंडिकेट पर नज़र रखते थे. उनके चंगू (ये शब्द रवि ने पहली बार यहां आकर सुना था) अपने-अपने सिंडिकेट के नेता के लिए उनके संदेशवाहक, योद्धा और जासूस थे. दूसरे पर अपरोक्ष रूप से वार करने या मज़ाक उड़ाने से कभी नहीं चूकते थे. हालांकि हेमंत जी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने में तीनों सिंडिकेट के कंपनी कमांडर कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे. समीर जी अब उस कुर्सी पर थे. दोबारा नई गर्मजोशी के साथ सबने अपने-अपने सिंडिकेट सक्रिय किए. वैभव समीर का लाड़ला था. सर्वेश सभी गुटों में फिट हो जाते थे. पलाश धीमंत जी के विभीषण. यहीं टकराव भी होता. सिंडिकेट के सरगना इसे नाक का सवाल बना लेते थे. परोक्ष और अपरोक्ष रूप से अपनी बात मनवाने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देते थे. अंडरवर्ल्ड की तरह सिंडिकेट के भी अपने-अपने इलाके बंटे हुए थे. उसमें किसी की दख़ल बर्दाश्त नहीं थी इन्हें. एक दूसरे की जड़ काटने का कोई मौका नहीं चूकते थे. अपने चंगुओं को दूध-मलाई मिलती रहे और इनका तख्ता मज़बूत रहे, इसी कोशिश में रहते थे. यही कारण था, विदेश दौरे का मौक़ा आता था तो नवीन का नाम सबसे पहले आता था. अनंत जी का लाड़ला जो था...अपने बच्चे की तरह मानते थे. उसकी बाताें पर खूब हँसते. बात-बात पर उसकी पीठ पर लाड़ली धौल मारते. उसकी कॉपी करीने से तराशते थे. किसी को यह भनक भी नहीं लगती कि नवीन ने कितनी हल्की कॉपी लिखी थी. लेकिन सिंडिकेट एक बात पर सहमत था. प्रबुद्ध जी के बारे में तीनों हमेशा अच्छा बोलते थे. और उनके चंगू जिन्होंने प्रबुद्ध जी के साथ काम किया वह ये बताना क़तई नहीं भूलते कि प्रबुद्ध जी उन्हें सबसे ज्यादा मानते थे. वैभव की बात सुनकर लगता प्रबुद्ध जी उसे ही सबसे ज्यादा मानते थे. प्रबुद्ध जी मीडिया जगत के बड़े नाम थे. प्रबुद्ध जी की बदौलत चैनल वन ने दिन दूनी...रात चौगुनी तरक्क़ी की. हिंदुस्तान के कोने-कोने में 'चैनल वन' का नाम लोगों की जुबां पर चढ़ गया.
विशाखा भी प्रबुद्ध जी के साथ काम कर चुकी थी. उनकी फ़ैन थी. ''तो क्या ये गुटबाज़ी...ये खोखलापन...ये ओछी हरकतें प्रबुद्ध जी की देन हैं?'' रवि ने एक दिन साहस किया और पूछ डाला. झालमूड़ी की प्लेट विशाखा ने अपने हाथ में ले ली. कनाट प्लेस में ओडियन सिनेमा के पास झालमूड़ी वाला काफ़ी मशहूर था.


