वृत्तांत: कितने शहरों में कितनी बार

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-ममता कालिया (बेघर, नरक दर नरक, दौड़ जैसे अविस्मरणीय उपन्यासों एवं कई उत्कृष्ट कहानियों की रचनाकार ममता कालिया गद्य लेखन की नयी भूमिका में है...



-ममता कालिया

(बेघर, नरक दर नरक, दौड़ जैसे अविस्मरणीय उपन्यासों एवं कई उत्कृष्ट कहानियों की रचनाकार ममता कालिया गद्य लेखन की नयी भूमिका में हैं। वे उन शहरों को याद कर रही हैं जहां वह रहीं और जहां की छवियों को कोई हस्ती मिटा नहीं सकी। रचनाकार में प्रारम्भिक जीवन के शहरों की यादें। जाहिर है कि यह महज याद नहीं है, यह है जीवंत गद्य द्वारा अपने ही छिपे हुए जीवन की खोज और उसका उत्सव।)

जब भी कोई मुझसे पूछता है तुम किस शहर की हो, मैं बड़े चक्कर में पड़ जाती हूं। क्या कहूं! कहां की बताऊं अपने को। क्या लोगों को नहीं मालूम कि सरकारी नौकरी करने वाले बाप के बच्चे किसी एक जगह के नहीं होते। वे डेढ़ दो साल के लिए शहर में डेरा डालते हैं। तबादले का कागज आते ही वे ट्रक में सामान डाल अगले अनजान शहर की तरफ निकल पड़ते हैं। दस दिन में उनके स्कूल बदल जाते हैं, बीस दिन में बोली बानी।

उत्तर प्रदेश की नगरी मथुरा के जिस लघुत्तम एकांश वृंदावन में जन्म लिया, उसे कभी ठीक से देखा भी नहीं। वृंदावन इसलिए क्योंकि वहां कैनेडियन मिशनरियों ने ऐसा अस्पताल स्थापित किया था जहां पेट चाक कर बच्चे पैदा करवाने की व्यवस्था थी। पापा आगरे में अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. कर रहे थे। मां, दादी बाबा के साथ मथुरा में रहती थीं। मुझसे पहले मेरी बड़ी बहन बेबी भी वृंदावन में, उसी अस्पताल में पेट चाक से पैदा हुई थी।

मथुरा मेरी कहानियों में भी धड़कती रहती है कभी आवेश बन कर, कभी परिवेश बन कर। मथुरा की यादें, दराज में पड़े मुड़े तुड़े, कागजों की तरह हैं, जिनमें तारतम्य नहीं बैठा पायी हूं...।

होली दरवज्जे से कोई गली दायीं ऊंची चढ़ान चढ़ती चली जाती थी जिसे शायद सतघड़ा कहते थे। पहली मंजिल का मकान। सावन में कमरे में झूला डलता। हरियाली तीज पर बाबा हरे रंग की छोटी छोटी धोतियां लाते हमारे लिए। झूले के गीत, सावन के लोकगीत आज भी अपनी धुन सहित मेरे कानों में गूंज उठते हैं। बचपन की मथुरा की हर गली ढलवा थी। हर गली का गंतव्य एक छोर पर घर, दूसरे छोर पर जमुनाजी। याद नहीं आता कभी किसी ने यमुना नदी को यमुना कह कर पुकारा हो। प्रयाग की गंगा जी की तरह मथुरा की जमुनाजी। बोलते समय म के नीचे की मात्रा भी गायब हो जाती। सब कहते 'जमनाजी'।

जमुनाजी के कछुओं की स्मृति है। उनसे जुड़ी अनेक डरावनी कहानियां आधी अधूरी याद आती हैं। यह कभी समझ नहीं आया कि हम बच्चों को जमुनाजी में डुबकी क्यों लगवायी जाती थी जबकि शाम को दादी बाबा, बुआ, कोई न कोई किस्सों की पुरानी पिटारी खोल डालते, ''अरे ध्यान से न्हवइयो। भार्गव जी की नतनी को येई बिसरांत घाट पर बुड़का मार कै ले गयो थौ।'' ''तोते की बहन की तो उंगलियां खा गयौ।''

दादी बाबा के किस्सों में जमुनाजी के कछुओं के अलावा मगरमच्छ भी थे जो पूरी लड़की साबुत निगल जाते। अब सोचती हूं कि जमुनाजी के कछुए और मगरमच्छ छांट छांट कर लड़कियों को ही क्यों काटते थे। कभी यह नहीं सुना कि फलाने के लड़के को मगरमच्छ उठा कर ले गया।

जब नानकनगर में बाबा की कोठी बन गयी, रहने, घूमने फिरने की खुली जगह मिलने लगी। अब बस एक चीज की कमी थी वह था समय। हम गर्मी की छुट्टियों में ही आ पाते, कभी पापा ममी के साथ तो कभी अकेले। जब हम दोनों बहनें ही आतीं, दादी बाबा ढेर लाड़ लड़ाते। दिन में बाबा दुकान से तरह तरह की चीजें, भिजवाते, कभी तेल की खस्ता कचौड़ी, कभी लुकाट, कभी नारियल की गिरी के चकपहिये। उस कचौड़ी का खस्तापन और स्वाद, आलू की रसेदार तरकारी, यहां तक कि ढाक के उस हरे दोने की सुगंध अभी तक स्मृति की जिह्वा पर बैठी हुई है ज्यों की त्यों। पता नहीं मथुरा का रिश्ता जीवन के पहले पहले स्वाद, सुगंध और साहित्य से क्यों जुड़ा हुआ है।

शाम को हम बहनें छत पर छिड़काव करतीं, सबकी चारपाइयां बिछातीं और नीचे रसोई से लाकर खाना ऊपर लगातीं। ठंडी छत पर ब्यालू का स्वाद अद्वितीय होता। जब हम लेटने लगते बाबा कहते, ''लटूरबाबा ने मेरे पैर तो दबाये ही नहीं।'' हम दोनों दौड़ पड़तीं जबकि लटूरबाबा सिर्फ मेरा नाम था क्योंकि मेरे आगे के छोटे छोटे बाल चोटी से निकल मेरी आंखों में पड़ते रहते थे। बाबा कहानी शुरू करते। उनकी कहानियों में लुटेरे और बटमार होते, सराय और भटियारिनें होतीं, व्यापारी और साहूकार होते। चोर लुटेरे हमेशा चतुर होते, साहूकार व्यापारी हमेशा घोड़े बेच कर सोने वाले होते जिनकी नींद लुट जाने पर ही टूटती; भटियारिनें हमेशा छबीली होतीं। लेकिन बाबा को यह बर्दाश्त नहीं था कि साहूकार की हार हो, इसलिए वे कहानियों में एक चेतक घोड़ा डाल देते जिसे सरपट दौड़ा कर चोर पकड़ लिया जाता। कहानी का अंत इस तरह होता ''तो लल्ली चोर बटमार को वह मार पड़ी कि उसकी अंटी गयी खुल और साहूकार को अपना माल तो मिला ही मिला, साथ में और माल भी मिल गयौ जो वह लक्षमनदास के यहां से लायौ थौ।'' यह लछमनदास भी हर कहानी में टपक पड़ता था। दादी सुनातीं सौंताल की कहानी, मोरा और सारंग नैनी की कहानी, फूलनदेई और ओलनदेई बहनों की कहानी। उनकी कहानियों में स्त्रियों के आंसू होते, पुरुषों के पाषाण हृदय होते और ऐसे पंछी पखेरू होते जो अचानक मदद को आ जाते।

घर के करीब से रेल लाइन जाती थी। रात नौ बजे फ्रंटियर मेल गुजरती। इंजन की भट्टा सी आंख की चौंध सीधी हमारी आंखों पर पड़ती। दादी कहानी के बीच में लम्बी सांस लेकर कहतीं, ''चलो लड़कियों, सो जाओ। लगता है बिद्दाभूषण आज भी नईं आयगौ।'' मैं हंसती ''दादी पता तो है पापा सोलह को आयेंगे। फिर भी तुम रोज यही कहती हो।'' उन्हें बेटे के आने की प्रतिदिन आस लगी रहती।

ताज्जुब यह कि हम कितने थोड़े दिन वहां रहते थे पर कितना ज्यादा ग्रहण करते थे। हालांकि ऊपर से देखने पर यह सिर्फ एक जगह अपने दादी, बाबा, बुआ, चाची, मामा, मामी के साथ रहना भर था, वह भी कुछ दिनों के लिए, लेकिन अंदर ही अंदर यह मुझे कृति सम्पन्न कर रहा है, यह तब कब सोचा था। वैसे मथुरा में रहने वाले जानते हैं कि उस मिट्टी के कण कण में साहित्य बसा है, कहीं कथा कहानी तो कहीं कविता। मथुरा के लोग बातों के रसिया हैं। कृष्ण काव्य में सूरदास के अलावा मथुरा के जन जन ने अपनी कल्पना का जो रस उसमें उंडेला है उसी पर यह काव्य टिका हुआ है। मथुरा वृंदावन के मंदिरों में सगुण भक्ति का अतिरेक बालकृष्ण और छैलबिहारी की ऐसी लीलाएं रचता है कि वे एक नहीं अनेक शताब्दियों के महानायक कहे जा सकते हैं। मथुरा जनपद में धर्म, भक्ति, इतिहास, किंवदंती और कल्पना इस तरह घुल मिल गयी हैं कि जब आप किसी से बात करते हैं तो यह नहीं पता चल सकता कि उसमें यथार्थ, श्रुति और स्मृति की मिकदार क्या है।