'''अरे, आपको नहीं मालूम?'' विशाखा की हर बात इसी एक वाक्य से शुरू होती थी. ''पूरी चौपाल लगती थी. मतलब ये कि प्रबुद्ध जी, उनके सामने समीर जी, साथ में अनंत जी, धीमंत जी. मॉरनिंग मीटिंग में हम सभी हुआ करते थे. छोटे बड़े सब. और सबकी निगाहें प्रबुद्ध जी पर. अब वह हँस दें, कितने इंच वह हँसे...जब उन्होंने ठहाका लगाया तो उनके ठहाकों में ठहाके मिलाएं, वो सीरियस हो जाएं तो सारे लोग ऐसा चेहरा बना लेते मानो आज चैनल वन बंद होने वाला है और वो सब सड़क पर आ जाएंगे. कुछ तो बेबात ही प्रबुद्ध जी की तारीफ़ कर दिया करते थे. 'अरे, सर आपने कल क्या एंकरिंग की. मुझे तो मेरे भाई का बेगुसराय से फ़ोन आया कि मज़ा आ गया बुलेटिन देखकर. प्रबुद्ध जी ने कमाल कर दिया. सर वाकई कल का बुलेटिन बहुत टॉप का गया था.' भक्ति भाव से उन्हें सुना जाता था. समीर जी का तो ये हाल था कि प्रबुद्ध जी दिन को रात बोलें तो वो बिना ना-नुकुर के सहर्ष स्वीकार कर लेते थे. और हमें भी बाद में यही कहते, प्रबुद्ध जी ने कह दिया ना...उनकी चौपाल को देखकर मुझे कभी-कभी लगता था हम सब इतने बेजुबान क्यों हैं? क्यों नहीं सही बात बोल पाते. क्या हम यहां केवल बॉस की जी हुजूरी करने आए हैं? तब तो हमारे और सरकारी मुलाज़िम में फर्क़ क्या रहा? अरे भई आप पत्रकार हो, दिमाग़ का तो इस्तेमाल करो. कुछ अपनी तरफ़ से भी तो सुझाव दो. तो क्या अगर प्रबुद्ध ज़ी नाराज़ हो जाएंगे. इस क़दर अंध-भक्ति.''


''अरे आपको नहीं मालूम...(झालमूड़ी आज कुछ ज्यादा ही तीखी बनी थी. विशाखा के चेहरे पर पसीने की बूंदें उभर आई थीं. पुरानी बातें याद कर गुस्सा भी आ रहा था. झालमूड़ी और गुस्से के संगम से उसका चेहरा लाल हो गया था) लेकिन, मैं जान गई हूं. इसमें आप अपनी ग़ैरत गिरवी रख दें, लेकिन अगर आप उस गुट का हिस्सा हैं तो ये समझ लीजिए सालाना बढ़ोत्तरी आपकी सबसे अच्छी होगी. सर्वेश को नहीं देखते आप. मेरे ही बैच का डिप्लोमा होल्डर है लेकिन देखिए क्या रास्ता पकड़ा है. समीर जी का हनुमान बना फिरता है. सब पर हुक्म चलाता है. मानो वो ही एडिटर हो.''


सर्वेश को कैसे भूल सकता था रवि. वह संदेशवाहक था. जब राजा-महाराजा थे तो दूसरे सूबे में अपना पैग़ाम पहुंचाने के लिए वह अपना सबसे ख़ास आदमी ही चुनते थे. दुश्मन की लड़ाई का पैग़ाम हो या सूबे में खुशी के अवसर पर दावत का न्यौता. राजा का कोई ख़ास ही वह संदेश पहुंचाता था. दिन का एक बज रहा था. उस दिन रवि के पास कोई काम नहीं था. उसका एक आइडिया एडिटर और दूसरे सीनियर्स को अच्छा तो लगा मगर उसे करने के लिए पहले से ही रिपोर्टर का नाम तय था. नई घोड़ी को तो चाल दिखाने का भी मौक़ा नहीं मिल पा रहा था. वह यूं ही खयालों में खोया था कि तभी उसे सर्वेश की आवाज़ सुनाई दी. वह उससे ही मुख़ातिब था. मीटिंग से सीधे निकलकर आया था.


''आप कल से सुप्रीम कोर्ट कवर करेंगे.''
सुन कर रवि को अजीब लगा. एक तो यही कि पॉलिटिकल कॉरेस्पोडेंट को आख़िर कोर्ट की बीट क्यों दी जा रही है. मगर हैरानी उसे इस बात पर ज्यादा थी कि आख़िर पैग़ाम पहुंचाने के लिए सर्वेश क्यों? यह बात तो एडिटर मुझसे खुद कह सकता था. या तो कोई सीनियर. लेकिन रवि. यह क्या बेचता है भई. रवि को मन-ही-मन गुस्सा आ रहा था. यह तो मुझसे जूनियर हैं. और वैसे भी डेस्क का आदमी है.


रवि को नई नौकरी ज्वाइन किए हुए दो हफ्ते हो चुके थे. लेकिन अभी तक यह तय नहीं हुआ था कि उसे कौन-सी बीट दी जाए. रवि से जो कहा जाता कर देता. वाजपेयी सरकार को समर्थन देने का मन बना चुकी जयललिता जब पहली बार चेन्नई से दिल्ली पहुंची तो रवि को भेजा गया कि उनकी बाइट पकड़कर लाए. उस दिन तो उसे निचली अदालत में चल रहे एक मामले पर भेज दिया गया. जिस असाइनमेंट में दूसरे रिपोर्टर नहीं जाना चाहते थे या फिर जो शाम के असाइनमेंट होत थे अमूमन रवि को ही बलि का बकरा बनाया जाता था. लेकिन रवि ने इन सबकी परवाह नहीं की. उसे उम्मीद थी उसे पॉलिटिकल बीट दी जाएगी. पुरानी कंपनी में रवि पिछले दो सालों से सरकार की दो सबसे बड़ी पार्टियां कवर करता आया है. देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाने की संयुक्त मोर्चा की सरकार की क़वायद उसकी आंखों-देखी थी. ग्यारह महीने की आंतरिक कलह और कांग्रेस की पैंतरेबाजी को भी उसने बखूबी और लगातार कवर किया था. और फिर जब आंध्र भवन में गुजराल के नाम की नायडू ने घोषणा की तो रवि वहीं मौजूद था. उस दौर को कवर करते उसे वे दिन याद आए जब वह अंग्रेज़ी के एक बड़े अख़बार में क्राइम रिपोर्टिंग करता था. राजनीति के अखाड़े के पहलवानों को कवर करना कुछ कम रोचक नहीं था.


''अरे, किसने कहा तुमसे ये?''
''अरे सर, मीटिंग में तय हुआ है. सबने यही फ़ैसला किया है. बड़ी इम्पार्टेंट बीट है, सर.'' ''सर'' शब्द किसी पद की पहचान नहीं थी. किसी का मज़ाक उड़ाने का कारगर ज़रिया था. ''प्रियाजी तो अब साप्ताहिक प्रोग्राम में चली गई हैं ना. हमें एक सीनियर चाहिए ये बीट कवर करने के लिए.'' मन में आया कि कहूं 'अबे ये बीट तुम खुद क्यों नहीं कवर कर लेते?' लेकिन चुप रह गया. बिचौलियों से कैसा झगड़ा. झगड़ा करने का यह समय भी नहीं था. लेकिन संपादक से यह पूछने का हक़ तो था ही.


हां, वह जरूर पूछेगा. दूसरे दिन से उसने सुप्रीम कोर्ट जाना शुरू कर दिया. शाम को उसके पास एक स्टोरी भी थी. बुलेटिन की आठ स्टोरी में से एक उसकी भी रहेगी. उसे विश्वास था. इस बात का फ़ख्र भी कि पहले दिन ही नई बीट पर वह एक बड़ी कहानी कर रहा है. लेकिन शाम को जब वह ऑफ़िस पहुंचा तो माहौल में बड़ा उत्साह था. सब एक-दूसरे से मिठाई खाने की होड़ में थे. मानो सबके घर में एक साथ लड़का पैदा हुआ हो. बात थी भी कुछ वैसी. रवि को पता चला सालाना बढ़ोत्तरी हुई है.

ज्यादातर लोग खुश थे. कुछ के ओहदे में भी इजाफ़ा हुआ था. पता चला नवीन की भी तनख्वाह बढ़ गई है. मुझसे ज्यादा मिलेगा उसे. ओहदा भी मुझसे ऊपर. लेकिन हेमंत जी ने तो कहा था कि यहां पर आपके जैसे एक्सीपीरियंस के लोगों को इससे ज्यादा नहीं मिल रहा. लेकिन यह तो धोखा है. नवीन की तरक्क़ी करनी हो तो करो, लेकिन मेरी मेरिट को कम तो मत आंको. वैसे भी मेरा एक्सपीरियंस उससे कहीं ज्यादा है. रवि यह सोच-सोच कर कुढ़ रहा था. किस पर विश्वास करे? दो दिन में दो झटके एक साथ. इस दिन के लिए वे पिछले आठ सालों से इतनी मेहनत करता आ रहा था. आज वह हेमंत जी से बात करके ही रहेगा. दनदनाते हुए वह संपादक के कमरे की ओर लपका. बीच में आशा का केबिन था. आशा संपादक साहब की सेक्रेटरी थी. बड़ी खुशमिजाज़. बात करने में जितनी माहिर उतना ही अपने काम में निपुण.