तीनों बुआओं की अपनी अपनी कष्टदायक जिन्दगी थी, पर हम बच्चों से मिलने आतीं तो कैसी लहक कर मिलतीं। बड़ी बुआ, कच्ची सड़क, गली रावलिया से आते वक्त हमारे लिए खुरचन लेकर आतीं जिसे चखते ही केवड़े की सुगंध से मुंह भर जाता। भग्गो बुआ हिन्डौन से आतीं जहां फूफा जी पत्थर का व्यापार करते थे। वे हम सबको दुपहर में अधन्ने अधन्ने की मलाई बरफ खिलातीं। गली में मलाई बरफ वाला छोटी हारमोनियम जैसी पेटी में कपड़े से लिपटी मलाई बरफ लाता जो वह हरे पत्तो पर चाकू से पतली पतली परत काट कर, बड़े प्रेम से हम सब को देता। फालसे, खिन्नी, झरबेरी, कसेरू और लुकाट में खूब रस रंग भरा रहता।

कभी कभी सारा संतुलन गड़बड़ा जाता। खास तौर पर जब भारत चाचा और पापा इकट्ठे घर आते। दोनों के परिवार साथ होते। छोटी छोटी घटनाओं पर कलह मच जाती।

पापा के पास दो चश्मे हैं। दादी कह रही हैं ''च्यों बिद्दा भूषण जे चसमे फैसन में बनवायौ हैं?''

वे अपनी आंखें मलती हैं, ''मोय तो कछू टिपै नायं। एक मोय दे दै।''
सब हंस पड़ते हैं। दादी, गुस्से में।

पापा कहते हैं, ''जीजी तुम मेरे साथ डाक्टर के चलना। तुम्हारी आंख जंचवा कर चश्मा बनावा दूंगा।''

दीदी उलाहना देती हैं, ''अरे जा तू आंख जंचवायेगा। इत्ताी तेरी कमाई और उत्ताी भारतभूषण की। कभी मां बाप पे छदाम भी खर्च नायं करौ।''

भारत चाचा के घाव फूट पड़ते, ''जब मैं आठवीं में था, आपने घर से निकाल दिया। हम दोनों भाई टयूशनें कर कर के पढ़े। क्या दिया मां बाप ने!''

बहस दूध की तरह फटती और फैलती जाती। बीच में कोई बुआ फुटनोट जड़ देतीं भाई दूज पर धोती न मिलने का, सलूनों पर नेग न भेजने का और कलह कुंड को हवा मिल जाती।

दरअसल दोनों कामयाब भाई परिवार की अपेक्षाओं का आकलन नहीं कर पाये। परिवार ने पढ़ाई का खर्च देना बंद किया था, अपना कब्जा कहां छोड़ा था। वस्तुत: यह संयुक्त परिवार का एकल परिवार की इकाई के विरुद्ध संघर्ष था।
मथुरा के ही एक और घर की स्मृति है। मामा- घर। मेरे चार मामा हैं। वे 1947 में एबटाबाद से विस्थापित होकर मथुरा आये थे। नाना नानी एबटाबाद में ही दिवंगत हो गये। एबटाबाद बहुत दूर था। एक बार हम वहां गये थे। हम छावनी में रहते थे जहां बड़े बड़े मैदान थे। बैरकनुमा दुकानें थीं। घास का टीला पार करते ही गोरखा रेजिमेण्ट के घर थे। एक बार घर में अचानक मेहमानों के आने पर नानी ने हमें कान्छा लोगों के घर अचार लाने भेज दिया। धनसिंह की बीवी ने हमें नीबू की जगह बोटी का अचार दे दिया। रास्ते भर हम अचार चाटते गये। अचार बड़ा स्वादिष्ट लगा। घर पहुंचने पर हमें बड़ी डांट पड़ी।

शाम के वक्त हम एक बैरकनुमा दुकान में जाते जिसे सब कापीछाप कहते थे। जरूर उसका नाम कॉफी शाप रहा होगा। वहां काफी तो मिलती ही थी, लैमन सोडा की कंचे वाली बोतल भी मिलती, साथ में कागज की नली। लैमन पीते हुए मुझे चिन्ता लगी रहती कहीं कंचा मेरे पेट में न चला जाय। एबटाबाद में हमें कई नायाब चीजें मिलतीं जो अपने घरों में नहीं मिलती थीं। नानी हरेक की थाली में तले हुए काजू और पिस्ते जरूर रखतीं। इससे खाने की थाली एकदम खास हो जाती। वहां हम हरे बादाम, चैरी, खुबानी और सेब खाते।

नानी के बोलने के अंदाज में आत्मीयता के साथ आश्चर्यलोक के उच्छवास भरे होते। वे बतातीं, ''अरे इंदु, अबकी बार तो ऐसा चिल्ला जाड़ा पड़ा कि पूछोई मत। नलों के पानी जम गये। लोहे के पाइप गरमा गरमा कर पानी निकाला। पीछे वाली टीन की छत से जमी हुई बर्फ की सलाखें लटकती थीं। जो बूंद गिरे वह जम जाय। घी तो ऐसा कर्रा हुआ कि कलछी टूट जाय पर घी न निकले।''
बोलने, सोचने की आदतें ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी पड़ती होंगी। मेरी ममी की भी आदत थी, नवम्बर के बाद जब दिसम्बर के दिन आते, वे घी का डब्बा उघाड़ कर देखतीं और कहतीं, ''अब तो चिल्ला जाड़ा पड़ने लगा। देखो घी कैसा पत्थर हो रहा है।'' मै उनकी हंसी उड़ाती, ''घी का डब्बा ममी का मौसम विभाग है।''
हम कभी सर्दियों में एबटाबाद नहीं गये लेकिन वहां की बर्फों में लोगों के जिन्दा दफन हो जाने की खबरें सुनने में आतीं। दिल्ली से एबटाबाद जाने में रेल किराया भी काफी खर्च होता था। सन 1942 में जब पापा एल.टी. कर रह थे, नानी का देहांत हुआ। मां हम दोनों बहनों के साथ मथुरा में थीं। वे अपनी मां की मृत्यु पर नहीं जा सकीं, इसकी कलप उन्हें जनम भर रही।

1947 के दंगे देखने के लिये नाना जीवित नहीं रहे। 1946 में उनका देहांत हो गया। उस समय तक एबटाबाद में हिन्दुओं के मन में असुरक्षा बोध पैदा हो चुका था। नाना की सर्राफे की दुकान और गल्ले का कांट्रैक्ट वाला काम दोनों में खतरा और खिचखिच थी। नानी के मरने के बाद मामा लोग सपरिवार मथुरा आ गये। एक मामा जो जमापूजी संभालने पीछे रह गये थे, बहुत तकलीफ उठा कर काफिले के साथ पैदल दिल्ली पहुंचे और वहां से रेल द्वारा मथुरा। एबटाबाद में हमारी कई दुकानें और मकान थे। लेकिन दावे के कागजों के आधार पर मामाओं को छत्ताा बाजार में महज एक बड़ी दुकान और कृष्णनगर में एक विशाल मकान मिला। जाते ही नहीं मिल गया। पहले वे किराये के मकान में रहे। वर्षों से एबटाबाद में रहने के कारण मामाओं का बोलचाल का लहजा पंजाबी हो गया था। उन्हें मथुरा में शरणार्थी समझा गया। शायद इसी भ्रम को काटने के लिए उन्होंने अपनी केमिस्ट शाप का नाम रखा 'फ्रंटियर गुप्ता स्टोर्स'। वर्षों यह दुकान उस इलाके का प्रमुख प्रतिष्ठान था जहां दवा लेने वाले, मामा को डाक्टर साहब कहते।

मामा लोग का किराये का मकान चढ़ैया पर था। उसमें बड़े बड़े हाल थे। ऊपर की छत पर छिड़काव कर सबके बिस्तर लगाये जाते। बड़े मामा का बेटा श्याम मेरी उम्र का था। छोटे मामा हम दोनों का सामान्य ज्ञान जांचते। अँग्रेज़ी की परीक्षा लेते। वह मुझसे तेज निकलता। मामा घर में आर्थिक समृद्धि थी। लेकिन उस घर में प्रतिष्ठा के पैमाने बदल रहे थे। एक बार मामा ने ममी से कहा, ''इंदु तुम तीसरे दर्जे में आती हो इससे हमारी बड़ी नाक कटती है। कम से कम इंटर में तो आया करो नहीं तो हम स्टेशन पर उतारने नहीं आयेंगे।''

सलूनों पर ममी राखी भेजतीं। भाईदूज पर टीका, और भतीजों के लिए खिलौने और मिठाई के रुपये। मामियां हाथ नचा कर कह देतीं ''तुम्हारा कोई टीका वीका नहीं मिला इस बार।'' वे पंजीकृत पार्सल और पत्रा की पहुंच भी नकार देतीं। संदेश एकदम साफ था। धीरे धीरे ममी ने राखी भेजनी बंद कर दी। लेकिन हर रक्षाबंधन और भाई दूज पर ममी उदास हो जातीं। चार भाई, चारों हृदयहीन। दूसरे मामा अपनी पत्नी के प्रति भी हृदयहीन थे। दूसरे मामा गोरे चिट्ठे और सुंदर थे। पत्नी उनका विलोम थीं। वे मामी से चौदह साल नहीं बोले। बाद में यह एक लंगड़ाता हुआ दाम्पत्य रहा। मामा घर हो या दादा घर मैंने तब देखा कि स्त्रियों और पुरुषों में मेलजोल या मुहब्बत जैसा भाव दिख पाना कठिन था। ज्यादातर पुरुष अपना वक्त पुरुषों में बिताते और महिलाएं बच्चों और महिलाओं में।

पापा गाजियाबाद की प्रिंसिपली छोड़ कर आकाशवाणी दिल्ली आ गये थे। संघ लोक सेवा आयोग से चयनित होकर वे प्रोग्राम एक्जेकिटिव के पद पर नियुक्त हुए थे। वे अपने काम और पद को इतना महत्व देते थे कि हमें लगता हमारे पिता साक्षात् भारत सरकार हैं। हिन्दी, अंग्रेजी साहित्य के किसी सवाल पर उनके साथ बहस करना उनकी प्रतिभा से टकराना था। लोग जीवन से साहित्य में जाते हैं वे साहित्य से जीवन में पहुंचते थे। वे किताबों में डूबे रहते। सुबह दफ्तर जाने से पहले अखबार, रेडियो, पत्रा पत्रिकाएं और पुस्तकें शाम को वापस लौट कर यही क्रम। रात में आंखों में आइड्राप डाल डाल कर पुस्तक पढ़ते। उसमें लाल पेन्सिल से निशान लगाते। बड़े होने पर मुझे लगा कि किताबों से उठे सवालों में कई बार उनके पैर बुरी तरह उलझ जाते थे। वे दोस्तों से पूछते, ''हैमलेट ने अपने पिता के हत्यारे को मारने में इतनी देर क्यों की?'' 'किंग लियर' पढ़ कर वे उदास हो जाते। वे स्वयं को लियर से इतना एकात्म कर लेते कि हमसे पूछते, ''क्यों अगर मैं आकर तुम्हारे पास रहूं तो इस सारे सामान का क्या होगा। किताबें तो जाएंगी ही जाएंगी।''

किताबों से मुझे कोई परहेज नहीं था। न ही रवि को। मैं हंस देती। पर मेरी दीदी कहती, ''पापा मेरा दो कमरों का मकान! ये सब कबाड़ा लेकर आये तो हम लोगों को तो बाहर बरामदे में रहना पड़ेगा।'' पापा कहते, ''देखा इंदु, ये मेरी बेटियां, रीगन और गॉनेरिल बनी हुई हैं। ओफ इंदु तुमने कोई कार्डीलिया क्यों नहीं पैदा की!'' मुझे धक्का लगता क्योंकि मैं मन ही मन मानती थी कि मैं उनके प्रति कार्डिलिया से भी ज्यादा सहिष्णु हूं। खैर ये तो बाद की बातें हैं जो पहले याद आ गयीं।

बिचले मामा जी राष्ट्रीय शर्करा संस्थान में प्राध्यापक नियुक्त हो गये थे। वे कभी कभी हमारे घर आते। पापा की सारी गतिविधि नजरअंदाज कर वे पूछते, ''जीजाजी आपकी तनखा फोर फिगर हुई या नहीं?''

ममी का चेहरा रुआंसा हो जाता पर पापा बहादुरी से मुकाबला करते ''मैं भारत के राष्ट्रपति की तरफ से कागजों पर दस्तखत करता हूं। है किसी की इतनी इज्जत?''

बिचले मामा जी एक हाथ के अंगूठे और तर्जनी को आपस में मसलते हुए कहते, ''इज्जत मतलब कीमत।''

मामा घरों में संवाद के सभी सिलसिले खत्म होते गये। धीरे धीरे रिश्तों की रस्म अदायगी भी खत्म हुई।

ममी और पापा के मन में अपना अपना घर छूटने का दंश उम्र भर बना रहा। उनके अंदर एक अप्रवासी का प्रवेश हो गया। सरकारी नौकरी में जहां पहुंच जाते वहां कुछ देर को ऐसे बस जाते जैसे यहीं से उगे हों। वहां से तबादला होने पर, ट्रक में सामान लदते ही, वे ऐसे मुंह फेरते जैसे कभी कोई नाता ही न था। पापा कहते, ''बैठे होंगे अज्ञेय कितनी नावों में कितनी बार। हम तो रहे हैं कितने शहरों में कितनी बार।'' बचपन में पापा के तबादलों ने हमें भारत दर्शन करवाया; बड़े होने पर जिन्दगी की ठोकरों ने घाट घाट का पानी पिलवा दिया।

सरकारी नौकरी में आने से पहले पापा कई नौकरियों में रहे। चम्पा अग्रवाल इंटर कालेज और श्रीराम कालेज आफ कामर्स में प्राध्यापन के बाद सिर्फ इकतीस साल की उम्र में वे भिवानी के वैश्य कालेज में प्रिंसिपल बन गये। उस जमाने में प्रिंसिपल का पद रौबदाब वाला था। भिवानी वे सिर्फ एक साल रहे। उसके बाद वे शम्भूदयाल इंटर कालेज में प्रिंसिपल बन कर गाजियाबाद आ गये। पापा को दिल्ली से लगाव था। वे हमेशा दिल्ली के करीब रहना चाहते थे।
जब भिवानी से हम चले तो ममी ने कहा ''अच्छा हुआ, बंदरों से जान छूटी। जहां देखो बंदर ही बंदर।'' एक बार हम शहर से बाहर गये थे। बंदरों ने मकान में घुस कर घर के सामान की दुर्गति कर दी थी। वैसे भी बंदरों का कपडे उठा कर ले जाना, मेज पर से फल उठा कर भाग जाना भिवानी में रोज की घटनाएं थीं। हम लोग मथुरा के बंदरों को भी देख चुके थे।

सन् 1947 में गाजियाबाद भारत विभाजन की आंच झेल रहा था। पिण्डी लाहौर से भाग कर आने वाले लोग सिर्फ दिल्ली को अपना ठिया नहीं बना रहे थे। उनका मुंह गाजियाबाद की तरफ भी बराबर था। कभी भी अफवाह फैलती 'आज आधी रात को पाकिस्तानी आकर हमला बोलेंगे।' हमें तब तक शहर में मकान नहीं मिला था। हम शम्भूदयाल कालेज की विज्ञान प्रयोगशाला में रह रहे थे। हमले की आशंका वाली रात, कालेज के चपरासी और चौकीदार छत के ऊपर ढेर सा फूस बिछा देते और एक कोने में ईंटों के अध्दों का ढेर लगा देते, ''बेबी लोग, दबक कर सोना, हाथ पैर बाहर एकदम नहीं निकालना। फिर भी अगर अल्ला मुल्ला चढ़ आयें तो ये अध्दे उन पर मारना।'' वे समझाते।

कालेज की दीवार से सटा जिला अस्पताल था, जहां मरीजों की भीड़ लगी रहती। एक बार मैंने देखा वहां बुरका पहने एक औरत बेंच पर बैठी हुई थी। उसके पास उसका परेशानहाल शौहर खड़ा था। औरत के गाल पर चाकू चलने का घाव था और एक कम्पाउंडर, उसका गाल बिना सुन्न किये, टांके लगा रहा था। दीदी ने कहा, ''हाय इस मरी को तकलीफ नहीं होती। कैसे सिलवा रही है जैसे गाल नहीं रुमाल हो।'' मैंने कहा, ''जब इसे चाकू मारा गया तब कितनी तकलीफ हुई होगी।''

एक और बात याद आती है। उन दिनों हमारे एक निजी सेवक ने डाकघर में डाक बांटने का काम पकड़ लिया था। फुरसत मिलने पर वह कभी कभी आ जाता और बाजार वगैरह का काम कर देता। एक दिन आकर बोला, ''बीबी जी जरा माचिस देना।'' माचिस लेकर उसने चिट्टियों के एक बड़े पुलिन्दे में आग लगा दी। पूछने पर निहायत लापरवाही से बोला, ''सब मुसल्लों की हैं। अब चिट्ठियां तो पाकिस्तान जाएंगी नहीं। सब भाग गये यहां से।'' ममी के मन में पाकिस्तान का मतलब अपना वतन था। उन्होंने शिवचरण से कहा, ''क्यों रे भूल गया तू रोज मुझसे चवन्नी लेता था। 'शहनाई' पिक्चर में रेहाना का नाच देखने के लिए। आज तू मुसल्लों को कोस रहा है।''

यह सच बात थी। शहनाई फिल्म देखे बिना शिवचरण को नींद नहीं आती थी। वह रोज रात 9 से 12 बजे का शो देखता। जैसे ही फिल्म में 'मार कटारी मर जाना। ये अंखियां किसी से लगाना ना, ओ ऽऽ लगाना ना।'' गाना खत्म होता शिवचरण हाल के बाहर चला आता।