''क्या हुआ...बड़े गुस्से में लग रहे हो?''...''हेमंत जी से बात करनी है.'' ''अभी नहीं. हेमंत जी फ़ोन पर किसी से बात कर रहे हैं. तू जा. जैसे ही ख़ाली होते हैं मैं बुला
लूंगी.'' दिल्ली में तू बोलने वालों में वह पहली ऐसी शख्स थी जिसके तू में बदतमीज़ी नहीं थी. अपनापन लगता था. रवि लौट आया. यूं तो उसे अपनी स्टोरी लिखनी शुरू कर देनी चाहिए थी, लेकिन उसका मन तो कहीं और था. थोड़ी देर बाद आशा ने शीशे के पैनल से रवि को इशारा किया. कमरे में हेमंत जी की ''हूं''...गूंजी.
''आइए रवि जी.'' भले से दिखते थे हेमंत जी. रौबदार आवाज़, हैंडसम पर्सनाल्टी. भूरी-भूरी आंखें शीशे की तरह चमकती थीं. लेकिन चश्मे के पीछे आंखों में ईमानदारी नहीं दिखती थी. नौकरी के लिए इंटरव्यू भी हेमंत जी ने ही लिया था. हालांकि उस समय उनके साथ कमरे में समीर जी और अशोक जी भी थे...उनकी हूं का मतलब कुछ नहीं था. उन्हें लगा कोई कर्मचारी शिकायत लेकर आया है. शिकायत तो थी. उनसे ही थी.


''आपने मुझसे झूठ बोला?''
''मतलब क्या है आपका''...वे एकदम से तमतमा गए.
''आपने कहा था कि मुझे जो ओहदा और पगार दिए जा रहे हैं वे औरों से बेहतर हैं. लेकिन आज मुझे यह लग रहा है कि आपने मुझसे झूठ बोला.''


''देखिए...आप यहां अभी नए आए हैं. आपको यह कहने और पूछने का बिल्कुल हक़ नहीं है.'' ''नया हूं तो क्या गांधी जी के बंदरों की तरह आंख, कान और मुंह बंद करके बैठूं?'' रवि सोच रहा था. कहा कुछ और, ''बिल्कुल है, हेमंत जी. मुझे ये लग रहा है कि मैं छला गया हूं.'' लेकिन रवि बेकार ही बहस कर रहा था. उसे यहां नौकरी किसी की सिफ़ारिश पर नहीं मिली थी. चैनल वन के मालिक को एक दिन फ़ोन कर दिया. एक अंग्रेज़ी क़ी निहायत ही पॉपुलर मैगज़ीन भी निकालते थे. मैगज़ीन के दफ्तर का नंबर घुमा दिया. पता नहीं सितारे उस दिन अच्छे थे. नंदा साहब लाइन पर थे. जब रवि ने नौकरी का ज़िक्र छेड़ा तो उन्होंने उसकी स्टोरीज़ का नमूना एक वीडियो कैसेट के रूप में उनकी सेक्रेटरी को सौंपने को कहा. साथ में बायोडेटा भी. दूसरे दिन रवि ने वही किया. चौथे दिन उसके पास कॉल आ गया. लेकिन इंटरव्यू में सामने हेमंत जी थे. समीर जी और अनंत जी के साथ. पता चला हेमंत जी के एक कैंडिडेट को नंदा जी ने ही रिजेक्ट कर दिया था. नंदा जी ने मुझे नौकरी दिए जाने का संकेत हेमंत जी को दे दिया था. बस, चैनल वन में यूं हुई रवि की एंट्री.


रवि डटा रहा. सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ अब वह पार्लियामेंट भी कवर करने लगा था. ठीक है लोकसभा कवर करने के लिए जिन रिपोर्टरों की सूची तैयार हुई उसमें रवि का नाम नहीं था. अनंत गुट के नवीन, धीमंत गुट के पलाश और समीर गुट के कौशिक का नाम उस सूची में था. रवि को राज्यसभा कवर करने की ज़िम्मेदारी मिली.