ममी की बात से शिवचरण खिसिया गया। फिर वह कई दिन नहीं आया।
डाकघर से निकल जाने के बाद वह फिर हमारे यहां काम करने लगा। सन् 1948 की बात है। एक शाम वह बाजार से लौट कर जोर जोर से रोने लगा। चीख पुकार के बीच उसने कहा, ''बीबी जी आज मैं रोटी नहीं खाऊंगा। गांधी बाबा को गोली लग गयी। गांधी बाबा बोले हे राम। पूरे शहर में जो मुंह जूठा करे वह पाकिस्तान जाए।''

उस उमर में, लगभग सात साल की मैं गांधी जी की प्रार्थना सभाएं देख चुकी थी। एक प्रार्थना सभा में मैंने गांधी जी से सवाल भी किया था ''गांधी बाबा आप नंगे क्यों रहते हो?'' उत्तर न देकर गांधी जी ने मुझे गोद में उठा लिया था और प्यार कर उतार दिया।

गांधी जी का अंतिम संस्कार देखने और श्रध्दांजलि देने हम सब दिल्ली गये थे। हर आदमी की जुबान पर एक ही बात थी, 'अब देश का क्या होगा'? लक्खा भीड़ में अपनी जगह पर खड़े रहना दुश्वार था। पापा ने हम दोनों बहनों को, थोड़ा पीछे हटा कर एक एम्बेसडर कार के ऊपर चढ़ा दिया। वहां पहले से ही कई लोग खड़े थे। तभी कहीं से कार का मालिक आया और बोला, ''हें, हें, मेरी कार पिचक जाएगी। इस पर से उतर जाइए।'' लोग कार की छत से नीचे कूद गये। हम 'पापा' 'पापा' चिल्लाने लगे। तभी कार मालिक ने कहा, ''नहीं बच्चों तुम्हारे बोझे से कुछ नहीं होगा, खड़ी रहो।''

हमारे घर में हर महत्वपूर्ण घटना अथवा विषय पर पापा बड़े विस्तार से चर्चा करते। यही ढंग भारत चाचा का था। मुझे याद है इन्हीं दिनों पापा ने हमें गांधी जी की आत्मकथा का संक्षिप्त संस्करण लाकर दिया था। हमें जन्मदिन पर भी किताबें ही मिलती थीं पापा से। वे शिक्षा में मनोरंजन मिला देते। वाकेब्युलरी गेम के अंतर्गत वे हमें कुछ शब्द लिख कर देते और कहते, ''इनके पर्यायवाची शब्द सोच कर लिखो।'' सात साल की उम्र में मुझे एक भी दिन ऐसा याद नहीं जब मैं बिना कुछ पढ़े, पापा की नजर बचा कर सो सकी हूं। दोपहर में सोना हमारे घर में दंडनीय अपराध था। गाजियाबाद में हमारा स्कूल 'कन्या वैदिक विद्यालय' डासना गेट पार कर टाउनहाल वाली सड़क पर था। हम दोनों बहनें पैदल स्कूल जातीं। हमारे स्कूल के बस्ते में एक थैला और कुछ पैसे रखे होते। वापसी में हम घर के लिए सब्जी खरीदते हुए जातीं। वही अभ्यास मेरा अब तक पड़ा हुआ है। मुझे इसमें कुछ भी असंगत नहीं लगता कि आफिस से निकल कर घर का सामान खरीदूं और लदी फंदी घर लौटूं।

यों तो दिल्ली में ही डेढ़ साल की उम्र में मुझे चेचक, काली खांसी और गर्दनतोड़ बुखार जैसी बीमारियां हुई थीं, पर उस वक्त की मुझे कोई स्मृति नहीं रही। इस बार सन् 1950 में दिल्ली आना पूरे होशो हवास में आना था। पापा के मन पर पुरानी दिल्ली चढ़ी हुई थी। इसलिए कूचा पातीराम में मकान लिया था। यहां कमरों में दिन में भी बिजली जलानी पड़ती। इंद्रप्रस्थ स्कूल में नाम लिखाया गया पर मुझे वहां का बहनजीमय माहौल एक दिन भी अच्छा नहीं लगा। किसी तरह कक्षा उत्ताीर्ण हुई। हां पुरानी दिल्ली की रौनक का मुझ पर प्रभाव पड़ा। दरअसल जब हम किसी शहर को नया अथवा पुराना कहते हैं हम भूल जाते हैं कि ये दो समानांतर संसार अपनी तरह से वहां रहने वालों को समृध्द करते हैं। कोई किसी का स्थानापन्न नहीं हो सकता। जामा मस्जिद पर सेन्ट्रल बैंक की सीढ़ियों पर, मटके में लगे ठंडे दहीबड़े मिलते थे। पापा हमें शाम को वहां ले जाते और दहीबड़े खिलाते हुए कहते, ''हम नेहरू जी से ज्यादा खुशकिस्मत हैं, तुझे मालूम है मुन्नी?''

''क्यों?''

''क्यों कि नेहरू जी सेन्ट्रल बैंक की सीढ़ियों पर बैठ कर दहीबड़े नहीं खा सकते।''

मैं पापा की बात की कायल हो जाती। दरअसल पापा के अंदर एक मौलिक क्रांतिकारी रचनाकार जब तब करवट लेता रहता। लेकिन उनका शिक्षक प्रशिक्षक व्यक्तित्व उसे बार बार दबा देता। ऊपर से वे अपनी इतनी ऊर्जा नौकरी में लगा देते। जाने कितने लोगों को उन्होंने वार्ता लिखने का ढंग सिखाया। वे पहले विषय सुझाते फिर भाव समझाते और अंत में रेडियो की भाषा सिखाते। अगर सीखने वाला राजी हो तो उनके हाथों वह जीवन भर के लिए प्रथम श्रेणी का वार्ताकार बन कर निकलता। पापा अपने शिष्य का बहुत दूर तक साथ देते। उसकी वार्ता सुनते, गुण दोष गिनाते और अच्छा प्रसारण होने पर ऐसे खुश होते जैसे वे ही लेखक हों और वे ही वार्ताकार। उन दिनों दूरदर्शन आरम्भ नहीं हुआ था। आकाशवाणी की प्रतिष्ठा तब सर्वोच्च थी। आकाशवाणी में कला अनुरागी, साहित्य प्रेमी अधिकारी रखे जाते थे। रेडियो कार्यक्रम का मानदेय तब बहुत कम था पर सम्मान बहुत ज्यादा। दिल्ली की एक साहित्यिक गोष्ठी की याद मन में आज तक उजली है।

रविवार था। बैठक में जमीन पर गद्दे लगा कर बिछात की गयी। एकदम सफेद चादरें। अड़ोस पड़ोस से मांग कर गाव तकिये लगाये गये। रसोई में आठ बजे सवेरे से ही अंगीठी लहक उठी। ममी बैठी जग में केवड़े का पानी बना रही थीं। हम बच्चों को समझा दिया गया देखो शोर मत मचाना। कहानी गोष्ठी होने वाली है। जैनेन्द्र कुमार आयेंगे। चुपचाप पीछे बैठ कर उनका कहानी पाठ सुनना। साढ़े नौ बजे तक बैठक भर गयी। उस समय के दिल्ली के प्रमुख साहित्यकार, कलाकार बड़े सहज भाव से कूचा पातीराम की उस संकरी गली से हमारे यहां आये। इंद्र विद्यावाचस्पति, प्रभाकर माचवे, रेवतीसरन शर्मा, डा. विजयेन्द्र स्नातक, अमरनाथ सरस, विष्णु प्रभाकर, चंद्रगुप्त विद्यालंकार और अन्य अनेक। कुछ ही देर बाद जैनेन्द्र जी आ पहुंचे। मैं सांस रोक कर उन्हें देखती रह गयी। झकाझक कुर्ते पाजामें में गौर वर्णी व्यक्तित्व से ऐसा तेज प्रकट हो रहा था कि लगा कमरे में कई बल्ब और जल उठे। मैंने पाया जितने रचनाकार थे सभी में कोई न कोई विशेषता थी। जैनेन्द्र जी ने अपनी कहानी का पाठ किया। उस पर परिचर्चा रही। पर मैं तो पानी की, चाय की टे्र लाते हुए, एलिस इन वंडरलैण्ड की तरह बस लेखकों को देखती रही। जैनेन्द्र जी की अस्फुट आवाज, दार्शनिक अंदाज और दिव्य रहस्यवाद का जादू कई दिनों तक मेरे मन पर तारी रहा।

सिर्फ एक साल में पापा का तबादला हमें नागपुर ले आया। एकदम नया नगर। भाषा अनजानी। सेण्ट जोजेफ कान्वेण्ट के ठीक सामने हमारा घर। स्कूल में अपने आप जाकर फीस जमा की और दाखिल हो गये। तब तक बोल चाल में इंग्लिश रवां नहीं हुई थी। एक दिन मिस ने कहा, ''क्लास की कबर्ड (अलमारी) में से रजिस्टर लाकर स्टाफरूम में मुझे दे जाना।'' मेरे साथ मेरी सहपाठी चांदनी थी। रजिस्टर हमें अलमारी में नहीं मिला। हम दोनों सोचने लगीं मिस को कैसे बतायें यह बात। चांदनी ने वाक्य रचने की जिम्मेदारी मुझ पर डाली और मुंह में दही जमा लिया। मैंने हिन्दी में वाक्य बनाया। हर शब्द की इंग्लिश चिड़िया बैठायी और स्टाफ रूम में जाकर धड़ल्ले से कह दिया, ''द रजिस्टर देयर नाट इज।''