लेकिन फिर जब कारगिल में युद्ध जैसी स्थिति बनी तो रवि ने वहां जाने की पेशकश की. लेकिन वहां पहले अक्षय को भेजा गया. अक्षय कंपनी का पुराना मुलाज़िम था. चैनल वन में पुराने मुलाज़िम ख़ासकर वे जिन्होंने प्रबुद्ध जी के साथ काम किया था उनकी बहुत पूछ थी. सब जगह उन्हें ही अहमियत दी जाती थी. सबसे अच्छी बनती थी उसकी. लेकिन एक हफ्ते में ही अक्षय को बुला लिया गया. चैनल वन के दूसरे दिग्गज वहां जाने से कतरा रहे थे. विदेश दौरा करने वाला नवीन भी. रवि ने पहले से ही अर्जी लगा रखी थी. क़बूल हो गई. जंग ख़त्म होने पर ही लौटा. देश में जंग जीतने की खुशी थी. मीडिया जगत में रवि की बोल्ड और साहसिक रिपोर्टिंग की चर्चा थी. दिल्ली लौटने पर वैभव ने उसे गले लगा लिया. दोनों कनाट प्लेस साथ गए उस दिन. ''यहां तो सब बाइलाइन लेने पर लगे हुए थे. एमईए की प्रेस कांफ्रेंस के लिए पीटीसी करके अपना नाम लगा लेते. मैंने एक दिन कहा कि जंग की रिपोर्ट तो रवि भेज रहा है किसी दूसरे की पीटीसी क्यों जाएगी. सब तुम्हारी रिपोर्ट की आड़ में अपना नाम भी जोड़ देना चाहते थे.''...रवि को लगा उसकी कारगिल की मेहनत बेकार थी. जो वैभव ने किया उसके लिए उसे वीर चक्र मिलना चाहिए...वैभव को क्या यही बात करनी थी, इसलिए कनाट प्लेस चाय पीने के बहाने रवि के साथ आया? रवि सोच रहा था वैभव ने ऑफिस में जैसे उसे गले लगाया वह उससे उसके एक्सीपीरिएंस पूछेगा. पूछेगा तुम्हें डर नहीं लगता था रवि. एक महीना तुमने वॉर जोन में गुजारा. तुम्हारी हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी. दोस्तों ने ऐसे मौके पर यह सुनने पर उसे फख्र होता अपने काम पर. लेकिन वैभव तो अपनी ही दुनिया में था. रवि को लगा उस पर कोई कर्ज़ का बोझ रख दिया हो. वैभव की बदतमीज़ियां, ऑफिस की तल्खी दोनों कनाट प्लेस का एक चक्कर लगाकर वापस आ गए.
कारगिल से लौटने के एक हफ्ते बाद एक दिन समीर जी ने रवि को अपने कमरे में बुलाया, ''भई आपने कारगिल में बढ़िया रिपोर्टिंग की.'' यह कहते उन्होंने एक लिफ़ाफ़ा रवि की तरफ़ बढ़ा दिया. उसके अंदर एक कागज़ में ऑफिशियल तौर पर रवि को बधाई दी थी समीर जी ने. लेकिन यह कहने में समीर जी को एक हफ्ता लग गया. उसे याद आया टाइगर हिल पर हमले की वह रात जब सेना की ब्रिगेड पर पाकिस्तानियों की अंधाधुंध जवाबी गोलाबारी शुरू हो गई. टाइगर हिल को वापस लेना, सेना के लिए और जंग के लिए निर्णायक था. रवि ने उस गोलाबारी के बीच यह ख़बर ऑफिस पहुंचानी चाही. उसके सेटेलाइट फ़ोन की बैटरी ख़त्म हो चुकी थी. सेना के एक बूथ से उसने ऑफिस फ़ोन मिलाया और सीधा समीर जी से बात करनी चाही...समीर जी लाइन पर आए...हां, ठीक है. जल्दी-से-जल्दी फुटेज भिजवाने की कोशिश कीजिएगा... रवि ने वह खौफ़नाक रात जवानों के बंकर में गुज़ारी. सवेरा होते ही श्रीनगर टेप रवाना कर दिया. सेना ने टाइगर हिल फ़तह कर लिया था. पता चला कल रात के हमले में चार जवान और एक कैप्टन शहीद हो गए थे. उसी बंकर के आस-पास.