इसके पहले कि मिस मुझे टोकतीं वहां बैठी एक वरिष्ठ शिक्षिका ने मिस जोजेफ को लताड़ दिया, ''तुम्हें पढ़ाते छ: महीने हो गये हैं मिस जोजेफ। तुम अपनी छात्रााओं को एक सादा वाक्य बनाना भी नहीं सिखा पायी। मुझे तुम्हारी शिकायत करनी पड़ेगी।'' मिस जोजेफ का रंग उड़ गया। उस दिन से छ: दिन के अंदर उन्होंने मुझे अंग्रेजी के कई वाक्य रटा दिये और एक दिन मेरे ज्ञान का प्रदर्शन भी रख दिया। मैंने भी इतनी मेहनत की कि हर विषय में अव्वल आकर छठी से सीधी आठवीं में पहुंच गयी। डबल प्रमोशन।

सहेलियों के साथ मैंने शहर का अनुसंधान अपनी तरह से किया था। स्कूल से छुट्टी पाकर मैं अपनी टोली के साथ फक्के मारती घूमती। कभी हम माडल होटल जाकर फूल तोड़ कर लाते, कभी चैपेल के पीछे पड़े रंगीन कागज बटोरते; कभी जंगल जलेबा तोड़ने, सड़क किनारे के पेड़ों पर पत्थर चलाते; कभी डनलप टायर के दफ्तर जाकर डनलप का कैलेण्डर मांग लाते। नागपुर में भयंकर गर्मी पड़ती। धूप इतनी चटख कि परिन्दे भी उड़ना बंद कर दें। दोपहर में बाहर निकलने की सख्त मनाही थी पर मां की आंख लगते ही मेरे हौसले बुलंद हो जाते। मेरी आवारगी की साथिनें थीं सरोजनी नायडू, आशा सिंह, सम्मन और गुरजीत। मन लगाने के अड्डों की हमारी जानकारी विचित्रा थी। कई बार हम चारों, दो आने घंटे पर किराये की साइकिल लेकर साइकिल चलाने का अभ्यास करतीं। प्राय: मैं साइकिल से गिर पड़ती। मेरे घुटने अकसर फूटे रहते। फ्राक भी इतनी लम्बी नहीं होती कि चोट छुप जाए। घर पर ममी रुई में टिंचर आयोडिन लेकर तैयार बैठी होतीं। तब भाषण और थप्पड़ और टिंचर एक साथ मिलते।
नागपुर के सनीचरी बाजार में हर चीज पायली से नपती थी। पायली एक किस्म की नपनी थी, आजकल के जग जैसी, किन्तु लोहे की बनी। वहां चावल, दाल, साबुत नमक, चीनी, हर चीज पायली से मिलती। बांट तराजू का झंझट नहीं था। घर पर कई बार चावल विनिमय करने वाली ऐसी स्त्रिायां आतीं जो एक पायली बारीक चावल देकर दो पायली मोटा, राशन का चावल नाप कर ले लेतीं। पूरी बस्ती की गृहणियां खुशी खुशी उनका यह विनिमय स्वीकार करतीं।

नागपुर की सनीचरी में लम्बी संकरी टोकरियों में छोटे छोटे संतरे मिलते थे। ये रस निकालने के काम आते। पूरी सनीचरी में संतरों की महक ऐसी बसी रहती कि लगता यहां किसी ने संतरे के रस का छिड़काव किया है। दस रुपये सैकड़ा, पंद्रह रुपये सैकड़ा और सैकड़ा होता एक सौ चालीस का। दीनता और अशिक्षा का शिकार ग्रामीण दुकानदार किसी भी कीमत पर अपना माल खपा सकने में ही अपने को धन्य समझता। नागपुर के लोग भी बहुधा संतरे के पेड़ जैसे होते हल्का ठमका हुआ सा कद, औसत लेकिन आत्म सम्मान से अभिभूत।
बाजार के अंतिम छोर तक आते आते संतरों की महक तीखी सड़ांध में तब्दील हो जाती। वहां एक किनारे सड़े, पिचके फलों का अम्बार लगा रहता।

कस्तूरचंद पार्क हमारे घर से ज्यादा दूर नहीं था। वहां हर छठे छमासे एक बड़ी नुमाइश लगती। उसमें आने वाले खेल तमाशे हमें मुंहजुबानी याद थे: मौत का कुआं, हा हा ही ही गैलरी, दो सिर वाला बालक, मैरी गो राउंड और जायण्ट व्हील। प्रवेश शुल्क था एक आना। नुमाइश आने के पहले हफ्ते ही पापा हमें पूरी नुमाइश की सैर करवा देते। छोटे मोटे खिलौने खरीद देते और वे अपने काम में लग जाते। मुझे इतने से चैन कहां। शाम को नुमाइश की बत्तिायां आंख मार मार कर न्योता भेजतीं। सरोजिनी और सम्मन की दिलचस्पी प्लास्टिक के खिलौनों वाली दुकान में थी। आशासिंह और मैं मेरी गो राउंड में घूमना चाहती थीं।


आखिरकार हम सबने एक रास्ता निकाला। नुमाइश के चारों ओर चटाई की दीवारें खड़ी की गयी थीं। हमने दो चटाइयों को खिसका खिसका कर बीच में इतनी जगह बना ली कि हम वहां से नुमाइश में घुस जाएं। चोरी से नुमाइश का मजा लूटने का प्रोग्राम कई दिनों तक निर्विघ्न चला। अचानक एक दिन हम लोग नुमायश के चौकीदार कांछा की चंगुल में आ गये। उसने हमें घुसते हुए पकड़ लिया। उसने कहा, ''हैं बेबी लोग, तुम चोरी करता, ठहर जाओ, हम पुलिस को बुलाता है।''

पुलिस का नाम सुनते ही सम्मन का तो सुथना गीला हो गया। बाकी बची हम तीनों की भी सिट्टी पिट्टी गुम। अपने हिस्से के तमाम खिलौने कांछा को देकर आखिरकार हमने छुटकारा पाया।

इसी कस्तूरचंद पार्क से जुड़ी एक घटना थी लता मंगेशकर का नागपुर आना। इसी पार्क में उनका कार्यक्रम था। कई दिनों से कार्यक्रम के टिकट बिक रहे थे। मुफ्त पास हाथोंहाथ खत्म हो गये थे। आकाशवाणी ने इस शाम का सीधा प्रसारण रखा हुआ था। मैं जाना चाहती थी। दीदी भी। पर पापा ने कहा, ''नहीं वहां जाकर क्या करोगी। रेडियो पर सुन लेना।''

मन मार कर मैं घर में ठहर गयी। अजीब बात यह भी थी कि पापा रेडियो में काम करते थे पर हमारे घर में रेडियो नहीं था। एक दिन धोबी के भगेलू बेटे ने कहा, ''बाबू जी अगर आप मुझे पैंसठ रुपये दें तो मैं रेडियो बना दूं।''
थोड़े मोल भाव के बाद उसे चालीस रुपये देना तय हुआ। चौथे रोज वह जो रेडियो बना कर लाया वह देखने में एक बौड़म नाव जैसा ढांचा था। एस्बैस्टास के एक चौकोर टुकड़े पर कुछ कलपुर्जों की सहायता से दो लम्बे बल्ब खड़े किये गये थे। उनके बीच में मजबूत गोल डोरी बंधी थी। प्लग लगाने और बटन घुमाने से वह टुनटुन बजने भी लगा। घर में रौनक आ गयी।

इसी रेडियो पर हमने लता मंगेशकर का सजीव कार्यक्रम सुना। दिन में लता जी रेडियो स्टेशन पर आमंत्रित थीं। वहां उन्होंने मराठी और हिन्दी गीतों का प्रसारण किया। 'जा मुली जा तिल्या धरी तू सुखी रहा' (जा बेटी पति के घर में तू सुख से रहना) गीत में आवेग, आशीष और वेदना का अद्भुत ज्वार था।
आकाशवाणी स्टूडियो से लता जी बहुत स्नेह सम्मान के साथ विदा हुईं। शाम को कस्तूरचंद पार्क में उनकी संगीत सभा का अनुभव उतना ही कड़वा रहा। उनके नाम पर पार्क में हजारों की भीड़ उमड़ पड़ी थी। सभा में कुछ लोग लगातार फिल्मी गानों की फरमाइश कर रहे थे जबकि लता जी गैर फिल्मी गानों के लिए आमंत्रित की गयी थीं।

यकायक वहां बैठे लोगों में हलचल मच गयी। किसी मनचले ने एक लड़क़ी का दुपट्टा खींच दिया। लड़की के साथ उसका भाई था। भाई ने ऐतराज किया। मनचले के साथ कुछ और मनचले भी थे। सब भाई से भिड़ गये। यकायक भगदड़ मच गयी। लता जी को तो तुरंत मंच के पीछे सुरक्षित जगह पर ले जाया गया, पर पार्क में आयी महिलाओं, लड़कियां को काफी संकट झेलना पड़ा। वे वहां से गिरती पड़ती भागीं। किसी के चोट लगी, किसी का दुपट्टा गिर गया।

अगले दिन लोकल अखबारों ने इस घटना को खूब उछाला। कई दिनों तक अफवाहें उड़ती रहीं कि कस्तूरबाचंद पार्क में डेढ़ सौ दुपट्टे गिरे पाये गये, वहां पच्चीस साड़ियां फटी मिलीं। लोग कस्तूरचंद पार्क को लता मंगेशकर पार्क कहने लगे।

हम जो अपने बेढब रेडियो पर कार्यक्रम सुन रहे थे, लता जी के एक गीत के बीच में खड़ खड़ भड़ भड़ आने पर यही समझे कि भगेलू का बनाया रेडियो दम तोड़ रहा है।

पापा ने आफिस से आकर सारा किस्सा बताया। उन्हें बड़ी तकलीफ हुई थी ''इतनी बड़ी कलाकार शहर के बारे में क्या धारणा लेकर वापस गयी होंगी।''
यह तो एक दुर्घटना थी वरना नागपुर शांत शहर था। शास्त्राीय संगीत सभाओं में वहां सैकड़ों की संख्या में श्रोता आते। आकाशवाणी से इन सभाओं का सजीव प्रसारण होता। श्रोताओं को इस बात का एहसास रहता। वे बड़े शऊर से बैठते। जो सेवक पान और जल की टेर घुमाता वह भी बेआवाज अपना काम करता। वे संगीत सभाएं मेरे सांस्कृतिक जीवन की पाठशाला जैसी थीं। पापा एक एक कलाकार को महाकाय व्यक्तित्व की तरह हमारे सामने प्रस्तुत करते।

एक बार कर्नाटक संगीत के एक शास्त्रीय संगीत कलाकार आये। उनका नाम हम बहनों को याद नहीं हो रहा था। पापा ने कहा, ''शाम तक उनका नाम याद कर मुझे सुनाओ नहीं तो संगीत सभा में तुम नहीं जाओगी।''

फिर क्या था। मैं और दीदी दिन भर दोनों कमरों और बालकनी का चक्कर लगाते हुए रटते रहे सर्वपल्ली कर्रकुडी सम्भाशिवा अय्यर। बहुत वर्षों बाद पता चला कि यह कलाकार एम. एस. शुभलक्ष्मी के गुरु रहे थे।

नागपुर में पूना की ही तरह गणेश चतुर्थी से अनंत चतुर्दर्शी तक दस दिन, जगह जगह संगीत, साहित्य कला और नाटक के कार्यक्रम आयोजित होते। सुगम संगीत प्रतियोगिताओं में कई बार दीदी को पुरस्कार भी मिला। मुझे भी नागपुर के एक उस्ताद से शास्त्रीय गायन सिखाने की जिद पापा ने पकड़ी पर कामयाब नहीं हुए। पहले ही स्वर संधान 'सा' में सांस खींच कर आ ऽ ऽ ऽ करने में मुझे हंसी और खांसी का दौरा पड़ गया। संगीत अभ्यास दम तोड़ गया।

लेकिन पापा क्या जो बच्चों को चैन से जीने दें। उन्हें कोई न कोई धुन सवार हो जाती। हम दोनों कान्वेन्ट में पढ़ रही थीं। इसलिए हिन्दी को लेकर पापा चिन्तित रहते। उन्होंने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा की हिन्दी परीक्षाओं में हमारा नाम लिखवा दिया। ये कक्षाएं शाम को होती थीं। सेण्ट जोजेफ की ही दो अध्यापिकाएं जो आपस में बहनें थीं, नरगिस भरूचा और गवि भरूचा अपने घर पर प्रारम्भिक से लेकर कोविद् पाठयक्रम की कक्षाएं लेती थीं। वहीं से मैंने प्रारम्भिक और प्रवेश परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं। जब परिचय में प्रवेश लिया तब बीच साल में ही पापा का तबादला हो गया।

नागपुर की एक और महत्वपूर्ण स्मृति है गजानन माधव मुक्तिबोध की उपस्थिति की। एक दिन वे पापा के साथ रेडियो स्टेशन से घर आये थे। वे बेहद लम्बे और नुकीली हड्डियों वाली देह के थे। वे स्टडी में आकर जमीन पर बिछे बिस्तर पर जब बैठे उनके पैर का पंजा चादर पर जैसे छप गया। अरे बापरे। इतना लम्बा पंजा था। उनके गालों की हड्डियां उभरी हुई थीं, आंखें फटी फटी। वे बीड़ी पीते थे और मुट्ठी बांध कर कश लगाते। हमारे घर में कोई राखदानी नहीं थी। जब तक ममी ने कोई कंडम तशतरी इस काम के लिए ढूंढी वे जमीन पर राख झाड़ चुके थे। वे बहुत देर तक बातें करते रहे थे। पापा उनसे वार्ताओं की एक श्रृंखला करवाना चाहते थे। पर वे लगातार इसमें फंसने से बच रहे थे। बाद में एक बार हम सब राजनांदगांव उनके घर भी गये थे। उनका मकान लम्बे क्वार्टर जैसा था। हम सब छत पर सोये थे। रात में अपनी गहरी भारी आवाज में उन्होंने अपनी कविताएं सुनायी थीं। बीच में रुक कर अपनी पत्नी शांता जी से कहा था, ''एका, एका।'' (सुनो, सुनो) शांता जी ने करवट लेते हुए कहा, ''मला झोपायचा।'' (मुझे सोना है) अंधेरे में मुक्तिबोध जी की बीड़ी की गंध और खांसी की ठसक आती रही। उन्होंने पापा से कहा, ''कविता से कमाई नहीं है पार्टनर। सोचता हूं कहानी लिखनी शुरू करूं।''

एक और परिवार की याद उभरती है। रेडियो स्टेशन में लीला चिटनिस के भाई मोहन नगरकर पापा के साथ ही पैक्स थे। पहले वे फिल्मों में संघर्ष करते रहे थे। दो एक अधबनी फिल्मों के साथ साथ उनका फिल्मी भविष्य भी डब्बे में बंद हो गया तो उन्होंने आकाशवाणी में नौकरी कर ली। तब ऐसे लोगों की भरमार थी जो फिल्मों से हताश होकर सरकारी सेवा में आये अथवा आकाशवाणी से छलांग लगा कर फिल्मों में जा पहुंचे। मोहन नगरकर बड़े स्टाइल से कपड़े पहनते। पापा मजाक करते, ''तुम प्रोडयूसर का सूट लेकर भाग आये, कल किसी ने बताया।'' नगरकर भी पीछे नहीं रहते। वे पापा से कहते, ''आपने कभी लिम्बू चा लोंचा खाया है?'' पापा का अनुसंधान विभाग तत्काल सक्रिय हो जाता। वे मराठी की प्राइमर खरीद लाते। उसमें लोंचा शब्द नदारद होता। वे विमल चोरघड़े से पूछते। विमल हंस पड़ती। पापा आश्वस्त हो जाते कि यह कोई अप्रिय बात नहीं है। एक दिन मस्ती में पापा ने अपने बॉस नंदलाल चावला से पूछ लिया, ''चावला साहब आपने कभी लिम्बू चा लोंचा खाया है क्या?'' चावला, साहब की तरह तन गये। उन्हें लगा अग्रवाल कोई ऐसी वैसी बात पूछ रहे हैं।

नगरकर धरमपेट रहते थे। वहां तक जाने में हमारी पिकनिक मन जाती। उनका बेटा मिलिन्द मुश्किल से तीन साल का था। मैं उसे पकड़ कर प्यार करती तो वह गाल पोंछता हुआ रोता, ''आई ममताताई मला त्रास देती।'' मिसेज नगरकर बड़ी कायदे की थीं। मिलिन्द अगर आधा पराठा खाना चाहता तो वे ठीक आधा पराठा बेल कर सेंकतीं।

मोहननगर के मकान में चार फ्लैट थे। चारों में आकाशवाणी के अधिकारी रहते। नीचे स्टेशन इंजीनियर मिस्टर पै का परिवार था, ऊपर मिस्टर कृष्णास्वामी का। दोनों ही घरों में हमें नये शब्द सीखने को मिलते। तमिल की 'वणक्कम, तन्नि, पो, इंगवा, सापड़वा' तभी के सीखे हुए हैं। पिछले दिनों कोयम्बटूर जाने पर ये शब्द खूब काम आये। मिस्टर पै के घर में थोड़ी अंग्रेजियत थी, उन्हीं की फैलायी। उनकी लड़की विनया बड़ी मासूम सी थी। कभी वह दुपहर में रस्सी कूदने बाहर की ओर आ जाती। उसकी मां खिड़की से थोड़ा सा मुंह निकाल कर आवाज लगाती, ''विनया धूप में तुम काली हो जाओगी। अंदर आओ।'' जब मैं ममी को यह बात बताती ममी मुझे एक थप्पड़ लगाते हुए कहतीं, ''वह अपनी मां का कहना सुनती है इसीलिए देख कैसी परी जैसी है। एक तू है न शक्ल न अक्ल। जन्मी थी औलाद। सारा दिन धूप में फक्के मारती घूमती है।'' मेरे लड़कपन में ममी मुझे लेकर हमेशा हताश और निराश रहीं।