''मैं तो समझता था समीर जी में इतनी संवेदनशीलता तो होगी कि कहेंगे...अपना खयाल रखिएगा.''...पालिका बाज़ार के बाहर सीढ़ियों पर वह विशाखा को कारगिल की कुछ रोचक घटनाएं बता रहा था. उस रात की यादें उसे एकाएक झकझोर देती हैं...
''अरे भई नवीन और कौशिक की तरह आप उनके दत्तक पुत्र तो हैं नहीं. सिंडिकेट में शामिल न होने का खामियाज़ा तो आपको भुगतना पड़ेगा.''...विशाखा उससे छोटी थी. लेकिन बातें बड़ी समझदारी की करती थी. यह समझदारी उसकी रिपोर्टिंग में भी दिखती थी. यह अलग बात है कि वह खुद भी किसी सिंडिकेट का हिस्सा नहीं बन पाई. प्रबुद्ध जी के चेलों में वह बिल्कुल अलग थी.


प्रबुद्ध जी का एक और शिष्य था. बिल्कुल अलग. सबसे अलग. प्रेमांशु. उसका सिंडिकेट कुछ अलग था. लड़कियों से भरा-पूरा. विशाखा के साथ थी देवकी, सलोनी, आकांक्षा, विनीता, तबस्सुम और बुलबुल. सभी उसकी टीम में थीं. यह देखकर धीमंत जी के दिल पर सांप लोटते थे. हालांकि इस मामले में उनका भी कोई जोड़ नहीं था. बस यह था कि प्रेमांशु उनसे इक्कीस था. प्रेमांशु प्रबुद्ध जी के सबसे क़रीब गिना जाता था. वैभव ने एक दिन रवि के घर पर बैठकी में बताया था, ''अरे तुम्हें क्या बताऊं. इनके क़िस्से सुनाने के लिए एक रात काफ़ी नहीं है.'' उसने बताया कि समीर जी कैसे प्रेमांशु के मामले में कमज़ोर पड़ जाते थे. इसलिए समीर जी उसकी कई खामियों पर परदा डालते थे. वैभव को यह बात बड़ी कचोटती थी. प्रबुद्ध जी तो उसे ही सबसे ज्यादा मानते थे. फिर प्रेमांशु का उनसे यह क़रीबीपन उसे नागवार गुज़रता. सौतन जैस बैर था दोनों का.


लेकिन उसका बैर तो न जाने किससे- किससे था. विष्णु को भी तो वह दोस्त कहता था. विष्णु भी मानता था उसे. लेकिन यार क्या बताऊं, ये जो नाटे लोग होते हैं न, इनमें बड़ा कॉम्प्लेक्स होता है. इन्फीरियोरिटी कॉम्प्लेक्स से ग्रसित होते हैं. विष्णु से मेरी कामयाबी बर्दाश्त नहीं होती. इसलिए मेरी बात काटी उसने. एक दिन वैभव ने रवि को विष्णु की असलियत बताई थी.


न जाने किस कॉम्प्लेक्स का शिकार था वैभव. इन दिनों फिर नई सनक चढ़ गई थी उसे. अब वह रवि के सामने बार-बार नवीन का जिक्र छेड़ता कि वह कितना बढ़िया रिपोर्टर है. उसी नवीन की, जिसकी वह अक्सर रवि से बुराइयां करता था. एक दिन खुद वैभव ने ही तो रवि को नवीन का वह फ़ेमस किस्सा सुनाया था. अपने घर पर. एक शाम को जब वैभव ने उसे मछली का न्योता दिया. रवि को मछली पसंद नहीं थी. लेकिन वैभव किसी फाइव स्टार के शैफ़ को भी मात दे दे. मटन और चिकन की नई-नई डिशेस बनाता रहता था...''भाईसाहब शूट से ऑफिस में चिल्लाते हुए आए. मिल गई...मिल गई.'' वैभव ने हल्दी और नमक में मैरीनेड रोहू के टुकड़े कढ़ाई में डालते हुए कहा. गर्म तेल में छनछनाते हुए आवाज़ हुई. वैभव ने आवाज़ ऊंची की. ''एक्सक्लूसिव है बाबा, एक्सक्लूसिव है. सिर्फ़ अपन के पास है.''