अब जब नागपुर की धूप हमें चांदनी लगने लगी थी, सेण्ट जोजेफ कान्वेण्ट में हम दोनों बहनें हर साल अव्वल आने लगी थीं तो यकायक पापा का फिर तबादला हो गया। उस जमाने में आज जैसी अनुशासनहीनता नहीं थी। आज तो जिसका तबादला होता है वही तबादला रुकवाने मंत्रालय पहुंच जाता है। तब तबादले का मतलब तखलिया होता था। तबादला होते ही सिर्फ छ: दिनों में सब काम किये जाते स्कूल से स्थानांतरण प्रमाणपत्रा बनवाना, दूसरे शहर का निर्गतपत्रा प्राप्त करना, ट्रक से सारा सामान नये शहर में भेजना और खुद गाड़ी में बैठ रवाना हो जाना। मुझे याद है जब नागपुर से हम चले तो स्टेशन पर पापा अपने मित्राों और सहकर्मियों से विदा ले रहे थे, ममी महिलाओं से गले मिल रही थीं, दीदी अपनी सहेलियों के पते, डायरी में उतार रही थी और मैं मूर्खों की तरह खिड़की से हाथ हिला रही थी और मन ही मन कह रही थी 'नागपुर टाटा, कस्तूरचंद पार्क बाय बाय।' मैं छोटी थी, मेरी सहेलियां भी छोटी थीं। उनके स्टेशन आने का सवाल नहीं था।

बम्बई तब मुम्बई नहीं बना था।
बम्बई में नया घर, नये लोग, नयी चमक थी, पर मेरे अंदर महीनों संतरों की तरह नागपुर महकता रहा। कभी सरोजिनी याद आती, कभी सम्मन। कभी अपना साइकिल चलाना याद आता तो कभी स्कूल के कौतुक जब सुधा केकरे, मंदा करंदीकर और आशा पाटकी कहतीं, ''मराठी सीखनी है तो पहले बोल के दिखाओ 'चांदी चा चमचा चांगला चकचकात आहे'। मराठी के च अक्षर का उच्चारण विशिष्ट था। वह च और स की संयुक्त ध्वनियों से बनता था। अगर कह दिया 'सांदी सा समसा' तो गलत होगा। तो मैं नहीं सीख पायी पर अपनी सहेलियों को यह पहेली पूछ कर निरुत्तार कर दिया करती मैं कहती, ''तुम बोल कर दिखाओ, 'शी सैल्ज सी शैल्ज आन द सी शोर' अथवा 'पके पेड़ पर पका पपीता'।''

बम्बई में भी अनेक मराठी भाषी सहेलियां बनीं। मराठी क्या हर भाषा की बनीं। वहां हमारी कक्षा ही समस्त भारत का छोटा नक्शा थी। हैरानी की बात यह थी कि प्रत्येक भाषा भाषी हिन्दी बोलने की कोशिश जरूर करता था। वहां मैं सामान्य वाक्य भी बोलती तो मेरे सहपाठी कहते, ''बाप रे कितनी टंग ट्विस्टिंग (जटिल) हिन्दी बोलता तुम भैया लोग।'' बम्बई में अग्रवाल होना भैया होना है, उत्तर प्रदेश वाला भैया जिसके पास तबेला हो और जो दूध घी का कारोबार करे।

अंधेरी पूर्व में उस वक्त एक नयी बस्ती बसी थी जमनालाल बजाज नगर। उसे संक्षेप में जे. बी. नगर या वामनपुरी कहते थे। यों तो वहां सभी जातियों के लोग रहते थे, पर मारवाड़ी परिवार कुछ ज्यादा थे। हमारा घर बस्ती के बीचोबीच था, चारों तरफ हरियाली से घिरा। चारदीवारी के अंदर दो भागों में बंटा खूबसूरत लॉन। तीन सीढ़ियां चढ़ कर पहले बरामदा था, दो तरफ से खुला। यहां खड़े होकर बम्बई की बारिश देखना रोमांचक था।

जे. बी. नगर का जीवन अलग सुरताल में धड़कता। वहां की महिलाएं कहतीं, ''हमारे मिस्टर तो बम्बई गये हैं, रात में लौटेंगे।'' बिल्कुल ऐसे गाजियाबाद में सुना था, ''वे दिल्ली गये हैं, देर से आयेंगे।'' यानी तब गाजियाबाद जे. बी. नगर बड़े दूर के उपनगर माने जाते थे।

हमारी बस्ती में बम्बई के अलावा छोटा सा राजस्थान भी था। तीज, गणगौर और बसौढ़ा जैसे पर्वों पर यह बाहर दिखाई दे जाता। स्त्रियां बड़े चटकीले रंगों के ओढ़ने पहन कर बड़ की पूजा, देवी स्थापन और मेंहदी मांडना करतीं। रक्षाबंधन से कई दिन पूर्व मखमल के कपड़े पर कलाबत्ता, सलमे और सितारे से लड़कियां राखी बनाना शुरू कर देतीं। उनकी कढ़ाई इतनी महीन होती कि राखी कलाकृति बन जाती।

अंधेरी और जोगेश्वरी के ठीक बीच में सेण्ट ब्लेजेज स्कूल था जहां हमें दाखिला मिला। स्कूल जाने के लिए हमें दो बसें बदलनी पड़तीं। एक बस से हम जे. बी. नगर से अंधेरी स्टेशन आते। फिर हम पुल पार कर पश्चिम दिशा से अगली बस पकड़ते। स्कूल में सहक्षिक्षा थी। प्रवेश के पहले दिन मैंने क्लास में पहुंच कर शिक्षक से पूछा, ''सर मैं कहां बैठूं?''

मिस्टर होडीवाला ने सिर से पैर तक मेरा जायजा लिया दुबली पतली सिलबिल सी साधारण सूरत की लड़की जिसका स्कर्ट बार बार कमर से खिसक रहा था और जो एक हाथ में किताबों का ढेर पकड़े हुए थी और दूसरे में पेन।
इतनी देर में पहली पंक्ति के एक लड़के ने अपनी सीट से थोड़ा सा खिसक कर, सीट थपथपाते हुए कहा, ''कम एंड सिट हियर।''

सारी क्लास हंस पड़ी। मैं घबरा गयी। होडीवाला सर ने लकड़ी का डस्टर मेज पर खटखटा कर क्लास को चुप किया और गम्भीर आवाज में कहा, ''तीसरी लाइन में दूसरा सीट, गो।'' होडीवाला सर गणित पढ़ाते थे जो कभी भी मेरा प्रिय विषय नहीं रहा। वे हर लड़की को मिसिबाबा और हर लड़के को रास्कल कहते। उनकी आदत थी सवाल दे देने के बाद क्लास में टहल कर हर विद्यार्थी की कापी जांचते। उनका मानना था कि सवाल हल करने का तरीका भी सही होना चाहिए। पढ़ाते वे अच्छा थे लेकिन उनकी एक आदत से क्लास की लड़कियां परेशान रहतीं। जब वे लड़कियों की कापी जांचते और सवाल सही निकलता तो कहते, ''नाउ लेट मी गिव यू आ बिग पैट।'' शाबाशी देने में वे छात्रा की पूरी पीठ पर हाथ फेरते, कुछ ऐसे कि लड़की कांप जाती। आधी छुट्टी में, कैन्टीन मे उसल पाव खाती हुई लड़कियां एक दूसरे से पूछतीं, ''होडीवाला सर पीठ में क्या ढूंढते हैं?'' सर की शैक्षिक योग्यता सिर्फ एस.टी.सी. थी। हम सबने इसका खुलासा किया था ''संडास टिकट कलेक्टर।''

क्लास में लड़कों की उपस्थिति से लड़कियों में एक चेतना बनी रहती थी कि उन्हें कैसे बोलना चालना बैठना है। यही चेतना लड़कों में भी रहती। लड़कों में हम लड़कियों के प्रति संरक्षण भाव भी था। एक बार सारी क्लास 'बेनहर' फिल्म देखने गयी तो लड़कों ने बिल्कुल सुरक्षा सिपाहियों की तरह हाल में हमारी देखभाल की। आपस में शरारत कभी हो जाती पर बेअदबी कभी नहीं होती।
पहली बार आंखों पर चश्मा भी बम्बई में ही लगा। पहले पहल बड़ी शर्म आयी। कोई क्या कहेगा? कुछ दिन चश्मे का सर्कस ऐसे चला कि श्यामपट देखते समय मैं लगा लेती और बाकी समय उतार लेती। मेरे बराबर एक लड़का बैठता था कुमारस्वामी। उसने झल्ला कर एक दिन कहा, ''स्टाप इट ममता। या तो इसे पहनो या फेंक दो इतनी छोटी सी बात तय नहीं कर सकतीं क्या?''

स्कूल में हम बहनें।'अग्रवाल सिस्टर्स' के नाम से जानी जाती थीं। दोनों पढ़ने में अच्छी थीं। दीदी तो बेहद सुंदर थी। उसके और मेरे संघर्ष में विलोम था। वह लड़कों के बीच प्रतिष्ठा पाती, मैं लड़कियों के बीच। मेरी बहुत सहेलियां बनीं।
बम्बई की अटपटी हिन्दी से परिचय होता गया। बम्बई का बेढब व्याकरण भी अच्छा लगने लगा। मेरी पक्की सहेली लूईस परेरा गोरेगांव में रहती थी। मेरी वजह से वह जोगेश्वरी से लोकल न पकड़, अंधेरी से पकड़ती। हम दोनों प्लेटफार्म पर, बातों में मशगूल बैठी रहतीं, एक ही कागज से भेलपुड़ी खातीं। हमारी बातें खत्म होने में न आतीं, भेलपुड़ी खत्म हो जाती। लोकलें आतीं चली जातीं।

बम्बई में हम हर तरफ फिल्म स्टूडियो से घिरे हुए थे। अंधेरी से जे. बी. नगर तक के रास्ते में पांच स्टूडियो पड़ते। एक स्टूडियो स्कूल के पास था। फिल्मों के तरुण बोस, ब्रजेन्द्र गौड़, इंदीवर और सी. एस. दुबे तब युवा तुर्क माने जाते थे। सब पापा के दोस्त थे। हमें कई बार फिल्म की शूटिंग देखने का मौका मिला। दो बार रैफिल की टिकट बेचने के सिलिसिले में भी हम कई फिल्मी सितारों के घर पहुंच गये।

फिल्मों से भी ज्यादा असर उन नाटकों का पड़ा जो बम्बई में देखे। पृथ्वीराज कपूर के नाटक 'पठान', 'दीवार' और 'आहुति' का बड़ा गहरा प्रभाव मन पर पड़ा। इनमें बड़ी सादगी से देश विभाजन, दहेज और वर्ग विषमता जैसी समस्याओं को दर्शाया गया था। ये कुछ 'बड़बोले' किस्म के नाटक थे पर अपने उद्देश्य में सफल। सभी में अंतिम दृश्य एक आघात की तरह आता था। 'आहुति' नाटक में जब अंत में पृथ्वीराज कपूर, बेटी की लाश अपनी बाहों पर उठाये स्टेज पर आते, सारा हाल हाहाकार कर उठता। सुहाग के लाल जोड़े में सजी बेटी जैसे हर घर की बेटी हो। इन नाटकों में एक तरफ पृथ्वीराज कपूर की वजनी शख्सियत और उनका नाटकीय अंदाज था, दूसरी तरफ शम्मीकपूर और शशिकपूर की सींकिया उपस्थिति। नाटक खत्म होने के बाद पृथ्वीराज कपूर मंच से नीचे आते। वे अपने कंधों से शाल उतार, हाथों में लेकर कुछ पल आंख बंद कर, सिर झुका कर, संकल्प शक्ति बटोरते और फिर शाल को झोली की तरह फैला कर खड़े हो जाते। उनका मस्तक ऊंचा रहता, आंखें सामने की दीवार को सम्बोधित होतीं और उनका रोम रोम याचक की भूमिका में भी दाता के गौरव से मंडित होता। दर्शक उनके व्यक्तित्व के वैभव से खिंचे चले आते। ज्यादातर उनकी झोली नोटों से भर जाती। हिन्दी रंगकर्म को जीवित रखने के लिए पृथ्वीराज कपूर ने वर्षों ऐसा किया। उनकी वह गुरु गम्भीर मुद्रा भव्य विराट और विपुल तसवीर की तरह मेरी आंखों में बसी है। एक अद्भुत रंगकर्मी कला का दाय मांगता हुआ, पर अपनी शर्तों पर। मांगने की अदा ऐसी कि याचक दाता लगे और दाता याचक।

छठे दशक की बम्बई की छटा निराली थी। कभी हमें वी. जी. जोग का वायलिन वादन सुनने का अवसर मिल जाता तो कभी रतनजंकर का जलतरंग। किसी दिन हम कमला नेहरू पार्क के विशाल जूते में चक्कर लगाते तो किसी दिन डबल डेकर बस में बैठ हाजी अली पर समुद्र के छींटे अपने चेहरे पर महसूस करते। पापा हम तीनों को बम्बई बुला लेते और हम खूब घूमते। कभी रेडियो की किसी उबाऊ संगीत सभा में फंस जाते। ध्रुपद धमार हमारी जान ले लेता। कलाकार के पीछे नेवी ब्लू पर्दे पर सिल्क का मोनोग्राम लगा रहता, 'बहुजन सुखाय बहुजन हिताय'। मैं और दीदी कहते, 'बहुजन दुखाय बहुजन सताय'।

स्कूल के स्तर पर मेरी मानसिकता में कुछ बदलाव हो रहे थे। एक बार पिकनिक पर कार्ला केण्ज गये तो मैंने पाया कि मेरी क्लास की हर लड़की की जेब में एक ब्वायफ्रेण्ड था। वे चट्टानों की ओट में अपनी दोस्ती के किस्से सुनातीं, खिल खिल हंसतीं, उनकी आंखों में चोरबत्तियां जलतीं। मैं चौदह की उम्र में दस साल की लगती, मेरी आंखों पर चश्मा था, चेहरे पर चेचक के निशान। ब्वायफ्रेण्ड का दूर दूर तक कोई आसार नहीं था। एक बार स्कूल में दो दिन की छुट्टी पड़ी। इन दो दिनों में मैं मन ही मन कुछ बनाती रही। तीसरे दिन स्कूल खुलने पर मैंने रिसेस में उसल पाव खाते हुए राज कुमार गर्टरूड और लूर्ड्स के सम्मुख रहस्य का पिटारा खोल डाला, ''पता है इतवार को हम लोनावाला गये थे। वहां देवलाली से नेवी के लड़के आये हुए थे। हाय, क्या तो उनका यूनिफार्म। उनमें से तीन तो बड़े फ्रेण्डली हो गये।''

गर्टरूड ने अविश्वास से कहा, ''तीन तीन।''
मैंने कहा, ''उनमें सबसे हैण्डसम तो श्यामसिंह था। छह फुट लम्बा, टीडीएच (टाल डार्क एंड हैण्डसम) उसने वादा किया है बम्बई आयेगा।''
राजकुमार ने ऐंठ कर कहा, ''क्यों नहीं, तुम तो मिस इंडिया हो, क्या समझती हो अपने आपको?''
एक पल को मैं डगमगायी फिर दूनी हेकड़ी से मैंने कहा, ''मेरी पसंद तुम्हारी पसंद से बेहतर है।''

राजकुमार क्लास की एक मोटी लड़की पद्मा तोलानी के साथ अकसर नजर आता था इसीलिए मैंने ऐसा कहा था।

दरअसल श्यामसिंह मेरे सपनों का यथार्थ था। मैं उसे जितना चाहे सुंदर, सकाम और सन्नद्ध बना सकती थी। महीने भर मैंने सभी सहेलियों को खूब छकाया, इतना कि उन सब के ब्वायफ्रेण्ड फीके पड़ गये।

एक दिन अकेले में मुझे लगा अब मजाक की इंतहा होती जा रही है। कल्पना के ब्वायफ्रेण्ड के साथ कुछ मजा भी नहीं आ रहा था। सो एक दिन इतना बड़ा गुब्बारा मैंने खुद ही फोड़ डाला। सहेलियों के चेहरे पर रंग लौटा लेकिन लड़के अविश्वास से ताकते रह गये कि मैं पहले सच बोल रही थी या अब बोल रही हूं। मुझे यह सोच सोच कर बड़ा आनंद आता रहा कि मैं 'मिल्ज एंड बून' जैसा एक हीरो सिर्फ शब्दों के सहारे जिन्दा कर सकती हूं। दूसरी तरफ घर में पापा थे जो हम दोनों बहनों से कहते रहते, ''जो भी काम करो उसमें शिखर पर रहो। माउंट एवरेस्ट पर सिर्फ दो के लिए जगह होती है, इससे ज्यादा नहीं। यह भूल जाओ कि तुम लड़की हो।''

दरअसल बम्बई बार बार जाना हुआ 1953 से 1955, 1965 से 1970 और 1985 फिर 1989। हर बार एक नया स्पंदन लेकर लौटी। जब तक बम्बई में समुद्र है, लोकल गाड़ियों की भागदौड़ है, दोस्त परिवार हैं तब तक इसकी बाहें मुझसे लिपटने को आतुर रहेंगी।

*********.

रचनाकार – ममता कालिया हिन्दी साहित्य की वरिष्ठ, चर्चित और समर्पित रचनाकार हैं. आप किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. संप्रति आप भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता में निदेशक हैं.

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. बेनामी8:38 pm

    ममता कालिया का ये लेख पढकर बहुत अच्छा लगा। रवि जी आप बधाई के पात्र हैं जो रचनाकार के माध्यम से अच्छा साहित्य पाठकों तक पहुंचा रहे हैं।
    नव-वर्ष की शुभकामनाओं के साथ
    सारिका

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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