''तो क्या मंत्री ने बाइट दे दी.''
''हां बाबा हां. सिर्फ़ अपन के पास है. एक्सक्लूसिव...''
''बहुत बढ़िया है.'' अनंत जी बोले...''क्या बोला उसने...''
''नो कमेन्ट्स...''
''नहीं मंत्री ने क्या कहा?


''अरे, वही तो बता रहा हूं''...मंत्री ने कहा ''नो कमेन्ट्स.''
''पूरे ऑफिस में सन्नाटा पसर गया...तुम्हें क्या बताऊं रवि, जो जिधर बैठा था, वहीं सन्न रह गया. सब ऐसे बिहेव कर रहे थे मानो किसी ने कुछ सुना न हो. बताइए ये तो हाल है हमारे सो कॉल्ड स्टार रिपोर्टर का.''


लेकिन अब तो वैभव बात-बात पर उसे यह अहसास दिलाना नहीं भूलता कि वह अब खप चुका है. उसमें वह बात अब नहीं रही. नवीन कितना जोशीला रिपोर्टर है. नवीन ऐसा है, नवीन वैसा है. न जाने किस बात की चिढ़ थी उसे रवि से. खैर, रवि को बड़े असाइनमेंट पर ज्यादा-से-ज्यादा भेजा जाने लगा. भूकंप हो या लड़ाई का मैदान. लेकिन रवि बाहर जितने भी झंडे गाड़ ले, ऑफिस के भीतर पुराने मुलाज़िमों की ही चलती थी. दो साल के बाद भी वह पुराना नहीं हुआ था. पुराने तो वे थे जिन्होंने प्रबुद्ध जी के साथ काम किया था. न जाने क्या सिखा गए हैं इन सबको तुम्हारे प्रबुद्ध जी. ये सब तो उनके पैर की धूल भी नहीं. लेकिन प्रबुद्ध जी के नाम लेकर अपनी रोटियां सेंक रहे...विशाखा के साथ आंध्र भवन में अचानक रवि ने यह बात छेड़ दी, ''कैसे चेले बना गए प्रबुद्ध जी. इतनी गिरी हुई सोच है इनकी.'' इतनी लजीज़ मटन फ्राई खाते-खाते रवि को ऑफिस की बात कैसे सूझी. विशाखा भांप गई. उसकी वैभव से एक स्टोरी को लेकर खटपट हुई थी सवेरे.


''वैसे आपको क्या लगता है? वैभव ऐसा क्यों बिहेब करते हैं? आपको मालूम है, अक़िला बता रही थी कि रोहित वैभव के पुराने मित्र हैं. रोहित को यहां लाने में वैभव का काफ़ी बड़ा हाथ है. आजकल उन्हीं को चढ़ाने में लगे हैं...मैंने भी ये नोटिस किया है कि वैभव इन दिनों रोहित की ख़ूब तारीफ़ करते हैं. कहते हैं थोड़े ही दिनों में इसने टीवी कैसे पकड़ लिया...शायद इसलिए वो आपको नीचा दिखाने की कोशिश करते रहते हैं. नवीन का तो बस बहाना है. और वैसे भी सिंडीकेट के लोगों को इग्नोर करेंगे तो भुगतेंगे भी आप..."


''सिंडीकेट गया तेल लेने...साले क्या उखाड़ लेंगे मेरा.'' अपने इसी ऐटीटयूड की बदौलत ही उसे यहां टिके रहने का बल मिला. रवि को अपना टार्गेट मालूम था.

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रचनाकार - प्रभात शुंगलू - इलाहाबाद में 1968 में जन्मे. वहीं पढ़ाई की. सोलह साल पहले 'द स्टेट्समैन' से पत्रकारिता की शुरुआत. फिर 'टाइम्स ऑफ इंडिया' में कुछ सालों तक काम किया. पहले 'बीआईटीवी' फिर 'आज तक' और 'स्टार न्यूज़' में रहे. इस दौरान कारगिल, अफगानिस्तान और ईराक युद्ध कवर किया. पिछले एक साल से 'आईबीएन-7' में एडिटर-स्पेशल एसाइनमेंट के तौर पर काम कर रहे हैं. हंस के मीडिया विशेषांक के लिए लिखी यह उनकी पहली कहानी.

संपर्क : 4, डाक्टर्स अपार्टमेंट, वसुंधरा एनक्लेव, दिल्ली-96

(साभार, हंस)

चित्र - भार्गव

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